शनिवार, अक्तूबर 27, 2018

रावण के पुतला दहन में पटाखे छोड़ने की कहाँ मनाही है?



नये नये कनाडा आये थे. जब पहली बार अपने एक नये गोरे दोस्त के मूँह से सुना था कि इस बार वीक एण्ड पर वो अपनी मम्मी और उनके बॉय फेण्ड के घर डिनर पर जायेगा तो बड़ा अजीब सा लगा था. हम जिस संस्कृति और जो देखते हुए बड़े होते हैं, उसी के आधार पर हर बात का एक निश्चित खाका दिमाग में बना लेते हैं.
अभी हाल ही में कनाडा की राजनिति में पैर जमाने की कोशिश की. पत्नी चुनाव लड़ीं. लगा ही नहीं कि कोई चुनाव लड़ भी रहे हैं. न लाऊड स्पीकर, न बैनर पोस्टर, न मंच मचान, न रैली और चुनावी सभाएँ, न किसी के हाथ जोड़ना, न किसी के पैर छूने, न झूठे वादे, न दारु बंटवाई, न पैसे देकर भीड़ जुटाई. बस कुछ डीबेट लायब्रेरी या स्कूलों में या लोकल टीवी पर, कुछ डोर टू डोर खटखटा कर लिटरेचर थमाया, अपनी वेब साईट और सोशल मीडिया के पेज का लिंक, निर्धारित सड़को पर दो फुट बाई दो फुट के छोटे छोटे प्लास्टिक के साईन बोर्ड और बस हो गया चुनाव. ८ बजे वोट डालना बंद. ८ बज कर १० मिनट पर परिणाम घोषित. हार गये तो घर जाकर सो जाओ. जीत गये तो घर जाकर सो जाओ. और हाँ, जाते जाते वो सड़को से साईन बोर्ड उतार कर लेते जाना वरना ७२ घंटे बाद सिटी उतार कर ले जायेगी और आप बिल और पेनाल्टी भर रहे होंगे बोर्ड की संख्या के आधार पर. न लड्डु बँटे, न नगाड़े, न जुलूस निकला, न रंग गुलाल, न माला पहनाई गई और न बम पटाखे फूटे. ये कैसा चुनाव? एकदम फीका फीका. मिठाई बिना शक्कर वाली. हम जिन चुनावों में पले बढ़े हैं, उनकी चमक ही कुछ और होती थी.
इन लोगों ने वो चुनाव देखे नहीं हैं तो इनको इसी में मजा आ जाता है. किसी प्रत्याशी नें दूसरे प्रत्याशी के सोशल मीडिया पर दिये स्टेटमेन्ट को स्टुपिड स्टेटमेन्ट क्या कह दिया, बवाल मच गया कि डर्टी पॉलिटिक्स..सामने वाले को माफी मांगना पड़ी तब बवाल थमा. माहौल माहौल की बात है.
अब तो हमारी आदात पड़ गई है ऐसे चुनाव देखने की. मम्मी के बॉय फ्रेण्ड और पापा मम्मी दोनों ही बॉय देखने सुनने की. वक्त के साथ दिमाग समझौता कर लेता है मगर प्रथम दृष्टा तो आज भी शादी बारात की सोचो तो दुल्हा दुल्हन के तौर पर लड़का लड़की ही विचार में आते हैं.
