लँगड़ी है दादा जी की छड़ी
दीवार का सहारा लिए खड़ी है
गूँगा है माँ का सितार
तहखाने के कोने में उदास पड़ा है
अँधी है बाबू जी की ऐनक
धूल खाती पुस्तकों की आलमारी में..
ढो रहा हूँ इनका अस्तित्व
मैं एकमात्र जीवित उत्तराधिकारी
टूटने को तत्पर
अपने झुकते काँधों पर..
मेरी अगली पुश्तें मुक्त होंगी
इस पुश्तैनी विकलांगता को
ढोने के अभिशाप से..
इसलिये कि वे जड़ों से बहुत दूर
बहुत दूर जा बसी हैं
एक ऐसी दुनिया में जिससे
मैं जुड़ नहीं पाया कभी
जिसका मुझे कोई अनुभव नहीं..
फिर भी मुझे विश्वास है
पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ
मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश
अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ!!
-समीर लाल ’समीर’
(नोट: इस रचना को अपनी पारखी नजरों से गुजारने और सुझावों के लिए मित्र शरद कोकस जी का आभार)
* गणतंत्र दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ *
84 टिप्पणियां:
जडो से दूर रहने की झट्पटाहट विक्लांगता में दिख रही है .
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला,
तेरा मेला पीछे छूटा राही,
चल अकेला...
हज़ारों मील लंबे रास्ते तुझको बुलाते,
यहां दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते,
है कौन सा वो इंसान जिसने यहां दुख न झेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला,
तेरा मेला पीछे छूटा राही,
चल अकेला...
तेरा कोई साथ न दे तो तू खुद से प्रीत जोड़ ले,
बिछोना धरती को करके, अरे आकाश ओ़ढ़ ले,
यहां पूरा खेल अभी जीवन का, कहां तूने खेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला,
तेरा मेला पीछे छूटा राही,
चल अकेला...
जय हिंद...
कैसी विकलांगता काहे की विकलांगता -जो हमारे समीर भाई को विकलांग काहे तो टांग न टोंड दूं उसकी महफूज स्टाईल में..
अब खुद तो मत कहिये महराज ...
मैं अपने इसी कमरे के कोने में पड़े सितार को निहार रहा हूँ फिर और फिर यह कविता पढ़ रहा हूँ .
कभी कभेकभी आप पर बेंइंतिहा गुस्सा आती है .....अगली पीढी जाय भाड़ में !
सीधे मानस पटल पर उतरती है आपकी यह कविता | पीढियों के अन्तर का दर्द आपकी पक्तियो में झलक रहा है | नयी पीढ़ी जड़ो से जुड़े रहना पसंद नहीं करती है |
यह रचना बहुत चौंकाती है। लेकिन एक विद्रूप यथार्थ को सामने रख रही है। ऐसी रचना के लिए बधाई!
फिर भी मुझे विश्वास है
पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ
मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश
अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ!!
विश्वास पर जहान टिका है।
इसे भी पढ़ें : बस! एक गलती
हमारा भी दर्द समाहित है क्योंकि हम भी ऐसा ही महसूस करते हैं।
समीर जी बहुत बहुत बधाई !!! पर उन स्मृति चिन्हों को विकलांग कहने की जरुरत नही वे ही हमारे संबल हैं पथप्रदर्शक हैं ....हाँ अगली पीढ़ी क्या ले पायेगी या क्या नही ले पायेगी यह तो उसकी नियति पर निर्भर है .
फिर भी मुझे विश्वास है
पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ
मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश
अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ!!
फिर से पिरोया दर्द को मोतियों की तरह।
यही तो आपकी खासियत हे बास
क्या सचमूच इतना ही बेचैन हैं, अपनी जमीं से दूर जाने के बाद.
हलंाकि यहां भी पुरखों की यादों को ढोने वाली पीढ़ी नहीं रही.
फिर भी मुझे विश्वास है
पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ
मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश
अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ!!..
बेहतरीन ,यह रचना बहुत कुछ सोचनें पर विवश करती है .
आपके मन के भाव पढ़कर मैं भी भाव विभोर हो गयी .....बहुत ही अच्छी रचना है !!
समय रहते कुछ ना कर पाने कि बेबसी:(
ख़ूबसूरत कविता. भावों को खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है आपने.
इसलिये कि वे जड़ों से बहुत दूर
बहुत दूर जा बसी हैं
एक ऐसी दुनिया में जिससे
मैं जुड़ नहीं पाया कभी
जिसका मुझे कोई अनुभव नहीं..
