यहाँ कनाडा में हम साल में दो बार समय के साथ छेड़छाड़ करते हैं जिसे डे
लाईट सेविंग के नाम से जाना जाता है. एक तो मार्च के दूसरे रविवार को समय घड़ी में
एक घंटा आगे बढ़ा देते हैं और नवम्बर के पहले रविवार को उसे एक घंटे पीछे कर देते
हैं. ऐसा सूरज की रोशनी के अधिकतम उपयोग हेतु किया जाता है.
नवम्बर में जब एक घंटा पीछे घड़ी करते हैं तब ऑफिस से लौटते वक्त पूरा
अँधेरा घिर आता है, जो एक दिन पहले तक रोशनी में होता था. यह दिन कनाडा में वो दिन
होता है जब सबसे ज्यादा दुर्घटनायें पैदल सड़क क्रास करते लोगों की कार से टकराने
से होती है. कार चालको की आँखे पहले दिन उस वक्त लौटते हुए अँधेरे से अभयस्त नहीं
हुई होती है और न ही एक दिन में अधिक सतर्कता बरतने की आदत लौटी होती है. बरफ में
इससे ज्यादा खतरनाक हालात रहते हैं मगर लोग सतर्क होते हैं और उन्हें मालूम होता
है कार फिसल सकती है.
उस दिन घड़ी पीछे करके जब स्टेशन पर कार पार्क करके
प्लेटफार्म की तरफ बढ़ा तो क्षेत्र के एम पी (सांसद), एम एल ए, पार्षद और साथ में
एरिया के पुलिस अधिकारी लोगों को शाम को सतर्क रह कर कार चलाने और सड़क पार करने का
निवेदन करते हुए कॉफी के साथ रिफ्लेक्टर बाँट रहे थे जो अँधेरे में चमकता है. अपने
कोट, बैग, गाड़ी पर रिफ्लेक्टर लगा लेने से एक उम्मीद होती है कि अँधेरे में सड़क
पार करते पैदल चल रहे व्यक्ति पर कार चालक की नजर आसानी से पड़ जायेगी.
मैं रिफ्लेक्टर अपने बैग पर लगा कर प्लेटफार्म पर आकर अपनी ट्रेन का
इन्तजार करने लगा. सामने हाई वे पर ११०/१२० किमी तेज रफ्तार भागती गाड़ियों से
दफ्तर पहुँचने की जल्दी में जाते लोग. मैं सोचने लगा कि इस विकसित देश में इतनी
तेजी से गाड़ी दौड़ा कर कहाँ और आगे जाने की जल्दी है इन लोगों को. थोड़ा आराम से भी
जाओ तो भी विकसित हो ही, क्या फरक पड़ जायेगा और कितना विकसित होना चाहते हो? मगर
नहीं, शायद मेरी सोच गलत हो..शायद यही समय की पाबंदी और सदुपयोग इनको विकसित बना
गया होगा और ये अब भी विकास की यात्रा पर सतत अग्रसर हैं. अच्छा लगता है ऐसी
रफ्तार से कदमताल मिलाना.
ट्रेन अभी भी नहीं आई है और मैं इन्तजार में खड़ा हूँ और मेरे विचार
सामने भागती गाड़ियों के साथ भाग रहे हैं. भागते विचार में आती है पिछली भारत
यात्रा.
यह यात्रा दो माह पूर्व उस युग में हुई थी जब एटीएम एवं लोगों की
जेबों में में रुपये हुआ करते थे और लोग गाडियों, रिक्शों, बसों, मोटर साईकिलों पर
सवार सड़क जाम में आड़ी तिरछी कतार लगाये खड़े घंटो व्यतित कर दे रहे थे अपने गन्तव्य
तक पहुँचने के लिए. वह युग आज के युग से बहुत अलग था. आज वही लोग एटीएम की कतार
में खड़े हैं. एटीएम और जेब से रुपये नदारत हैं और गन्तव्य २५०० रुपये बदलवाने की
छाँव में कहीं खो गया है. मगर दोनों ही युगों की समानता इस जुमले में बरकरार रहीं
कि अच्छे दिन आने वाले हैं और भारत विकास की यात्रा पर है.