होली की बात सोचो तो आज भी वारनिश, काला पेंट, कीचड़, चटख वाले गीले रंग कि होली का हफ्ता निकल जाये मगर रंग न छूटे, भांग, गुजिया, नमकीन, साथियों की नगाड़े बजाती नाचती नशे में झूमती टोली. आजकल तो सुनते हैं कि होली पर लोग फैमली के साथ हिल स्टेशन और पिकनिक आदि पर चले जाते हैं.
दिवाली की याद यूँ है कि हरी रस्सी वाले सुतली बम, लक्ष्मी बम, लाल हजारों पटाखों वाली लड़ी जो पड़ पड़ बजाना शुरु हो तो २० मिनट तक बजती ही जायें, राकेट, अनार, सात आवाज वाला बम, पटक बम ..याद करुँ तो लिखते ही चला जाऊँ. जो शाम से बजना शुरु हों तो रात २ बजे तक बजते ही रहें. तब पंडित जी लक्ष्मी पूजन का मुहर्त निकालते थे और हम बच्चे इन्तजार करते थे कि जल्दी से पूजा खत्म हो तो पटाखे चलायें. लड़ियों वाले पटाखे में से बिना फूटे उछल कर दूर जा गिरे पटाखे और फुस्सी निकल गये बम अगली सुबह गरीब बच्चे बीनकर ले जाते थे और उनकी दिवाली उसी से अगले रोज मना करती थी.
अब सुना पटाखे चलाने का मुहर्त अदालत तय कर रही है. शाम को ८ से १० बजे तक फोड़ लो वो भी बिना आवाज वाले, हरित क्रांति के तहत बिना धुँआ वाले. लड़ी फोड़ना बैन. डिजिटल इंडिया में जहाँ अब हर पेमेन्ट ऑन लाईन करने पर जोर है, वहीं पटाखे ऑनलाईन बिकने पर बैन. ये कैसा आधा डिजिटलाईजेशन है. सही है दो हजार के नोट वाला गाँधी के चश्में वाला स्वच्छता अभियान जैसा. चश्में के एक शीशे पर स्वच्छ लिखा है और दूसरे पर भारत है. एक शीशा दिखाने का और दूसरा देखने का.
गरीब की किस्मत के लड़ी से उड़े बम भी ये ले उड़े. खैर, गरीब की तो वैसे भी किसी ने क्या सुध ली है सिवाय चुनावों के दौरान आसमान दिखाने के.
चुनाव में जब पूरे देश में पटाखे चलाये जायेंगे तब उस पर कोई बैन नहीं सुना? शायद इसलिए कि शहर का इतना बड़ा वाला दूसरा प्रदुषण शहर से हटकर राजधानी निकल जायेगा, यह सोचकर पटाखों वाला प्रदुषण कम नजर आया हो चुनाव के जुलूस में, तो जाने दिया हो. कौन जाने!!
रावण के मरने पर पुतला दहन में पटाखे छोड़ने की कहाँ मनाही है?
-समीर लाल ’समीर’   
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में रविवार अक्टूबर २८, २०१८