नई पीढी की संवेदन हीनता का दर्द है इस मे और फिर
फिर भी मुझे विश्वास है
पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ
मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश
अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ!!
विश्वास पर जहान टिका है।
अपनी आस्था को किस खूबी से ले आये उसी राह पर जहाँ से चले थे हर दिल का दर्द ब्यां करती सुन्दर रचना बधाई
समीर लाल जी आदाब
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
ये क्या सर...
सबको हंसाते हुए
आज आपने आंखें नम करने की ठान ली..!
लँगड़ी है दादा जी की छड़ी
दीवार का सहारा लिए खड़ी है
गूँगा है माँ का सितार
तहखाने के कोने में उदास पड़ा है
अँधी है बाबू जी की ऐनक.....
से लेकर.....अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ.......
तक, हर लफ्ज़ अलग ही संसार में ले जाता है..
मुझे अपने गीत की लाइन याद आ रही है....
हंसते हुए चेहरों के पीछे दर्द की एक कहानी है....
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
भावविभोर करने वाली रचना
गूँगा है माँ का सितार
तहखाने के कोने में उदास पड़ा है
अँधी है बाबू जी की ऐनक
धूल खाती पुस्तकों की आलमारी में..
अति सुन्दर !
ये विकलांगता जिन्हें नसीब नहीं बे ही असल विकलांग हैं.
एक बेहतरीन रचना जो बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है ..शुक्रिया
जड़ों से दूर रहने की छटपटाहट तो होती है पर अपनी विरासत नही छूटती .......... जैसे कोई पुराना सामान ........ पुरानी यादें ........ पुरानी डायरी ......... ऐसी ही पौरानी छड़ी, पुराना सितार ..........
एक कडवी हकीकत बदलते मूल्यों की, कहीं न कहीं हमारी पीढी भी जिम्मेवार है, हम अपने नवांकुरों को अपने से जोड़ नहीं पाए ! जब दिल दुखे तो हमें अपनी भूलों पर पछतावा होना चाहिए !!
एक संवेदनशील ह्रदय से निकली इन पंक्तियों को प्रणाम !!
रचना अपने आप मे परिपुर्ण है. अगर इसे रचनाकार की निजी हकीकत ना मानकर कवि कि कल्पना मानें तो ठीक है वर्ना हम तो अरविंद मिश्रा जी के साथ हैं.
रामराम.
bahut hi badhiyaa
जैसे किसी दुखती राग पर हाथ रख दिया आपने..बहुत सुंदर
फिर भी मुझे विश्वास है
पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ
मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश
अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ!!
बहुत खूब समीर जी. खुदा करे आने वाली नस्लें भी इस विकलांगता का महत्व समझें.
तब तो शरद जी का विशेष आभार जो आपके विचारों गढ़नें में सहायक हुए !
sarva pratham- GANTANTRA KI SHUBHKAMANAYE
viklangata ke jariye nai pidi ki haqiqat. magar mujhe lagtaa he itanaa bhi nahi badlega jamana ki ham jeso ki pidiya use bhoola sake.., aakhir KHOON ka kuchh to asar rahega..sadiyo tak
आखिर किसके लिए और क्यों हम अपनी जड़ों से दूर होना चाहते हैं?
वो जो आपके बाद आये हैं या आयेंगे, वे बस संभाल कर रख लें आपकी ऐसी ही कुछ चीजें और ये कविता भी...बस यही कामना है
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
दिल को छूती.
विकलांगता-सोच का एक अलग आयाम.
क्या हुआ चाचा? आजकल बड़े दुखी रह रहे हो. कोई खास बात?
समीर जी आप की कविता बहुत कुछ कह रही है, जाने वालो के बाद उन की चीजो को देख कर मन मै अनेक ऎसे ही विचार आते है, बहुत भाव पुर्ण लगी आप की यह कविता.
आप को गणतंत्र दिवस की मंगलमय कामना
.
.
.
दिल को छू गयी आपकी यह रचना,
आभार!
बहुत मार्मिक रचना.
हैपी ब्लागिंग.
बहुत सुंदर शब्दों के साथ .........बहुत सुंदर रचना.... सुंदर भावाभिव्यक्ति......
सादर
महफूज़....
