मंगलवार, फ़रवरी 27, 2018

आजकल का बच्चा तो मानो पैदा नहीं होता, डाऊनलोड होता है




त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव,
त्वमेव विद्या, द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं ममः देवदेवा ||
तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो, तुम्ही हो बंधू, सखा तुम्ही हो |
तुम्ही हो साथी, तुम्ही सहारे, कोई न अपना सिवा तुम्हारे.
तुम्ही हो नय्या, तुम्ही थे खिवैयाँ, तुम्ही हो बंधू, सखा तुम्ही हो |
उपरोक्त कालजयी पंक्तियाँ आज गुगल आरती के तौर पर इस्तेमाल हो रही है.
हमारे समय में जो ज्ञान लेने हम अपने माता पिता के पास जाते थे..बड़े भाई के पास जाते थे, आज उसी ज्ञान के लिए उन्ही माता पिता भाई बांधव द्वारा गुगल की तरफ रीडायरेक्ट कर दिये जा रहे हैं.
याद है बचपन में १३ गुणित ७ पूछने जब पिता जी के पास जाते थे तो वह जबाब देने की बजाय २ के पहाड़ा सुनाओ से शुरु होकर २० तक के पहाड़े में उलझा कर रख डालते थे. हम इसी बाबत मार खा रहे होते थे कि डेढ़ और सवईये का पहाडा तक नहीं जानते हो और पूछने आये हो १३ गुणित ७ ? ओरिजनल प्रश्न तो जाने कहाँ चला जाता खुद की जान की दुहाई मांगता और हमारा सारा दिन १ से २० तक के पहाड़े को समर्पित हो लेता. १३, १७, १९ जैसे खतरनाक पहाड़े अगर आते ही होते तो पिता जी पूछने जाते ही क्यूँ?
एक फायदा इसका हमको यूं हुआ कि हमने उनसे पूछना बंद कर दिया तो हमारा कुटना बंद हो गया कम से कम इस बाबत और उनको ये फायदा हुआ कि वह अपने अखबार और दफ्तर में जितना तल्लीन रहना चाहते थे, सो पूरा समय उनके खाते में आ गया. हम कभी कुछ दोस्तों से पूछ लेते, तो कभी कुछ मास्साब से..काम चल ही गया...अम्मा बताती थी कि पिता जी स्कूल में गणित में १०० मे १०० आते थे. बहुत बाद में जाकर ज्ञात हुआ कि सभी के पिता जी को उनकी अम्मा के बताये हिसाब गणित में १०० में से १०० आते थे भले ही पिता जी भये पटवारी..और रहे जमीन गलत नापते जीवन भर.. सौ रुप्प्या रिश्वत के बोझ तले.
आजकल का बच्चा तो मानो पैदा नहीं होता, डाऊनलोड होता है. पहला शब्द ही अम्मा के बदले पासवर्ड सीखता है. जो वक्त हमें झूले में डालकर झूला झुलाते हुए दूध की बोतल पिलाने में झुनझुना बजा कर माँ गुजारा करती थी, वो माँ के झुनझुना बजाने की भूमिका यूट्यूब ने आईपैड/ आईफोन पर संभाल ली है. बच्चे के झूले के उपर आईपैड होल्डर में झुनझुने के बदले बजते है बच्चों के गाने..फाईव लिटिल मंकी...जम्पिंग ऑन द बैड...बच्चा ४ माह का यह सब समझ कर हंस भी देता है और उस पूरे हंसने और देखने में लिप्त बच्चा दूध बोतल से पी भी जाता है. अम्मा प्रसन्न...सबको बताते नहीं थकती कि ये मुन्ने का आई पैड है..उसे इसके बिना खाना खाना पसंद नहीं है,.हालांकि सही वजह तो यह है कि माँ ने उसे आई पैड थमाया ही इसलिये है कि उसकी जहमत कम हो जाये बच्चे का ध्यान भटका कर दूध पिलाने की.
बस इतने से आराम के निमित्त उसने एक उस उम्र के बच्चे की न सिर्फ आँख से खिलवाड़ कर लिया बल्कि मानसिकता से भी जिसे न तो अभी रंगों की पहचान है और न ही वर्णों की. बाजार भी जानता है कि कौन सी रंग और नूर की बारात पेश करना है..और ये मांयें खरीददार तो हैं ही इन्तजार में..वो शायद कर्ण प्रिय बच्चों के गीत जिससे बच्चा अपने माँ की आवाज का कर्णपान किया करता था ..