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शनिवार, अक्तूबर 20, 2018

शेक्सपियर सही कहे थे कि नाम में क्या धरा है?



अच्छा हुआ शेक्सपियर मौका देख कर १६१६ में ही निकल लिए. अगर आज होते और भारत में रह रहे होते तो देशद्रोही ठहरा दिये गये होते और कुछ लोग उन्हें बोरिया बिस्तर बाँध कर पाकिस्तान जाने की सलाह दे रहे होते. ये भी कोई बात हुई कि कह दिया ’नाम में क्या रखा है, गर गुलाब को हम किसी और नाम से भी पुकारें तो वो ऐसी ही खूबसूरत महक देगा’. इतनी बुरी बात करनी चाहिये क्या?
मैने भी एक बार कोशिश की थी जब मंचों से गज़ल पढ़ना शुरु की. तब मन में आया था कि अपने नाम ’समीर’ में से एक शब्द साईलेन्ट मोड में डाल देते हैं और खुद को मीर पुकारेंगे तो शायद मंच लूट पायें. बाद में मंच बुजुर्गों की सलाह मान कर नाम मे ’स’ पर से साइलेन्सर हटाया और गज़ल के व्याकरण समझने में मन लगाया. सिर्फ मीर और गालिब नाम रख लेने से आप मीर और गालिब सा लिखने लगेंगे, इससे फूहड़ और क्या सोच हो सकती है.
उस रोज पान की दुकान पर तिवारी जी बोले कि अब अपने घंसु को ही देख लो. माँ बाप ने कितनी उम्मीद से नाम घनश्याम दास रखा था मगर वे रह गये घंसु के घंसु. सुबह खाने को रुपये हैं तो शाम जेब खाली. घनश्याम दास नाम रख देने से कोई अपने आप बिड़ला तो नहीं हो जाता. सारा जीवन गुजार दिया घंसु ने मगर साईकल को ही गाड़ी कहते रह गया.
घंसु भी भला कहाँ चुप रहते. उखड़ पड़े कि ऐसे में आप ही कौन कमाल किये हैं? नाम के बस तिवारी हो और रोज शाम सूरज ढलते ही दारु और मुर्गा दबाते हो. सोचते हो कि अँधेरा हो गया अब भगवान क्या देख पायेगा कि आप क्या कर रहे हो? वहाँ ऊपर सब नोट हो रहा है. नाम तो आपका बदला जाना चाहिये.
तिवारी जी क्या जबाब देते. अब वे मूँह में पान भरे धीरे से मुस्कराते हुए कह रहे हैं कि शेक्सपियर सही कहे थे ’नाम में क्या धरा है..’
घंसु बोले कि तिवारी जी कुछ उधार मिल जाता तो सोच रहा हूँ एक चाय का ठेला खोल लूँ. नाम में तो वाकई कुछ नहीं धरा. अब काम में क्या धरा है वो अजमा कर देख लूँ. कौन जाने कल को देश की बागडोर ही हाथ लग जाये?
तिवारी जी उधार तो तब दें जब खुद के पास कुछ हो, अतः जैसा कि होता है सलाह ही दे दी. देख घंसु, देश में लाखों चाय वाले हैं. उस लाईन से देश की बागडोर पाने में काम्पटिशन बहुत है. उससे अच्छा तो एक बार फिर नाम बदल कर ललित, नीरव, विजय टाईप कुछ रख ले और बैंक से लम्बा कर्जा मांग. मांगने में तो तेरी क्षमताओं के आगे वो निश्चित ही फीके हैं, फिर भी कर्जा लेकर देश के बाहर भाग ही लिये. तो तू भी कोशिश करके देख ले. मिल जाये तो विदेश निकल लेना वरना तो विदेश जाना इस जन्म में तेरे भाग्य में नहीं.
घंसु असमंजस में है कि बात देश की बागडोर संभालने की थी और तिवारी जी कर्जा लेकर विदेश भाग जाने की बात कर रहे हैं?
तिवारी जी समझा रहे हैं कि तूँ असमंजस में न प़ड़. एक बार कर्जा लेकर विदेश निकल कर तो देख. जो देश की बागडोर संभालते हैं न, तब तू उनकी बागडोर संभालेगा. कुछ समझा? अब घंसु की मोटी बुद्धि भी समझ चुकी थी कि आगे क्या करना है?
मगर एक बात फिर भी नहीं समझ आई कि शहर का नाम बदलने से क्या हासिल? क्या इलाहाबाद का नाम बदल प्रयागराज कर देने से इलाहाबाद हिन्दु हो गया या पहले मुसलमान था? क्या संगम स्नान अब और अधिक पाप धो डालेगा? क्या गंगा अपने आप साफ हो जायेगी? क्या सुलाकी के लड्डु अब ज्यादा मीठे हो जायेंगे? क्या कुँभ की महत्ता बढ़ जायेगी? क्या पुराने दबंगों की दबंगाई अब नये दबंगो के हाथ चली जायेगी? किसी भी क्या का क्या जबाब होगा, कौन जाने मगर यह हर सरकार के हथकंड़े हैं. किसी के किसी वजह से, तो किसी के किसी के किसी वजह से.
मुझे अपना बचपन का साथी रमेश याद आ रहा है. जब वो होमवर्क न करके लाता तो मास्साब की मार से बचने के लिए वो उनको अन्य बातों में उलझाता कि मास्साब मुझे फलाने ने गाली बकी. फलाने ने मारा. मास्साब उसी को सुलझाने में ऐसा उलझते कि असल मुद्दा होम वर्क पूछने का वक्त ही नहीं मिल पाता. रमेश मेरी ओर देख मंद मंद मुस्कराता और धीरे से आँख मारता.
बाकी तो आँख मारने का अर्थ निकालने में आप समझदार हैं ही!
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में रविवार अक्टूबर २१, २०१८

