हमारे समय में स्कूलों में बोर्ड परीक्षा से
पहले प्रिपरेशन एग्जाम होते थे. हमारा भी रिकार्ड ऐसा रहा
कि प्रिपरेशन एग्जाम का कोई रेजल्ट देख ले तो समझे इस बार बोर्ड की परीक्षा में तो
मेरीट में पहला नम्बर इनका ही आयेगा. शहर के सारे कोचिंग क्लास
वाले आकर फोटो ले गये, अपने विज्ञापन वाले
होर्डिंग पर लगवाने के लिए. होर्डिंग बोर्ड छपवा भी
लिए इस बाबत कि ये जो प्रथम स्थान पर आये हैं इन्होंने हमारी कोचिंग क्लास से पढ़ाई
की है. बंदा एक, क्लेम करने वाले शहर के सारे कोचिंग वाले. जैसे जब सारे विपक्षी एकजुट होकर किसी को चुनाव लड़वा कर
जितवा देता हैं तो सब क्लेम करते हैं कि हमारे कारण जीता, जबकि वो केंडिडेट भी जानता है कि वो जीता नहीं हैं, जनता ने सामने वाला को
हराया है.
वैसे तो इन कोचिंग क्लासेस का कोई ध्यान से एनालिसिस
करे तो जाने कि हम हम न हुए, सद्दाम हुसैन हो गये हैं. एक साथ दस जगह दिख रहे हैं जबकि हैं असल में ग्याहरवीं जगह. हम कभी किसी कोचिंग क्लास में गये ही नहीं. होर्डिंग बोर्ड पर टंगे अधिकतर बच्चों का यही हाल है. अगर वे कोचिंग में जाते तो मेरिट में आने के लिए पढ़ते कब? हमारे एक धनिक मित्र जब सुनते कि कोई बहुत मेहनत से काम कर
रहा है पैसा कमाने की चाह में तो वह आश्चर्य करते कि जब सारा समय काम करने में ही
लगा दो तो पैसा कब कमाओगे? कालांतर में वह मित्र विदेश में जा बसे और बैंकें टकटकी
लगाये उनका इन्तजार कर रही हैं.
हम दरअसल गये तो उन मास्स्साब के घर ट्यूशन पढ़ने
जिनकी देखरेख में स्कूल की परीक्षा होती थी. प्रिपरेशन एग्जाम
स्कूल का इन्टरनल होता था, तो मास्साब की असीम कृपा
बरसती थी. बोर्ड एग्जाम में न तो
सेंटर खुद का स्कूल होता था और न ही अपने मास्साब इन्विजिलेटर अतः कृपा अटक जाती. तो जब बोर्ड एग्जाम का रेजल्ट आता तब भगवान ही मालिक होता. ले दे कर किसी तरह गुड सेकेन्ड डिविजन भी आ जाये तो प्रसाद
चढ़ाने वाली बात समझो. जैसे कई लोग चुनाव में
जमानत न जब्द होने को ही जीत मान बैठते हैं. कोचिंग क्लास वालों का तो ऐसा नुकसान
होता कि कई तो बोर्ड भी नया नहीं पुतवाते. फोटो हमारी लगे रहने
देते और नाम बदल कर जो पहला आया होता उसका लिख देते. कौन जाता है मिलान करने भला? उनके बोर्ड पर फोटो ही फोटो तो होती है..और होता भी क्या है? यह मंत्र इन्होंने
मीडिया से सीखा है जिसके लिए कहा गया है कि बड़ी खबर को बड़ा बनाने के दायित्वों के बोझ के तले दबा
मीडिया चैनेल दबते दबते कितना छोटा हो गया ये वो खुद भी न जान पाया..
होते तो दोनों ही एग्जाम थे मगर कितना फरक. वही सिलेबस, वही किताबें, उसी में से प्रश्न...जबाब देने वाला बंदा भी वही मगर परिणाम एकदम विपरीत. सब सेटिंग का जमाना है. सेटिंग है तो सारा जहाँ आपकी मुट्ठी में वरना आपकी हैसीयत
मिल जाये मिट्टी में. चुटकी भर का समय लगता है.
ऊपर कही गई बातें भले मजाक लग रही हो मगर सत्य
यही है. कभी तय करके कोई स्कूलों, कोचिंग आदि का सर्वेक्षण करे तो सत्य मिलता जुलता निकलेगा. बस, ध्यान रहे कि सर्वेक्षण सही
का सर्वेक्षण हो, चुनावी नहीं.
कल ही ऐसी ही किसी बात पर हमसे कहा गया कि आप
मजाक बहुत करते हो. हँसा हँसा कर पेट में बल
पड़वा देते हो. कभी लॉफ्टर चैलेंज में
ट्राई करो न?
मैं समझ ही नहीं पाता कि मैं बात विसंगतियों पर
कर रहा हूँ और उनको चुभने की बजाय हंसी आ रही है, लॉफ्टर लग रहा है.
जब तक व्यंग्यकारों और
मसखरों को एक ही नजर से देखा जाता रहेगा, व्यंग्य के
माध्यम से तंत्र और समाज में व्याप्त विसंगतियों पर किया गया तीखे से तीखा प्रहार
और तंज बेअसर जाता रहेगा. समाज के ठेकेदारों और सियासत करती सरकारों को यही सुहाता है.
आज पान खाने निकले तो मुन्ना पूछने लगा कि ये
चुनाव और उप चुनाव में क्या अंतर है? होते तो दोनों चुनाव ही हैं. दोनों से चुनकर नेता विधान सभा और लोकसभा में ही जाते हैं
फिर दोनों के परिणाम इतने अलग अलग कैसे? उपचुनाव में जो
पार्टी जीतती है वो चुनाव में नहीं जीतती और जो चुनाव में जीतती है, वो उप चुनाव में नहीं?
मुन्ना जिज्ञासु है, हल्की फुल्की दलीलों से सरकता नहीं. बात स्कूल वाला उदाहरण देकर समझाई. नेट प्रेक्टिस में प्लेयरों की परफोर्मेन्स का उदाहरण देकर
समझाई और भी अनेकों अनेक उदाहरण दिये, तब जाकर वो इस
निष्कर्ष पर पहुँचा कि विपक्ष को अपनी उर्जा मुख्य चुनाव में बेवजह खर्च नहीं करना
चाहिये. उसे अपनी सारी उर्जा, धन, बल, दल बदल आदि सब उपचुनावों के लिए बचा कर रखना चाहिये. बस!! तय इतना करते चलें
कि इतनी सीटों पर समय बेसमय मिलाकर उपचुनाव हो लें कि वे बहुमत में आ जायें. उपचुनाव किसी जीते नेता के द्वारा किसी वजह एवं पद प्राप्ति
के कारण सीट खाली करने या दिवंगत हो जाने पर सीट खाली हो जाने पर करवाये जाते हैं. इसमें से कम से कम एक तो वो तय कर ही सकते हैं- भले वे किसी को कोई पद दिलवा कर सीट तो खाली नहीं करवा सकते
मगर दूसरे में तो वो सक्षम हैं ही. नेता बने ही उस राजमार्ग पर
चल कर हैं.
हमने तो कम से कम तय कर लिया है कि जब भी चुनाव
लड़ेंगे, विपक्ष के उम्मीदवार बन
उपचुनाव ही लड़ेंगे. मुख्य चुनाव तो बड़े दगाबाज
रे!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से
प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार मार्च 18, २०१८ :
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3 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा व्यंग्य है सामाजिक विसंगतियों पर।
सटीक...
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन उन युवाओं से क्यों नहीं आज के युवा : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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