ढो रहा हूँ इनका अस्तित्व
मैं एकमात्र जीवित उत्तराधिकारी
टूटने को तत्पर
अपने झुकते काँधों पर..
बहुत दर्द झलक रहा है!
उडऩ तश्तरी वाले संस्कारधानी के धनी समीर भाई को सलाम... आप मेरे ब्लाग पर आए बहुत शुक्रिया। आपने डिटेलिंग की बात कही तो ऐसे लगा जैसे किसी ने हौसला और चैलेंज एक साथ पेश कर दिया हो। दरअसल हर जगह ढकोसलों और बेवजह की जबानदाराजी के चिठ्ठों से ऊब कर मन नहीं हो पाता था कि रेगुलर ब्लागबाजी की जाए... लेकिन भला हो राहुल गांधी का, वे मप्र क्या आए विचारों को एक दिशा दे गए। आपकी अपेक्षानुरूप क्रम आगे बढ़ गया है, उम्मीद फिर ब्लाग पर आएंगे और इन आंखों से छूटते मंजरों से रूबरू कराएंगे। आपके ब्लाग पर लगा कि इतना भावुक व्यक्ति जब अपनी मट्टी से दूर होता है तो वह क्या देखता और सोचता है... सात समंदर पार यूं ही अपनों से नाता जोड़े रहें। हकीकत तो यह है कि पहले कभी आपके ब्लाग पर नहीं आया था, लेकिन अब लगता रेगुलर आना-जाना बना रहेगा। खैर... इस बीच एक बात और चूंकि आप हिंदी में भी लिखते हैं तो जाहिर है इसकी महिमा भी जानते हैं, लेकिन आपको एक दुखद तथ्य से अवगत कराए बगैर नहीं रह पा रहा हूं कि गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर गुजरात हाईकोर्ट का राष्ट्रभाषा के संदर्भ में एक जनहित याचिका पर जो फैसला आया, उसमें नियमों और कानूनों से बंधी कोर्ट की बेबसी तड़पा देने वाली है। डिब्बाबंद सामग्री पर हिंदी में निर्देश न छपवा पाने के फैसले का आधार बना हिंदी का राष्ट्रभाषा न होना... कोर्ट ने कहा हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर यह कालिमा आपको सप्रेम ताकि आप इस स्याही बना कर अपने जानने-पढऩे समझने वालों को जागरुक करने में एक और मजबूत कदम उठाएं। हिंदी की अलख के लिए शुभकामनाएं।
पीढ़ी-भेद को प्रतिबिम्बित करती विलक्षण कविता।
साधुवाद।
Samajh nahee paa raheeki, is rachna pe kya tippanee dee jay...
Gantantr diwas kee dheron shubhkamnayen!
बदलते सामाजिक मूल्यों की कटु सच्चाई ब्यां करती आपकी ये रचना बहुत कुछ सोचने को विवश कर रही है......
हम जैसे युवाओं के लिए बेहद ही प्रेरणाप्रद है आपकी कविता।
एक गुजराती कहावत है,
मुझ वीती , तुझ वीत्शे,
धीरी बापुडिया
मतलब - नयी पीढी कब पुरानी हो जायेगी
ये आप कालिका से पूछिए जो बहार में खिल रही है
और उस मुरझाये फूल से जो सुखकर धरती में समा जाने को है --
सुन्दर मनोमंथन लिए काव्य पर मुबारकबाद
गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में सभी भारत माता की संतानों को मेरी मंगल कामनाएं
स - स्नेह,
- लावण्या
क्या खयाल है,कि दिल में रुमाल की घडी की तरह तह करके रख लूं.
गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें...
dil par nisha chodne walee rachana.
गणतंत्र दिवस की आपको बहुत शुभकामनाएं
लो जी आप तो आप ही हैं और उसपे भी शरद भैया को भी मिला लिया... मिल के कविता लिख डाली.. अब क्या होगा हम सबका??? सूरज और चंदा मिल गए एक नया ब्रह्माण्ड रच डाला... अब हम छोटे मोटे उपग्रहों कि बिसात क्या है कि.....
गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें....
जय हिंद... जय बुंदेलखंड...
लँगड़ी है दादा जी की छड़ी
दीवार का सहारा लिए खड़ी है
गूँगा है माँ का सितार
तहखाने के कोने में उदास पड़ा है
अँधी है बाबू जी की ऐनक
धूल खाती पुस्तकों की आलमारी में..