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शनिवार, अक्तूबर 13, 2018

दलित और गरीब को मीटू हैशटैग नहीं लगाना पड़ता


यह तय बात है कि हर जीव का सम्मान होना चाहिये, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. इससे भला कौन न सहमत होगा? अतः पहले ही बता दूँ कि मैं मीटू हैशटैग (#MeToo) के साथ हूँ जब तक की उसका इस्तेमाल अति के लिये न हो और दोनों तरफ से हो. फिलहाल तो दिखता है कि मीटू सिर्फ लड़कियों के एकाधिकार में है. अगर ऐसा ही चलता रहा ३७७ धारा के बाद भी तो दूसरी तरफ से सब एकजुट होकर वीटू न शुरु कर दें, इस बात का डर है.
घंसु सुबह सुबह पान की दुकान पर बैठे तिवारी जी की तरफ इशारा कर के सब आने जाने वालों को बता रहे थे कि हीटू. तिवारी जी बोले अबे, वो मीटू होता है हैशटैग के साथ, हीटू नहीं.
घंसु तम्बाखु थूकते हुए बोले कि हम भी जानते हैं कि वो मीटू होता है, मगर हम सबको बताना चाहते हैं कि हमको प्रताड़ित करने वालों में आप भी थे. हम तो दलित हैं ही. दलित और गरीब को मीटू हैशटैग नहीं लगाना पड़ता. वो तो जगजाहिर है कि ये प्रताड़ित हैं. इनको तो मात्र इतना बताने के लिए हिम्मत जुटाना है कि कौन कौन इन्हें प्रता़ड़ित कर रहा है. मैं समझता हूँ इसके लिए हीटू के हैशटैग से बेहतर और क्या हो सकता है?
तिवारी जी घंसु के एकाएक प्रदर्शित ज्ञान और हिम्मत दोनों देखकर प्रभावित होने के बदले सन्न थे. सोच रहे थे कि या इलाही बता इसे आखिर हुआ क्या है? मगर फिर भी अपनी सन्नाहट पर काबू करते हुए उन्होंने घंसु से पूछा कि बता, मैने तुझे कब प्रताड़ित किया?
घंसु बोले कि जब हम ८ साल के थे, तब आपने मुझे नीच कहते हुए मेरे पीछे चपत लगाई थी. तिवारी जी बोले कि अगर तुमको उस बात का इतना ही बुरा लगा था तो तुम उस वक्त क्यूँ नहीं कुछ बोले जो आज ३० साल बाद हीटू कर रहे हो?
घंसु मुस्कराते हुए बोले कि तब एक तो हमें यह मालूम ही नहीं था कि आप गाली बक रहे हो. दूसरा, तब आपका भभका था और आप हमारे स्कूल में अध्यापक थे. अगर उस वक्त विरोध करते तो आज जो इन्टर पास हैं वो ५ वीं पास भी न हो पाते. आज जब आपका नाम मोहल्ले के सज्जनों में आता है मगर हैसियत यह कि आप मेरा कुछ बिगाड़ सकने की पूरे अधिकार खो चुके हैं तो सोचा, अब सारे काम निकल लिए हैं, तो मीटू से हिम्मत बटोर कर आप पर हीटू लगाया जाये.
वैसे भी सफेद कमीज पर ही तो कीचड़ उछालने का मजा है, वरना तो कोई कीचड़ में लिपे पुते पर क्या कीचड़ उछालेगा?
तिवारी जी अब क्या करते? बुढ़ापे में जब उनके पास इज्जत के सिवाय और कुछ नहीं बच रहा है तो उसको भी लुटता कैसे देखें? उन्होंने घंसु से किनारे ले जाकर बातचीत की. घंसु को उसके अगले एक माह की दारु का वादा करके उसे चुप कराया. अब घंसु नया सफेदपोश बंदा सोच रहा है जिस पर हीटू की गोली चला सके.
घंसु हीटू हैशटैग वायरल कर फिलहाल पी लूँ मोड में चले गये हैं मगर मोहल्ले के अन्य घंसु ( शेक्सपीयर ने कहा है न कि नाम में क्या धरा है तो इधर घंसु का मतलब बाकी दलित या प्रताड़ित समझ कर चलें) अपने अपने शिकार को जुबानी हैशटैग करने की फिराक में लगे हैं हीटू की गोली के निशाने पर लेकर.
हिम्मत का एक स्वभाव है कि अगर एक दिखाये तो बाकी में भी आ जाती है. वही शायद मीटू, हीटू जैसे अभियान को हिम्मत दिला रहा हो भले ही बरसों बाद. कितने भी बरस बीत गये हों मगर यह तो ध्यान रखना ही होगा कि जब जागो तब सवेरा.
अभियान अभियानों को जन्म देता है. काश!! मीटू हीटू को कुछ इस तरह जन्म दे कि आम जनता भ्रष्टाचारी नेता के खिलाफ हीटू के हैशटैग की गोली दागे और नेता यह कह कर पनाह माँगे कि आईंदा से आई विल नेवर डू. याने कि आगे से कभी भ्रष्टाचार नहीं करुँगा, बस इस बार मुझे माफ कर दो.
एक कोशिश करके यह हिम्मत तो जुटाओ आम जन..कौन जाने कल यह सच हो जाये.
चरितार्थ करो यह कहावत कि जब जागो तब सबेरा..
अब जाग भी जाओ!!
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में रविवार अक्टूबर १४, २०१८


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रविवार, अक्तूबर 07, 2018

कृपा कहाँ अटकी है, कौन जाने?


