उन्हीं अहसासों के बीच मुझे कहीं दूर बाजार से उठता लाउड स्पीकरीय संगीत का स्वर सुनाई पड़ता है- संप्रदायिक सदभाव की मिसाल सा. पहले हिन्दी भजन- ओम जय जगदीश..फिर कोई पंजाबी गाना और फिर कुछ देर बाद उर्दू-मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरे महबूब न मांग...ओफ्फ!! इसमें कैसी संप्रदायिकता..ऐसा किसने कह दिया कि हिन्दी गाना हिन्दुओं का और उर्दू गाना मुसलमानों का. ये तो भाषाऐं हैं, इनका क्या मजहब? मजहब तो हम इन्सानों का होता है भाषा में तो बस अपनी मिठास होती है. खैर, ठीक है..कोई संप्रदायिकता की बात नहीं. बस, गीत बज रहे थे, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू...अब ठीक है. बीच में सड़क से गुजरती मोटर साईकिल, ट्रक, टैम्पो की आवाज. गली से निकलते सब्जीवाले की कर्णभेदी गुहार-आलू ले लो, टमाटर ले लो..हरी बूटट्ट्ट!!!! ताजा है. पीछे पीछे मरियल सी आवाज-रद्दी पेपर वाल्ल्ला!! फिर वही संगीत..मुझसे पहली सी मुहब्बत...
सोचता हूँ किसने लिखा होगा यह गीत..नज़्म. खैर, जिसने भी लिखा हो वह मेरे लिए उतना महत्वपूर्ण और विचारणीय नहीं जितना कि क्यूँ लिखा होगा? क्या लफड़ा फंसा होगा जो उसे इतनी शिद्दत और साहस से कहना पड़ा होगा कि मुझसे पहली सी मुहब्बत... मेरे महबूब न मांग...
अपनी सोचता हूँ..पत्नी का चेहरा याद करता हूँ. दूर नहीं है, नीचे ही गृह कार्य में व्यस्त है. संगीत की आवाज से कहीं ज्यादा नजदीक से बीच बीच में नौकरों को हिदायत देती उसकी आवाज आ जाती है. चेहरा याद आता है तो कल्पना करता हूँ कि यदि मैं ऐसा कह दूँ कि मुझसे पहली सी मुहब्बत...मेरे महबूब न मांग... तब?? उसकी जबाबी भाव भंगिमा की कल्पना मात्र से सिहर उठता हूँ. वो तो प्राण ही निकाल ले पूछ पूछ के कि काहे न मांग. ऐसा क्या हो गया कि न मांगे. तुम तो रोज दर रोज वैसा ही खाना मांगते नहीं अघाते. बल्कि रोज नया ही आईटम जुड़ा मिलता है लिस्ट में..अगर मैं कह दूँ कि मुझसे पहले सा खाना न मांग तो भूखे मरोगे. इस उम्र में कोई पूछेगा भी नहीं. बड़े आये हैं कहने वाले कि मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...चुप्पे बैठे रहो वरना पानी के भी लाले पड़ जायेंगे. एक गिलास तक तो खुद से पानी लेकर पी नहीं सकते और बड़ी बड़ी बात करने निकले हो..महबूब न मांग....
मेरा मन करता है कि इस गीत के साहसी रचयीता के बारे में मनन करुँ कि आखिर कैसे और किन परिस्थियों में यह शौर्यपूर्ण कदम उठाया होगा. यह तो तय है कि जिसने भी लिखा हो, वो निश्चित ही अपने जीवन में सावन दर्शन का अर्द्ध शातक तो कम से कम बना ही चुका होगा. वरना, उसके पहले तो कितना भी वीर खिलाड़ी हो, इतना बोल्ड शॉट नहीं लगा सकता.