चंदामामा दूर के, पुए पकाएं बूर के
आप खाएं थाली में, मुन्ने को दें प्याली में
प्याली गई टूट मुन्ना गया रूठ
लाएंगे नई प्यालियाँ बजा बजा के तालियाँ
मुन्ने को मनाएंगे हम दूध मलाई खाएंगे,
चंदामामा ...
उसे भूल गई हैं और ये भी कि बस, इस गीत को सुनते कितने ही बच्चे  अम्मा के हाथ से दूध मलाई खाते बजरंगी भाई जान हो जाया करते थे... न एसिड रिफल्क्स...न ही बर्प की समस्या..बस!! एक नेचुरल ऑग्रेनिक ग्रोथ...ऑरगेनिक की तरफ भागते हे युग प्रवर्तकों...बच्चों की ऑर्गेनिक ग्रोथ के क्यूँ दुश्मन बन बैठे हो तुम..उन्हें भी तो गुगल से बाहर की ऑग्रेनिक ग्रोथ प्रदान करो..
यूट्यूब ने जितना नये बच्चों को बहलाया है..ओ मेकडोन्ल्ड....स्विस स्विस स्विस..सुना सुना कर..और जरा सा समझदार हो जाने पर रायन के खेल.. सुबह से शाम तक...उतना ही नई माँओं को बहकाया भी है हर बात का ज्ञान बांट कर. ऑर्गेनिक से लेकर वेगन तक...
आज की नई माँ या नया बाप अपने मां बाप को बताने और समझाने पर उतारु है कि बच्चे को गोद में कैसे उठायें, कैसे बर्प दिलायें..कैसे उनको तेज आवाज में न बोलें, उनके सात बजे सोने के साथ कैसे टीवी बन्द करके खुद भी सो जायें ताकि उनकी नींद न डिस्टर्ब हो, कैसे नहलायें, कैसे मालिश करें, कैसे थपथपाये..कैसे खुद के हाथ धोकर एवं सेनेटाईज़र का इस्तेमाल कर के खुद को हाईजिनिक रखें ताकि बच्चा इन्फेक्टेड न हो जाये...कैसे बच्चे को खिलायें, कैसे उसे न रुलायें....बच्चा बच्चा बच्चा...गुगल गुगल गुगल...डॉक्टर ने क्या बताया उसे भी गुगल पर पढकर चैलेंज करने की एक होड़ कि डॉक्टर बेवकूफ है..भारत से आये माँ बाप बेवकूफ हैं...एक ज्ञानी बचा तो वो है गुगल,,,और दूसरी उसकी शिष्या..नवागत की माँ..और शिष्य नवागत का बाप जो मजबूर है अपनी बेबी के सामने..बेबी फिर वही..नवागत की माँ..
विदेश में आ बसे ..फायदा ये कि सास ससुर से दूर अपने मन के मालिक...बच्चा पैदा होने में मदद के लिए माँ बाप को भारत से बुलाया तो मगर माँ बाप को ही गुगल से पढकर सिखाने में पूरी ताकत लगाये हुए यह बच्चे भूल जाते हैं कि आज गुगल में सर्च करने की जो काबीलियत तुममे हैं वो इन्हीं माँ बाप द्वारा प्रद्दत पालन पोषण का नतीजा है..जब तुम पल रहे थे न तब वो गुगल का जमाना नहीं था. वो दादी नानी के तुजुर्बे का जमाना था. वो जमाना था कि जब पड़ोस के आंगन से आती बच्चे की रोने की आवाज पर दादी उठकर पड़ोस के घर जाती थी और बच्चे की नाभी पर हींग और पानी का गोला बना कर बच्चे को पाँच मिनट में सुला कर चली आती थी. दादी फरक जानती थी आवाज सुनकर कि यह भूख की आवाज है या पेट दर्द की. आज वही दादी मूँह बाये ताकती रह जाती है.. जब नई नई बनी माँ उसे बताती है कि यह एसिड रिफलक्स के कारण रो रहा है, इसे इस तरह गोद में सीधा उठाकर आधे घंटे ऊं ऊं करो तो ठीक हो जायेगा.
गुगल खुद से कुछ नहीं लिखता है, न ही खुद से कुछ सिखाता है..यह हम कैसे भूल जा रहे हैं?