यूँ तो हर त्यौहारों पर घर की सफाई की परम्परा रही है किन्तु दीवाली पर इस साफ सफाई का जोश कई गुणित रहता है. कहते हैं कि लक्ष्मी जी आती हैं और अगर घर में गंदगी देखती हैं तो बिना कृपा बरसाये लौट जाती हैं. ऐसे में भला कौन रिस्क ले कि सिर्फ गंदगी के कारण धन दौलत मिलने का मौका हाथ से जाता रहे.
रुपया किसे नहीं चाहिये? और उसके लिए साल में एक दिन साफ सफाई करने से कौन गुरेज करेगा. फिर उसके बाद भी अगर रुपया न मिले तो उसकी जिम्मेदारी फूटी किस्मत की. कम से कम लक्ष्मी जी को ये तो कहने को नहीं रहेगा कि सफाई नहीं की, इसलिए रुपये न भेज पाई.
अच्छा है लक्ष्मी जी राजनीति में नहीं हैं वरना रकम न पहुँचाने के क्या क्या बहाने खोज रहीं होती? आखिर जिसने भी इस तरह की आस्था को बुजुर्गों से सुनकर उन्हें पूजा है, वो बदले में प्रसाद तो चाहेंगे. कतई आश्चर्य न होता अगर सुनने में आता कि उल्लु की तबीयत खराब हो गई थी इसलिए नहीं आ पाई या कहतीं कि पुराने नोट बदली नहीं हो पाये इसलिए डिलिवरी नहीं हो पाई या मंहगाई का रोना रो देती कि खुद का ही खर्चा चलना मुश्किल हुआ है तुमको क्या पहुँचायें. वैसे तो वो रकम न पहुँचाये जाने के आरोपों पर चुप्पी ही साधना बेहतर समझतीं.
आज के प्रभु अपनी आस्था का विषय जुमले के रुप में खुद ही घोषित करते हैं. बुजुर्गों को सुनने का जमाना अब रहा नहीं. वो मात्र मार्गदर्शक मंडल की शोभा बढ़ाते हैं. अतः अब प्रभु स्वयं बताते हैं कि तुम मुझे वोट अर्पित करो, मैं तुम्हारे खाते में १५ लाख भेजूँगा. जब वोट मिल जाते हैं तो फिर वहीं टंटा. सफाई नहीं दिख रही है और मामला रुपयों का है. तो सारे इन्तजारकर्ताओं को सफाई की पुड़िया दी जाती है, स्वच्छता अभियान के रुप में. जब साफ सफाई होगी तो ही न लक्ष्मी जी आवेंगी.
अब सारा देश स्वच्छता अभियान से जुड़ा सफाई में लगा सेल्फी खिंचवाये पड़ा है कि शायद प्रभु सेल्फी देखकर ही प्रसन्न हो जायें और १५ लाख खाते में आ जायें. सेल्फी इस बात की सुविधा देती है कि किस एंगल को दिखाना है और किसे नहीं? सेल्फी के चक्कर में न जाने कितनी फेसबुक प्रोफाईल वॉव लुक पर वायरल हुई जा रही हैं मगर ये १५ लाख का मामला बस १० -२० दोस्तों के सिवाय किसी और के लिए वायरल हो नहीं पा रहा है.
स्वच्छता अभियान के चक्कर में, लोग जो काम साल दर साल से करते आये हैं उसमें बस एक नया एंगल आ गया है कि अब इसकी सेल्फी खींची जा रही है और फेसबुक पर टाईम लाईन अपडेट कर दी जा रही है. दीवाली सफाई हैशटैग #स्वच्छता अभियान, #दीवाली, #लक्ष्मी जी, #मोदी जी, #कालाधन, #आरबीआई, #नोटबंदी, #गुलाबीनोट, #उल्लु जी. उम्मीद यह रहती है कि कहीं भी अगर फिट हो जाये तो कृपा खुल जाये. निर्मल बाबा की तर्ज पर यह सोच बदली है कि कृपा जाने कहाँ अटकी हो? कोशिश हर तरफ करनी होती है.
वैसे ध्यान देने योग्य बात यह भी है बात सफाई की है और हैशटैग हुए उल्लु, वो भी उल्लु जी के नाम से. आखिर मजबूरी में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है, ऐसी कहावत है. ऐसे में अगला प्रभु कौन होगा, कहना मुश्किल है मगर नाम लेना उचित नहीं. सब मौके की बात है. न जाने कौन सी आस्था की झीर फूट पड़े और स्वच्छता की सेल्फी किसी और एंगल से लेने का फैशन चल पड़े.
परिवर्तन संसार का नियम है.
इन्तजार किजिये एक नये आयाम का,
नये समय के नये सफाई अभियान का.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर ०७, २०१८ में:


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