निश्चित ही उसके पास या तो कुछ स्पष्टीकरण के मुद्दे रहे होंगे कि जब पत्नी ’काहे न मांग’ पूछेगी तो कह सके. मसलन, कि देखो महबूब, आजकल न तो पेड़ के आसपास पहले जैसे मटक कर नाचने के लिए कमर रह गई है और तुम तो देख ही रही हो कि खांसी भी ऐसी आन बैठी है कि मानो अब तन के साथ ही जावेगी तो घूम घूम कर तुम्हारे साथ प्रेम गीत भी फिल्मी स्टाईल में नहीं गा सकते, अतः हे महबूब, मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...बल्कि हो सके तो कमर में जरा मूव मल दो, कल से बड़ा दर्द है.
या फिर शादी के पहले का वाकया याद दिलाता, जब उसकी गली के मोड़ पर उसके भाईयों ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर घेर लिया था और वो साईकिल छोड़ कर सरपट दौड़ता हुआ एक किलोमीटर दूर अपने मौहल्ले में आकर ही रुका था तब जाकर हाथ पैर सलामत रह पाये थे. आज न तो दौड़ने का वो रियाज रहा और न ही दौड़ने लायक घुटने और तिस पर से सामने झूलता पेट-कैसे दौड़ पायेगा. हाथ पैर टूटें मारा पीटी में उससे बेहतर है कि ओ मेरे महबूब.. मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...तुमसे क्या छिपा है.
या उस शाम की बात याद दिलाये जब शादी के पहले उसके कमरे में घुसा था और सीढ़ी पर से आते उसके पिताजी की कदमों की आहट से उसने ही सहम कर उसे पलंग के नीचे छिपा दिया था. अब आजकल वैसे पलंग कहाँ..आजकल तो पलंगे के नीचे झाडू भर जाने की जगह रहती है. और न ही शरीर का विस्तार अलमारी में छिपने की इजाजत देता है तो पिता जी के हाथों पकड़ा जाना तो तय ही मानो..बचना अब संभव नहीं. अतः ऐ महबूब.. मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...कुछ तो रहम खाओ.
और न जाने कितने ही कारण इक्कठे किए होंगे ताकि सनद रहें और वक्त पर काम आयें और तब जाकर ऐसा साहसिक गीत लिखा होगा- मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...
हममें वो साहस नहीं. हमें इस गीत से कोई शिक्षा नहीं चाहिये. हम तो ऐसा न लिख पायेंगे. अरे, लिखना तो दूर, गुनगुना भी न पायेंगे. हमें हमारे हाल पर छोड़ दो. अरे, ये क्या, लाउड स्पीकर भी यही कहने लगा...मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिये..मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो...मुझे मेरे हाल...!!
जाने कब नींद लग गई. टेबल पर खाना लगा है...आ जाओ..क्या दिन भर सोते ही रहोगे. पत्नी की आवाज सुनाई दे रही है.
143 टिप्पणियां:
बहुत खूब जी, पहले सी मुहब्बत ना मांगने के बहाने उस गीतकार से ज्यादा आपके लग रहे है... कहीं आपकी श्रीमती जी को भनक लग गए माफ़ी से भी काम ना चलेगा... खैर बड़ा मजेदार लेख है...
बहुत खूब जी, पहले सी मुहब्बत ना मांगने के बहाने उस गीतकार से ज्यादा आपके लग रहे है... कहीं आपकी श्रीमती जी को भनक लग गयी, तो माफ़ी से भी काम ना चलेगा..खैर बड़ा मजेदार लेख है...
हाय हाय ये मजबूरी ,ये पलंग ये आसमा और ये मजबूरी (याँ)....सहानुभूति हैं समीर जी ! रही गाने के उस मुखड़े की बात तो उसकी भी ऐसी की तैसी हो गयी है !
अव्वल तो बात सर यह है की हिन्दी और उर्दू दोनों भारत में ही पैदा हुई भाषाएँ हैं. फ़िर इनमें विरोध कैसा? हाँ पहली सी मुहब्बत माँगना तो वास्तव में गुनाह है.