स्वभावतः यात्रा गति माँगती है गन्तव्य की दिशा में. लम्बे ठहराव की
परिणिति दुर्गंधयुक्त अंत है. चाहे वो पानी का हो, जीवन का हो या विचारों का
हो.लम्बी यात्रा में विश्राम हेतु ठहराव सुखद है किन्तु सतत ठहराव का भाव दुर्गंध
युक्त प्रदुषित माहौल के सिवाय कुछ भी नहीं देता.
विकास यात्रा पर अग्रसित होने का दावा करने वाले देश के हालात उस युग
में भी ट्रेफिक जाम रुपी ठहराव के चलते यूँ थे कि जब मैं अपने मित्र के घर से,
जहाँ में रुका हुआ था, अपना कुछ जरुरी काम निपटाने बैंक जाने को तैयार हुआ, जो कि उनके
घर से दो किमी की दूरी पर था, तो मित्र ने कहा कि ड्राईवर आ गया है उसके साथ गाड़ी
में चले जाओ. बैंक बंद होने में मात्र एक घंटे का समय था और मुझे उसी शाम दिल्ली
से वापस निकलना था. मेरे पास यह विकल्प न था कि अगर आज न जा पाये तो कल चले
जायेंगे. अतः पिछले तीन दिनों के अनुभव के आधार पर मैने मित्र से कहा कि भई, मैं
पैदल चले जाता हूँ और आप गाड़ी और ड्राईवर बैक भेज दो. लौटते वक्त उसके साथ आ जाऊँगा.
मित्र मुस्कराये तो मगर मना न कर पाये. उनको तो दिल्ली का मुझसे ज्यादा अनुभव था.
मैं विकास की ओर बढ़ते मेरे देश की राजधानी की मुख्य सड़क पर धुँए से
जलती आँख और धूल से खांसते हुए पैदल बैंक जाकर काम करा कर जब पैदल ही लौट रहा था
तो मित्र के घर के पास ही मात्र एक मोड़ दूर उनकी गाड़ी में ड्राईवर को ट्रैफिक से
जूझते देख उसे फोन किया कि जब मौका लगे, गाड़ी मोड़ कर घर चले आना.. मैं वापस पैदल
ही पहुँच रहा हूँ.
घर जाकर ठंडे पानी से स्नान कर आराम से बैठे नीबू का शरबत पीकर खत्म
किया ही था कि ड्राईवर वापस गाड़ी लेकर मुस्कराते हुए हाजिर पूछ रहा था कि साहेब,
शाम एयरपोर्ट कब छोड़ना है?
मन आया कि कह दूँ कि फ्लाईट तो रात दो बजे हैं मगर चलो, अभी दोपहर चार
बजे ही निकल पड़ते हैं...इन्तजार यहाँ करने से बेहतर है कि एयरपोर्ट पर कर लेंगे कम
से कम फ्लाईट तो न मिस होगी.
विचारों में विकासशील और विकसित देशों के बीच की दूरी नापते नापते
ट्रेन आ गई और मैं फिर वही, दफ्तर पहुँच कर विकसित को और विकसित कर देने के राह पर
चल पड़ा,,
आंकलन ही तो है वरना मुझे भी यहाँ क्यूँ होना चाहिये?
वो विकासशील देश भी तो मेरा योगदान मांगता है.
-समीर लाल ’समीर’
’गर्भनाल’ के वासी प्रवासी अप्रवासी- जनवरी २०१७ कें अंक में प्रकाशित
http://www.garbhanal.com/2017-Jan?PAGE=44
4 टिप्पणियां:
कनाडा जैसी समय की चैंजिंग हमारे देश में भी लागू होनी ही चाहिए।
आखिर सत्तर साल आजाद हुए हो चुके है कब तक उसी अवधारणा पर चलता रहेगा
UTTAM
सुन्दर और सटीक।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’प्रकाश पर्व की शुभकामनाओं सहित ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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