ढो रहा हूँ इनका अस्तित्व
मैं एकमात्र जीवित उत्तराधिकारी
टूटने को तत्पर अपने झुकते काँधों पर..
बहुत ही सार्थक!
नया वर्ष स्वागत करता है , पहन नया परिधान ।
सारे जग से न्यारा अपना , है गणतंत्र महान ॥
गणतन्त्र-दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें.
wah sameer , jadon se katne ki bahut sunder dard bhari abhivyakti, dikh rahi hai tees.
bahut kuchh sochane ko badhya karti hai ye post.
gantantra divas ki badhai.
विछोह की पीडा झलक रही है.
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ... चलो हम भारत देश को वस्तुत: गण के तंत्र में विकसित करें ।
बहुत ही अच्छी रचना है
साधुवाद।
samirbhaishab
namskar.
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
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BLOG CHURCHAA MUNAA BHI KI
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
मुम्बई-टाईगर
द फोटू गैलेरी
महाप्रेम
माई ब्लोग
SELECTION & COLLECTION
समीर जी ,
एक दूसरा ही भाव ! आपकी रचनाओ में कहीं इतनी गहरी बात और कहीं हास्य व्यंग !
सचमुच ये विकलांगता नहीं ! ये सौभाग्य है !
एक दर्द ......और सुदर अभिव्यक्ति ....:)
aapne pushtaini viklaangta ka bakhubi apne shabdon me piroya hai ...
lekin yah bhi samaj ki wah burai hai jise ham dekhte to hai par maante nahi ........
विरासत में मिली विकलांगता में छुपा दर्द नज़र आ रहा है। लेकिन आज की युवा पीढ़ी शायद इसको समझ न पाए।
आपने सही कहा की वो जड़ों से बहुत दूर जा बसी हैं।
लेकिन समय के बदलाव को कौन रोक सका है।
बस एक टीस सी ही रह जाती है , सीने में।
गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें।
आपकी यह अभिव्यक्ति वाकई कविता हो गई है...
बेहतर कविता...
बहुत सुन्दर रचना! आपको और आपके परिवार को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
bahut hi badhiya ji ,par aap sab se anurodh hai ki is bahsh me bhag len,kripya is tippani ko prkasit karen
ब्लॉग बहस : क्या ब्लोग्वानी और चिठाजगत में इक सर्च इंजन होना चाहिए
kripya isse pahle wala tippni mita den....kyonki vo aashish bhai ke blog ke liye thi jo galti se aapke blog comments box me pest ho gyi thi.........
kyaa baat....kyaa baat....kyaa baat......!!!
बहुत सुन्दर! आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
Sharad ji ka sahyog hi kaafi hai..lekin viklangta shabd thoda akhra......Pravasi hai aap isliya.....Happy sovereign Republic to You....lekin India mein iska mazaak hi udaya ja raha hai
कितने दिलों का यथार्थ समेटती हैं ये लाइने !
आप हंसाते हंसाते अक्सर रुलाने लगते हो. धरोहरें ढोना हमारी, सिर्फ हमारी पीढ़ी तक ही सीमित रह जाएगा. इस बात की जो कसक आपने महसूस की है, हम सभी उस से दुखी भले हों लेकिन एक संतोष भी है कि जो हम ने भोगा, शायद नई पीढ़ी उस सुख या दुःख से वंचित रहे.
फिर भी मुझे विश्वास है
पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ
मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश
अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ!!..
बहुत ही गहरे भाव लिये हुये यह विकलांगता, झकझोर गई अन्तर्मन को, बधाई के साथ आभार ।
समीर सर आपकी ये रचना बेमिशाल है . दिल करता है कभी आपसे मिलने का पर क्या करू पासपोर्ट नहीं है मेरे पास , पर आपकी लेखनी मुझे हमेशा आपके पास कनाडा भेज ही देता है , सच कहा है , यादों को किसी पासपोर्ट की जरुरत नहीं होती है .जेनेरेसन गैप का दर्द आपकी रचनाओं में झलकता है.हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान महान है .मैंने पढ़ा है की जब देवकी नंदन खत्री ने चन्द्रकान्ता लिखी थी तो लोगों ने वो नोवेल पढने के लिए हिन्दी सीखी थी , आज के दौर में आपको पढने के लिए लोगों को कम्पुटर सीखना पडेगा .मै आपका महिमा मंडन नहीं कर रहा हूँ बल्कि यह सत्य है . मैंने कुछ लोगों को जो कम्पुटर नहीं जानते है उन्हें आपकी कुछ रचनाएं दिखाई /सुनाई , वे लोग आपकी रचनाओं को पढ़कर /सुनकर बहुत भाव विभोर हो गए .