हर शब्द गुदगुदाता है....लेखन शैली का कसाव अन्तिम शब्द तक बांधे रहता है...अंत में पहुँचने पर लगा कि इतनी जल्दी न समाप्त होना चाहिए था...शायद मन थोड़े और रसपान को इच्छुक रहा हो.
:-)
अब ये तो मियाँ बीवी के बीच की बातेँ हैँ .
.भला कोई क्यूँ कहने लगेगा
" मुहोब्बात ना माँग ? "
पहले जैसी या अभी वाली .
.सभी "वेलकम होतीँ हैँ जी ".
.बहुत शानदार सीन लिखा है आपने ..
अब चलिये,
सौ. साधना भाभी जी , बुला रहीँ हैँ ..
" देर ना हो जाये कहीँ देर ना हो जाये "
स्नेह सहित,
- लावण्या
बहुत खूब!!
चलो खाना लग गया!
यही शाश्वत सत्य है :)
अच्छी पोस्ट लिखी है
कुछ तो गडबड है :)
सही | क्या बात है मैंने तो गाना सुनते वक्त इतना सोचा ही नहीं |
waah kya baat hai ,ek gaane se ek umada post ban gayi:):),vaise bhabhi ji ko pata hai ya nahi:),aapke saput aur unki navparinita ko dheron shubkamnaye.
जाने कहा गये वो दिन जब ये बला , बला की हसीन दिखती थी अब तो बस दिल से यही आवाज निकलती होगी समीर बाबू ......:)
बीता सच
कितना मधुर और मदिर होता इन यादों के लिए तो आपको दाद दूंगा
"सर्दी की सुबह-कुनकुनी धूप और छत पर निमाड़ की पलंग पर हाथ से तकिया बनाकर लेटा मैं, आकाश ताक रहा हूँ. यकीन जानिये जनाब, यह एक लक्ज़री है जो सबके नसीब में कहाँ. कभी निमाड़ की पलंग पर लेटना मजबूरी रही होगी जैसे कि बिना डाईनिंग टेबल के जमीन पर पीढे पर बैठ कर खाना. आज उसी पीढे पर बैठ कर लालटेन की रोशनी में खाना खाने के लिए ताज ग्रुप के ढाबे पर हजारों के बिल चुकाता व्यक्ति अपने रईस होने का अहसास करता है. कभी लगता है कि हम तो इस बारे में जानते भी हैं. आने वाली पीढ़ी तो निमाड़ और मूंच की खटिया सिर्फ म्यूजियम और (शायद) प्रेमचन्द्र की किताबों में ही देखेगी."
गुलज़ार की कविता सी पोस्ट के लिए आभार
प्रायः मैं एक हारमोनी की कल्पना में खो जाया करता हूः
"समुद्र किनारे बहती हवा की सनसनाहट, लहरों की ध्वनि, पक्षियों का कलरव और किसी माँझी के गीत की लय"
एक दूसरे में किसी प्रकार की समानता नहीं पर इनका संगम एक मधुर संगीत को जन्म देता है।
किन्तु आज आपने एक नई किस्म की हारमोनी के विषय में बताया जो हैः
"हिन्दी भजन- ओम जय जगदीश..फिर कोई पंजाबी गाना और फिर कुछ देर बाद उर्दू-मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरे महबूब न मांग..."
ऐसी हारमोनी के विषय में कभी सोचा भी न था पर ये भी मधुर संगीत ही है।
बहुत सुन्दर!
मेरे महबूब.. मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग..ये गीत किसने भी किसी के लिखा हो लकिन आपके लिए तो बहुत प्यारा रहा न....आपकी पुरानी यादे जो ताजा हो आई और इसी बहाने हमे भी वो पलंग के नीचे छिपने का किस्सा जानने का मौका मिला हा हा हा हा वैसे तो शायद नही मिलता....और खाना समय पर खाना हो तो उनसे न पूछियेगा ये सवाल मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग वरना हो जाएगा बवाल हा हा हा ..."
