शनिवार, मार्च 03, 2018

सरकार मीडिया की है या मीडिया सरकार की


लोकतंत्र में सरकार जनता की होती है, जनता के द्वारा चुनी जाती है और सिर्फ जनता के लिए काम करती है. सरकार का काम होता है कि जनता की भलाई के लिए कार्य करे. यूँ तो एक स्तर पर आकर किसका क्या काम है इस के मायने ही बदल जाते हैं. कर्जदार का कार्य एवं दायित्व होता है कि कर्जा जिससे लिया है उसे वापस चुकाये. मगर आजकल स्तरीय कर्जदार का काम हो गया है कि कर्जा लो और विदेश भाग जाओ. मानो कर्जा न हुआ विदेश जाने का वीसा लगवा लिया हो.  
सब कुछ बदला बदला सा है आजकल. गधे कभी बोझा ढ़ोने का कार्य किया करते थे. अब वो भी अपना काम छोड़छाड़ कर कुर्सी पर सज कर बैठे हैं. खादी पहनने लगे हैं. आज खादी फैंसीड्रेस की सबसे पसंदीदा पोशाक का दर्जा हासिल किये है चाहे स्टेज से हो या रियल लाईफ में. बहुरुपियों का लिबास!
रोजगार कार्यलाय में जब बेरोजगार रजिस्ट्रेशन कराते थे तो उम्मीद होती थी कि सरकारी नौकरी लग जायेगी. आने वाले समय में रोजगार कार्यालय जाओगे तो वो इस सलाह के साथ शहर के उन दफ्तरों के पते देंगे जिनके सामने गुमटी लगाने की जगह खाली होगी कि वहाँ जाकर पकोड़े की दुकान खोल लो. शायद तब तक इस हेतु प्रधानमंत्री पकोड़ा रोजगार योजना के तहत लोन भी दिया जाने लगे और चूँकि प्रधानमंत्री की योजना है तो कर्जा माफ हो जाने की गारंटी भी साथ है.
अब सरकार जनता बनाती नहीं, जनता को पैसों से प्रभावित और भ्रमित करके जनता से बनवाई जाती है और वो सरकार काम उनके लिए करती है जो इस भ्रम का आसमान पैदा करने के लिए पैसा लगाते हैं. चंद मुट्ठी भर धनाढ्य देश चलाते हैं. सरकार के हर कदम उनकी भलाई के लिए उठाये जाते हैं और जनता को इस भुलावे में जिन्दा रखा जाता है कि यह कदम एक लम्बे समय में जाकर उनके ही फायदेमंद साबित होंगे. फायदा कब होगा उसकी तारीख आगे खिसकती चलती है और भोली जनता उस खिसकती तारीख को पकड़ने के लिए दौड़ लगा रही होती है.
कभी सड़क के किनारे छिप कर बैठे बच्चे एक दस के नोट को महीन धागे से बाँध कर सड़क पर छोड़ देते थे. जैसे ही कोई राहगीर उसे देखकर लोगों की नजर बचा कर उठाने की कोशिश करता, बच्चे धागे से खींच कर उस नोट को आगे बढ़ा देते. वो राहगीर कई बार उसे उठाने की कोशिश करता और फिर झैंप कर मूँह चुराता नजर आता जब बच्चे उस नोट को खींच कर अपने कब्जे में करके जोर जोर से हँस कर उसका मजाक उड़ाते. आज अच्छे दिनों की तारीख उसी नोट के समान हो गई है. सरकार मजे ले रही है इसे खिसका खिसका कर और जनता बेवकूफ बन रही है. आगे चल कर ये मजे लूट कर हँसेंगे और जनता झेंप कर मूँह छिपायेगी.
तकलीफ की बात यह है कि यह दस का नोट वो काठ की हांडी है जो बार बार चढ़ कर भी नहीं जलती. बच्चे बार बार नोट बाँध कर खेल खेलते हैं और राहगीर बार बार यह सोच कर बेवकूफ बनते हैं कि शायद अबकी बार यह सच में गिरा हुआ नोट हो. सरकार भी जानती है इस मानसिकता को भली भाँति इसीलिए तो कभी एक महीना, कभी २०१५ तो कभी २०१७ और अब २०२२ में अच्छे दिन की तारीख फेंकती रहती है और जनता बेवकूफ बनती रहती है.
इसी बदलते क्रियाकर्म में मीडिया भला कैसे पीछे रह जाये? जिस न्यूज़ चैनल का काम न्यूज़ दिखाना है वो न्यूज़ बनाने का काम करने लगा है. समाचार सुनाने के बदले समाचार गढ़ने लगा है. जिसका काम था कि समाचार की सत्यता बता कर अफवाहों को विराम दे, सनसनी न फेलने दे वो आज अफवाहों का पंडोरा बॉक्स होकर सनसनी फैला रहा है. उद्देश्य मात्र इतना कि टीआरपी बढ़े, सरकार की वाहवाही बढे और संगाबित्ती में कमाई बढ़े. बस्स!! समाचार और उसके सुनने वाले गये तेल लेने.
कई बार तो समाचारों का नाट्य रुपांतरण देखते हुए अहसास होता है कि मर्डर के समय अगर कोई वहाँ था तो ये मीडिया वाले..और इतनी खूबी से नाट्य रुपांतरण करते हैं कि बॉलीवुड के निर्माता दांतों तले ऊँगली दबा लें. फिल्म अवार्ड समारोह में अब एक केटेगरी मीडिया के बेस्ट नाट्य रुपांतरण की भी होना चाहिये.
हाल ही में एक जानी मानी अभिनेत्री के बाथ टब में डूब कर मर जाने का समाचार का नाट्य रुपांतरण टाईप करते करते जब समाचार दिखाने वाला बाथ टब में लेट कर दिखाने लगा कि किस तरह आप टब में पूरी तरह समा सकते हैं, तब बाथ टब के ऊपर से पानी बहा कि नहीं, यह तो नहीं पता मगर देखने वालों के सर के ऊपर से जरुर बह गया. हद हो गई. कभी कोई आग में जल कर मर जाये, तब दिखाना जरा आग में जल कर समाचार पढ़ते हुए.
टीआरपी ही सब कुछ है. भगवान है चैनलों के लिए. सच हो या झूठ..टीआरपी मिलना चाहिये मानो कि टीआरपी न हो वोट हो, चाहे जैसे भी मिले..सच बोल कर या झूठ बोल कर..वोट मिलना चाहिये. बिना टीआरपी चैनेल नहीं और बिना वोट सरकार नहीं.
दोनों का नेचर इतना ज्यादा मिलता जुलता है इसीलिए तो आजकल समझ नहीं आता है कि सरकार मीडिया की है या मीडिया सरकार की है. साड़ी और नारी वाले अलंकार का उदाहरण बने हैं ये दोनों:
सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
सारी ही की नारी है कि नारी की ही सारी है।
समझने की कोशिश भी बेकार है. आप सिर्फ आम जनता हो- आप तो बस सड़क पर पड़े नोट को देख कर ललचाओ और उसे उठाने की कोशिश करते हुए हार कर झेंप जाओ. आपके हिस्से इनकी हँसी आयेगी. उसी से खुश हो लेना ..आंसू मत बहाना!!
आपका आंसू पानी है और इनकी हँसी मोती!!
-समीर लाल समीर     
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में< रविवार मार्च ४, २०१८ :
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