जो दादी नानी मूँह जुबानी बताती थीं, वही तो आज की नई पीढ़ी जो कल की नानी दादी होंगी..अपने अनुभव के आधार पर गुगल में लिख रही हैं. हो सकता है किसी का अनुभव आपको जम जाये और किसी का आपको नुकसान पहुँचा जाये...मगर वो माँ बाप जो आपके अपने सामने खड़े हैं....भारत से भागते दौड़ते चले आये हैं..उन्हें कम से कम आपको पालने का अनुभव तो है ही... उनकी तो सुन लो..उनको तो न बच्चा उठाने का और उसे गोद लेने का शऊर सिखाओ..
अगर उनका तरीका तुमको लगता है कि बच्चे को पूर्ण विकसित होने देने में बाधक है..उनका तरीका बच्चे का दिमाग असंतुलित कर देगा..तो सोच कर देखना..इसी तरह उन्होंने तुमको पाला और बड़ा किया है..याने तुम खुद असंतुलित हो..यह तय है तो अब तुम किसी को क्या सिखाओगे?
एक छोटी सी बात...चलो मान लो कि गुगल भगवान है..मगर फिर गुगल सर्च करके देखना....कभी सिखाया जाता था कि भगवान से बड़े माँ बाप..उसके बाद फिर गुरु..तब फिर भगवान...
गुगल वो महान व्यक्तित्व है जो हम और तुम बनाते हैं...तुम अपने अनुभव लिखना.. मैं अपना लिखूँगा फिर कौन सा एल्गारिथम गुगल का तुमको दिखाये और कौन सा मुझे..वो कम्प्यूटर पर इन्टरनेट तय करेगा..
शायद इसी तरह कोई आशाराम का भक्त हुआ होगा..तो कोई राम रहीम का..तो कोई और किसी बाबा का...तो किसी को कोई भी भक्ति न रास आई होगी और कोइ यूँ ही आज के जाहिर भक्तों की तरह भक्त कहला गया होगा.
सब वक्त वक्त की बात है.
-समीर लाल समीर


"अपना-अँगना" द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका "आखर-मुक्ता"  के द्वितीय अंक में प्रकाशित


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शनिवार, फ़रवरी 24, 2018

नेता समाज सेवा करे- ऐसा शोभा देता है क्या?


होली आ गई. हमारे समय में होली की तैयारी बड़े जोर शोर से की जाती थी. गाढ़े रंग, गुलाल, अबीर आदि लाये जाते थे. टेसू के फूलों को उबाल कर उसका रंगीन पानी बगीचे के पानी के टैंक में भरा जाता था और लोगों को पकड़ पकड़ कर उसमें डुबोया जाता था. गुब्बारों में पानी भर कर मारना, वार्निश और स्टैंप पैड की स्याही से चेहरा रंग देना और जाने क्या क्या. रसोई से आलू चुरा कर उसे काटकर चोर का ठप्पा बना कर लोगों के कपड़ों पर लगा देते थे. तब मालूम भी नहीं था यही असली नेता होने की निशानी है कि चोरी करो खुद और ठहरा दो चोर दूसरे को. ढोलक, नगाड़े के साथ नाचते गाते मनाई गई होली अगले कई दिनों तक लोगों के चेहरे पर नजर आती. रंग, वार्निश, स्याही भी उतरने में कुछ दिनों का समय लगाते.
कई इलाकों में तो बहुत ही बीहड़ तरीके से इसे खेला जाता था. नाली के कीचड़ से लेकर खुजली वाले किमाच तक लोग लगा देते थे. शराब पी पी कर धुत हो जाते. ये उन दिनों की बात है मगर कहीं कहीं तो आज भी, जैसे बरसाना में लट्ठमार होली आदि पुरानी यादें जिन्दा रखे है.
आजकल होली के दिन घर बंद करके सोने का रिवाज है या फिर पिकनिक पर निकल जाने का. अब लोग आपस में होली नहीं मिला करते. वे व्हाटसएप और फेसबुक पर होली की पिचकारी चलाते हैं. वर्च्युल रंग लगाते हैं. जितनी बधाई और गले मिलना बाहर सड़क पर खेल कर हम नहीं आदान प्रदान कर पाते थे, उससे कहीं ज्यादा ये कमरे में बैठे बैठे बिना रंगे पुते दे चुके होते हैं. अगर फेसबुक और व्हाटसएप पर खेली होली असल में खेली गई होती तो शायद सारी दुनिया मिल कर भी उतने रंग, अबीर, गुलाल और मिठाई की स्पलाई न कर पाती.