Regards
'पहली सी मुहब्बत' से तो हाथ झाड़ लिये आपने।
अब एक आलेख 'अगली सी मुहब्बत' के बारे में भी हो जाय।:)
"मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग..."
"यह लो नीली गोली, बीना माँगे ही ले कर आयी हूँ. तुम्हारा सारा हाल मालूम है..."
निमाड़ के पलंग पर उंघते न जाने क्या क्या ख्याल हैं आए ..समीर जी ने गाने के बहाने कई अपने राज बताये :)
तीसरी बार टिपपणी कर रहा हूं । पता नहीं क्या हो गया है जब भी टिपियाता हूं तो बार बार एरर आती है । खैर वही बात फिर लिखता हूं । आज के व्यंग्य ने मुझे श्रद्धेय दादा शरद जोशी जी की याद दिला दी । व्यंग्य में छिपे हास्य का तो कहना ही क्या । लगता है कि आपके काव्य संग्रह को स्थगित करके पहले व्यंग्य संग्रह छापना होगा होली के अवसर पर ।
पुराने गाने तो समझ आते हैं पर अब जो गाने लिखे जाते हैं समझ नही आते ....आखिर क्यों लिखे जाते हैं (शायद सर दर्द निवारक गोलियां बनाने वाले निर्माता लोग पैसा देकर लिखवाते हैं.)
वो तो प्राण ही निकाल ले पूछ पूछ के कि काहे न मांग. ऐसा क्या हो गया कि न मांगे. तुम तो रोज दर रोज वैसा ही खाना मांगते नहीं अघाते. बल्कि रोज नया ही आईटम जुड़ा मिलता है लिस्ट में..अगर मैं कह दूँ कि मुझसे पहले सा खाना न मांग तो भूखे मरोगे. इस उम्र में कोई पूछेगा भी नहीं. बड़े आये हैं कहने वाले कि मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...चुप्पे बैठे रहो वरना पानी के भी लाले पड़ जायेंगे. एक गिलास तक तो खुद से पानी लेकर पी नहीं सकते और बड़ी बड़ी बात करने निकले हो..महबूब न मांग....
गुरुजी आपबीती सुना के नये लडकों को काहे डरा रहे हैं जी? :)
लाजवाब, आज की पोस्ट की एक एक लाईन लाजवाब. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
वाह वाह समीर जी , पढ़ कर बहुत हँसी आयी , यही तो आपकी लेखन क्षमता का कमाल है की कभी तो आप हसाते है और कभी गंभीर लेखन के द्वारा पलके भीगी करने पर भी मजबूर कर देते है ....
कितना बेहतरीन अंदाज़ है बड्डे आपका, छोटी छोटी बातों में से ज़िंदगी की महान सच्चाइयों को सहज में इंगित कर देने का। आपको पढ़ते वक्त एक सुनहले से अपनेपन का अहसास होता चलता है। इर्दो-गिर्द के लिए ऐसी सुलभ सजगता ही आपको विशेष बनाती है। हमारा भाग्य है के हमें आपकी अहबाबी हासिल है। फिर से एक बहुत बेहतरीन आलेख के लिए बधाई।
यादें बस यादें रह जाती है..
सही कहा लक्ज़री है... मूंज की खटिया.. खुली छत.. बहुत मजा है..
खुदा दंपति को लंबी उम्र दे..... आमीन.
प्रेम से सराबोर लेख...
बहुत सुंदर...
मीत
क्या केने क्या केने, पहली सी, दूसरी सी,तीसरी सी, चौथी सी सारी वाली पढ़वाईये ना।
आने वाली पीढ़ी तो निमाड़ और मूंच की खटिया सिर्फ म्यूजियम और (शायद) प्रेमचन्द्र की किताबों में ही देखेगी.
बड़ा मजेदार लेख है...
वाह,वाह.......मज़ा आ गया........
