शनिवार, जनवरी 05, 2019

वादे का मतलब ही वो बात है जो पूरी नहीं होनी है



भारत एक उत्सव प्रधान देश है और हम पूरे मनोभाव से हर उत्सव मनाते हैं.
लोकतंत्र में चुनाव भी एक उत्सव है. प्रति वर्ष यह उत्सव भी भारत वर्ष में कहीं न कहीं किसी न किसी रुप में लगातार मनाया जाता है, चाहे विश्व विद्यालय के हों या पंचायत या निकाय या विधान सभा या फिर लोक सभा या राज्य सभा. हमेशा पूरे जोश खरोश के साथ ये उत्सव मनाये जाते हैं.
चुनाव के उत्सव की खासियत यह रहती है कि इसमें खूब वादे और खूब जुमले वोटरों को लुभाने के लिए किये और बोलें जाते हैं. जो पूरे चुनाव के उत्सव में अपना परचम लहराते हैं और जैसे ही चुनाव खत्म, वादे और जुमले भी खत्म. पूरा करना तो बहुत दूर की बात है, कोई उनकी बात भी नहीं करता.
अगला चुनाव आया और फिर वही माहौल और फिर चुनाव खत्म होते ही सब नेस्तनाबूत!!
ऐसा ही वादों और जुमले का एक उत्सव नये साल के स्वागत का भी है. खूब नाचते गाते पीते खाते ढेर सारे वादे. अंतर सिर्फ इतना ही है कि इस उत्सव में वादे खुद से किये जाते हैं.
उधर चुनाव में पॉवर का नशा, इधर नये साल में अधिकतर को शराब का और बाकियों को माहौल देखकर ही खुमारी चढ़ जाती है. जैसे कि बरात में नाचना आना जरुरी नहीं है मगर माहौल ऐसा होता है कि पिये हो या न हो, नाच सभी देते हैं.
इतने सालों से चुनाव में नेताओं के किये वादों के बार बार टूटते टूटते और उनके जुमलों में बदलते रहने से वादों की परिभाषा ही बदल गई है हम आम लोगों के दिमाग में. अब तो वादे का मतलब ही वो बात है जो पूरी नहीं होनी है. इस नई परिभाषा की हमारे दिल पर इतनी गहरी पैठ हुई कि हम खुद से किये वादों को भी इस श्रेणी में ले आये.
नये साल का स्वागत करते हुए संकल्पों की शक्ल में खुद से अनेक वादे और फिर नया साल शुरु और वादे खत्म. कुछ तो बिल्कुल भुला दिये जाते हैं और कुछ को पूरा करने की हल्की फुल्की सी कोशिश करने के बाद उनका भी वो ही हश्र.
दरअसल हम वादों के प्रति इतने असंवेदनशील हो गये हैं कि कोई कुछ भी वादे करे या उसे तोड़े, हम पर कोई फरक ही नहीं पड़ता. वादे भी नशे के समान होकर रह गये हैं. एक बोतल खत्म, कुछ देर झूमे, नाचे, गाये और फिर रात बीती. नया दिन आया. नशा गुम. फिर जब अगली बार नई बोतल खुलेगी तो नया नशा!!
इन सब के बीच एक मजेदार बात यह रहती है कि जैसे हर चुनाव में गरीबी हटाने का वादा, सड़क बनवाने का वादा, बिजली पानी का वादा, कर्ज माफी का वादा, खुशहाली का वादा, हर सर को छत का वादा, रहते ही रहते हैं. यह जनलुभावन होते हैं अतः हमेशा रहते हैं और हमेशा रहेंगे क्यूँकि अगर इन्हें पूरा कर दें तो अगली बार क्या वादा करेंगे?
वैसे ही जब हम नये साल पर खुद से वादा करते हैं तो कुछ वादे हरदिल अज़ीज होते हैं मसलन वजन कम करने का या जिम जाने का या योगा करने का, अच्छी मनपसंद नौकरी का जो शायद किसी को कभी मिलती नहीं, सुबह जल्दी उठने का, पैसे बचाने का, खूब पर्यटन पर जाने का, जिन्दगी को खुशी से जीने का, दूसरों की मदद करने का, हैल्दी खाना खाने का आदि आदि. ये सभी वादे इतने मनभावन हैं कि अगर पूरे हो जायें तो आगे करने को बच क्या रहेगा आखिर. अगले बरस फिर नये बरस में खुद को किस तरह ले जायेंगे? कोई उत्साह ही नहीं बचेगा. 
शायद वादे करना और वादों का टूट जाना सांसों के आने जाने की तरह ही है जो हमें जिन्दा रखे है.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी ६, २०१९ को:


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3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (07-01-2019) को "मुहब्बत और इश्क में अंतर" (चर्चा अंक-3209) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

रोचक।

Jyoti khare ने कहा…

वाह बहुत बढ़िया