डिजिटल हो जाने का ये फायदा तो हैं कि आप के पास हो या न हो, उड़ाये चलो. कौन सा असली माल है? जिस दुनिया में अक्सर खुद की तस्वीर भी ऐसी हो कि जिसे देखकर आप खुद को भी न पहचान पायें, उस दुनिया से भला सच्चाई की कितनी उम्मीद पाल सकते हैं? इस आभासी दुनिया में तो प्यार के इजहार को भी ठोक बजा कर जब तक इस निष्कर्ष पर पहुँचों कि हाँ, यह कोई फंसाने और बदनाम करने का षणयंत्र नहीं, वाकई में इजहार किया है ..तब तक इजाहर करने वाली कहीं और कमिट हो चुकी होती है.
कवियों की भी पौ बारह हो लेती है और वो होली पर अपनी कविताओं का बाजार सजाते हैं. फेसबुक और व्हाटसएप पर ऐसे कविताओं का एकाएक बाजार गरम हो जाता है जिसमें अगर शीर्षक में कविता और बॉडी में होली शब्द न आये, तो न तो आप यह जान पायेंगे कि यह कविता है और न ही यह जान पायेंगे कि होली के त्यौहार विशेष के मद्देनजर लिखी गई है. चूँकि होली आ रही है अतः मित्रों को आगाह करना जनहित में जरुरी समझता हूँ कि कृप्या शीर्षक ही ऐसा रखें जैसे होली की कविताताकि पूरा पढ़ने का टार्चर न झेलना पड़े. खूब सारी पोस्टों को पढ़ना और उनसे गुजरना होता है. अगर सभी कविमना इसका पालन करेंगे तो जहाँ सभी का भला होगा वहीं उनका भी होगा..आप भी तो बचोगे दूसरों को पढ़ने से. कहते हैं जो दूसरों को मुसीबत में डालकर हँसता है, उस पर उससे सौ गुना मुसीबत आती है रुलाने के लिए. आने वाले चुनाव में इसी मुहावरे के सच होने का इन्तजार बहुतों को है.
वर्च्युल दुनिया में भी होली पर टाईटल आदि देने का प्रचलन है कुछ ग्रुपों में, मगर बड़ा सीमित सा और टाईटिल भी मानों ऐसे कि जिस चेहरे को पहले वार्निश से मल कर स्टैम्प पैड की कालिख लगाई जाती थी, उस पर हल्दी कुमकुम का टीका लगा दिया गया हो. इतने शालीन टाईटल ही देना थे तो होली की क्या जरुरत? टाईटल दे रहे हो कि सम्मानित कर रहे हो? हमारे समय के टाईटल तो अक्सर ऐसे पोल खोलू होते थे कि चार दिन तक आप मोहल्ले भर से चेहरा छुपाते घूमें. वाकई इस वर्च्यूल टाईटल वाले खेल को मैं मान्यता नहीं देता. किसी को चुनाव में जिता कर नेता बनाओ और वो समाज सेवा करने पर उतारु हो जाये, ऐसा भला शोभा देता है क्या?
ओह!! नेता से याद आया कि आपकी, हमारी होली तो चाहे सड़कों पर मनें या आभासी दुनिया में. एक दो दिन में खुमार उतर ही जाता है मगर इनकी खुमारी तो हरदम तारी रहती है. इनका होली खेलने का तरीका आज भी वही कीचड़ उछालने वाला ही है एक दूसरे के ऊपर. पद और पावर के नशे में डूबे ये मदमस्त होलिये तो मानो कभी थकते ही नहीं एक दूसरे पर कीचड़ उछालते उछालते. सब कीचड़ में सने हैं और शौक ऐसा कि पहनेंगे भी सफेद झक कपड़ा कि एक कीचड़ का छोटा सा छींटा भी दिख जाये मगर इनको शरम कहाँ? दिख जाये तो दिख जाये. मगर जो नहीं दिखाना चाहते वे आजकल रंगीन कुर्ता पजामा पहनने लगे हैं और दिन भर में चार बार कपड़े बदलते हैं. ऐसा नहीं कि उन पर कीचड़ के धब्बे नहीं..फरक बस इतना है कि वो दिखने नहीं दे रहे हैं. वरना तो हमाम में ये सभी नंगे हैं.
हम आमजन तो बस उम्मीद ही कर सकते हैं कि एक दिन इनकी होली भी पूरी हो लेगी. हर होली की शाम की तरह वो शाम भी शायद सूनी सूनी सी हो मगर अगला सबेरा जरुर चमचाता हुआ होगा.
-समीर लाल समीर
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार फरवरी २५, २०१८ में प्रकाशित:
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