एक बार गुनगुना के देख ही लीजिये
काफ़ी दिनों बाद नेट पर आया हूं । आपकी ये बहुत ही अच्छी और मजेदार पोस्ट पढ़ने को मिली है । आप के जैसे विचार अगर हमारे भेजे मे भी आ जाते तो कसम से हम भी बहुत बड़े लेखक बन जाते । आपकी लेखनी को प्रणाम ।
क्या खूब रही..
गाना तो सुना था लेकिन शब्दों का वास्तविक भावार्थ आपसे समझा हैं,
बहुत जल्दी ख़त्म कर दिया आपने, अभी बहुत कुछ सुनना चाहते थे,
लेकिन मेरी इस पिपासा पर काबू रखकर आपको सिर्फ़ यही कहूँगा :
अति उत्तम :
दिलीप कुमार गौड़
गांधीधाम
रचना बहुत ही दमदार है।...हर बार की तरह इस बार भी नयापन है।...आपकी सपत्नीक फोटो तो बहुत ही अच्छी लगी।
आईला !आइना दिखा रहे हो समीर बाबू......ऐ भाई ....जरा वक़्त को रोको कोई........ऐ भाई .......
आपको मैं बस इतना ही कहूंगी कि आप ख्यालों की बेलगाम उडान भरते रहिए...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से हमें ऐसे विचार पिरोसते रहिए....मेरी शुभकामनाएं सदैव आपके साथ..
"निमाड़ की पलंग पर हाथ से तकिया बनाकर लेटा मैं, आकाश ताक रहा हूँ. यकीन जानिये जनाब, यह एक लक्ज़री है"
गहरी और सही बात है| आज भले ही सुख सुविधा के सारे साधन मौजूद हों, लेकिन जैसे ही घर के उन मध्यवर्गीय सहूलियतों के बारे में सोचता हूँ, मन वहीँ राम जाता है|
वाह वाह वाह......। इसके अलावा क्या कहूँ समीर जी। मैने पहले भी कही कहा था कि क्यों बीता पल बताशे सा मीठा लगता है? हर शब्द लाजवाब है। पढकर दिल खुश हो गया।
आप तो बड़े छुपे उस्ताद निकले. !!!
Waah khub rahi apki ye post.
geet ke bahane apne kafi kuchh bata diya..
असल मे कहने वाले ने ये बात अपनी पत्नी से नही भूतपूर्व प्रेमिका से कही होगी शायद और जल्दी जल्दी कह कर नपटा रहा होगा कि कहीं से पत्नी आये इससे पहले समझ लो कि अब वो सब दीवानापन अब ना हो पायेगा :)
मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग
समीर भाई...............पहली बात तो भाभी और आप की फोटो जोरदार है,
दूसरी बात.............ऐसी जुर्रत तो कोई भी नही कर सकता..........पत्नी से बोले अपना हक़ मत मांग और वो भी इस उम्र में..........अमा यार..........बचूं से पिटवा दिया तो क्या होगा
चिट्ठा जोरदार था.........रोचकता बनी रही अंत तक.........फ़िर नींद जाग गयी
बहुत दिनों के बाद में खोला अंतरजाल,
लेख आपका पढ़के हंस-हंस हुआ बुरा हाल,
पहली-दूजी-तीसरी, इश्क का संजाल
पत्नी को उत्तर देना बहुत बड़ा जंजाल,
बहुत बड़ा जंजाल लेख ने कर दिया घायल,
गली वाले शब्दचित्र ने कर दिया सबको कायल।
बहुत खूब..............
प्रेम और हास्य का अति सुन्दर मिश्रण..
आनंदित हो उठा ये मन..
आभार.
समीर भाई बहुत ही धाँसू पोस्ट लिखी है आपने...सच कहूँ तो बहुत दिनों बाद इसे पढ़ कर मैं खुल कर हंसा हूँ...श्रीमती जी मुझे यूँ बुक्का फाड़ के हँसते देख पूछ बैठी "क्यूँ हंस रहे हो?" मैंने हँसते हुए कहा "मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग" तो उसने शरमाते हुए कहा " तो फ़िर किस से मांगू ?" है कोई जवाब इसका आपके पास...???