ऐसी रचना के लिए बधाई
मर्म स्पर्शी रचना...
नीरज
वैसे तो हमने इस सुन्दर रचना को पढ़ दिया पर याहां भी हाजिरी लगा ही देते हैं!!!
sameer ji
har baar ki tarah aapne fir se dil ko chhoo liya . sach aaj ki pidhi jado se bahut door ho gyi hai ..
फिर भी मुझे विश्वास है
पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ
मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश
अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं
और उखड़ी जड़ों के साथ!!
विश्वास पर जहान टिका है।
sadhuwad !!
jai hind jai bharat
aaj ki shayad desh ko bhi bhool jaye kyonki desh ne bhi abhi apne gantantra ke sathiyane (yani 60 varas ki ) ki umra pa li hai
समीर जी
विकलन्गता जडो से जुड्ने मे नही है
जो लोग नही जुड पाते है वो लोग विकलान्ग होते है
आपने बहुत सुन्दर कविता लिखी है
भावुक कर गयी
Adbhut bimb pesh kiye hain
salaam saheb
कविता में एक विरासत को सहेजने का निश्चय है साथ ही आगे इस विरासत को न दे पाने की पीड़ा भी.
अद्भुत है ये कविता. एक हूक सी उठती है...
nihshakt hamaare hi parijan hai,
unka ham kalyaan karen.
apne jeevan ke jaisa hi,
ham unka uttaan karen.
sunar rachana..prerak bhi
आपने सही कहा ।
समीर भाई, बहुत खूबसूरत कविता लिखी है आपने , मुझे लगा कि मेरे मन के ही भाव हैं , शायद हम लोग ही एकमात्र उत्तराधिकारी हैं पूर्वजों की इस विरासत के.. हमारे बाद की पीढ़ी शायद इतनी संवेदनशील न हो .. जो हमारी वस्तुओं को सहेज कर रख सके .लेकिन अभी भी समय है यह आनेवाली पीढ़ी ज़रूर समझेगी कि वस्तुएँ सिर्फ वस्तुएँ नहीं होती उनमे भी सजीवों की संवेदना अंतर्निहित होती है । यह कविता शायद उन्हे इस बात के लिये प्रेरित करे ।
बेहद मार्मिक!!
कुछ पंक्तियाँ तो ऐसी हैं कि गर बिना नाम लिखे किसी नामी आलोचक को दिखाएँ तो निश्चित ही वो किसी बड़े कवि का लिखा हुआ बताएं.
बहुत प्रभावी अंकन !!आज का!!badal रहे समय और समाज का!!
एक बेहतरीन कविता सरकार...उफ़्फ़्फ़ कुछ बेहर ही दुर्लभ बिम्बों का प्रयोग और "कवितापन" को बरकरार रखते हुये सटीक कटाक्ष आज के इस "जेन एक्स" पर।
शरद जी को भी शुक्रिया...
जड़ों से दूर बसे बच्चों को इसे ढोने की जरुरत से मुक्त कर देना सच ही बहुत साहसिक कार्य है ....वैसे भी उनसे सब संभालता नहीं ... !!
अपनी ज़मी से दूर हुए तो क्या
बस इतना न दूर होना
कि माटी की सुगंध का अहसास ही मिट जाए।
काफी अच्छी कविता है ...
आज के इस दौर में बहुत कम हैं जो की अच्छे साहित्य को समझते हैं और उसे लिखते हैं |
ऐसे ही अच्छा लिखते रहिये बस यही आशा है|
बेहतरीन रचना का आस्वादन कराने के लिए धन्यवाद !!
परंतु भारत की नई पीढी के कुछ लोग अंग्रेजी स्ंस्कृति की पोलियो वैक्सीन प्राप्त करने से चूक गये ...और विंकलांग होने से बच गये ।
क्या है न कि जनसंख्या ही इतनी है कितनों को विकंलाग करेंगे :)
आप व्यर्थ की चिंता न करे। भविष्य भी समृद्द होगा ।
खरगोश का संगीत राग रागेश्री
पर आधारित है जो कि खमाज
थाट का सांध्यकालीन राग है,
स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम
इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता
है...
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल
में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
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