नीरज
शानदार पोस्ट!
सही कहा भइया. गीतकार सही में बड़े कलेजे वाले थे. लेकिन दूसरा कोई गा दे तो कलेजा निकाल लिया जायेगा. लेकिन साम्प्रदायिक सद्भाव में ऐसा गाना चला दिया भाई लोगों ने!!! तब तो इसका मतलब ये होगा कि गीतकार जी डंके की चोट पर कह रहे हैं कि "पहले वाला साम्प्रदायिक सद्भाव अब मत मांगो...
एकदम झकास पोस्ट ! लेकिन सोचने वाली बात यह है कि निवाड की पंलग आपको झेल कैसे गयी :)
अच्छी पोस्ट लिखी है जी।
आप ने गाने की सारी हवा निकाल दी. अब गाने के साथ यह पोस्ट ही याद आती रहेगी.
शुरू में पढ़ कर लगा की दादा आज फ़िर नौस्तेल्जिक होने के मूड में हैं, अगली लाइनों में तो मध्यमवर्गीय (ईईशशशश..) तोंदियल यथार्थ दिखने लगा...
और उसके बाद जो कुछ राज की बातें लिखकर ख़त(चिटठा) जो खुला छोड़ दिया तो कतई मजा ही आ गया. अब बस सारे ब्लागर यही मनाएं कि श्रीमतीजी यही पोस्ट पढ़कर बोलें...जरा इस निमाड़ की चारपाई के नीचे घुसकर दिखाओ न जी....
lal sahab aapki madam ke saath photo dekh kar to lagta hai aap kahne waale hain, "mujhse pahli si muhobbat hi maang meri pyaari" khair bahut khoob likha hai aapne mazaa aa gaya, shabd chitra rach diya badhaai.
यदि मैं ऐसा कह दूँ कि मुझसे पहली सी मुहब्बत...मेरे महबूब न मांग... तब?? उसकी जबाबी भाव भंगिमा की कल्पना मात्र से सिहर उठता हूँ..
kaha se laate haia ap aisi batein? :-) lajawab post
'पहली सी मुहब्बत' ने तो बड़े दूर तक का सफर कराया. मजेदार.
पक्की तौर पर याद नहीं. बस अंदाज़ा भर है कि ये फैज अहमद फैज साहब की ग़ज़ल की लाईन है. ग़ज़ल की आखिरी लाईने यूँ हैं -
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुश्न मगर क्या कीजे
और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
रातें और भी हैं वश्ल की रात के सिवा
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
बहुत सुंदर, बहुत रोचक पोस्ट है.
uff alien jee mahaaraaj,
katil hain aap, aapka andaaje bayan, maariye khoob maariye ham naam nahin bataayeinge aapkaa,
:) बहुत ही खूबसूरत नाजुक सी पोस्ट्…ये जो आप के दिमाग में चलचित्र चले वो उस अलसायी सर्दी की धूप का कमाल है। सब को वो लक्जरी नसीब कहां।
हम आलोक की जी बात से सहमत, अब दूसरी, तीसरी, चौथी , सब महोब्बतों के बारे में बताइए
आलोक पुराणिक को चौथी तक पढ़वा के हमारे लिये पांचवीं वाली कहानी पेश की जाये।
bahut khoob
bahut bariya hai mama ji
waise wo mami ki hi photo hai na .
is photo se mami sas ban gai pata hi nahi chal raha.
bahut bariya hai mama ji waise wo photo mami ji ki hai na.
is photo se nahi lag raha ki mami ji sas ban gai hai.
यही तो अंतर होता है महबूब और पति में-:)
महबूबा कह सकती है- मुझ से पहली सि... पर क्या मजाल जो पत्नी ऐसा कह दे!!
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग" अजी आप का कहना है, कि उस से भी ज्यादा मांग,समीर जी इस निमाडं के पलंग पर बहुत सुंदर विचार आये आप को धन्यवाद
बहुत सुंदर
कुछ दिनों पहले एक हृदयस्पर्षी पोस्ट से रुबरू हुए और आज एक खुशनुमा पोस्ट से. राज कपूर या चेप्लीन के फ़िल्मों की याद आ गयी.
यही वे क्षण है जिनके बारे में लिखा गया है कि-
दे जाती हैं यादें , तनहाई में तडपाने को..
Bhaiya,premika ho yaa patni aur
premi ho yaa patni,pahlee se
mohabbat kahan miltee hai?bkaul
Faiz Ahmed Faiz -mujhse pahlee see
mohabbat mere mehboob n maang sach
nahin to aur kya hai?
ठीक है, भाई.. मैं सिफ़ारिश किये देता हूँ,
लेकिन आपको भी मुहब्बत के सेन्सेक्स उठने तक
इंतज़ार तो करना चाहिये था, है कि नहीं ?
जब से कमसन समधन पाय गये..
खामख़ाँ भाभी जी को धौंसियाये रहते हो ।
यहाँ, मेरे नीचे और ऊपर की टिप्पणियाँ गिन कर देवरों को गिन लो !
ऐसा अक्सर है हुआ पी ली जभी हमने भांग
ओंधे बिस्तर पे पड़े हाथ में थी मुर्गे की टांग
ऐसे माहौल में जो निकला यही था, मुंह से
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
बहुत ही मजेदार .....हँसने के लिए एक बहाना ही काफ़ी है .....
अनिल कान्त
मेरा अपना जहान
"उसकी जबाबी भाव भंगिमा की कल्पना मात्र से सिहर उठता हूँ. वो तो प्राण ही निकाल ले पूछ पूछ के कि काहे न मांग. ऐसा क्या हो गया कि न मांगे. तुम तो रोज दर रोज वैसा ही खाना मांगते नहीं अघाते"
वाह लालाजी हर बार की तरह कमाल की पोस्ट है. अंदाज तो है ही आपका निराला..हँसी भी खूब आई...धन्यवाद और बधाई
naa pahle se ham rahe
naa pahlee see aap
chhod mohabbat pyaar ko
raho hameshaa taap ( taapte raho bas - pahle jaisa kuchh nahee )
sir aap mere blog tak aaye aur comment diyaa - blog likhnaa safal hua.
sabhaar http://hariprasadsharma.blogspot.com/
केवल रुप ही नही मुहब्बत भी एक बात है,
शब्द ही नही तस्तरी भी एक करामात है।
चॉन्द से खुबसुरत लालाजी का क्या कहना,
जबकि उनके साथ चिठाकारो कि रगीली बरात है।
wow
aapkaa khaana !!
jaise babbar sher ke liye hota hai kuchh isi tarah bhabhiji ka nyota
कुछ पुरानी यादे ताजा कर दी आपके इस लेख ने..वाकई अच्छा लिखा है..ऐसे ही लिखते रहिये...
ये पोस्ट भाभीश्री ने कितनी बार पढ़ी और आपने कितनी बार ? और हां, नवदम्पती को भी ज़रूर पढ़वा दें....प्रेरणा मिलेगी :)
बढिया पोस्ट ....
आने वाली पीढी की क्या कहें मैंने ही निमाड़ का पलंग नही देखा है. बहुत सुंदर पोस्ट. भावनाओ की सफल अभिव्यक्ति . अब मैं भी इस गीत को सुनूंगी
माँग तो सकती है परन्तु देना ना देना...
बहुत बढ़िया रही यह गीत की चीरफाड़ !
घुघूती बासूती
ललित लेख के माध्यम से हास्य पैदा करने के लिए साधुवाद. पढ़ते हुए व्यंगकार के पी सक्सेना याद आ रहे थे.
वाकई....
मुझ से पहली सी मुहब्बत मांग के तू क्या करेगा..
अब मेरी तस्वीर को भी टांग के तू क्या करेगा..
जय हो भगवन........
गीत के बोल वाकई खूबसूरत हैं, जुगाड़ते हैं कहीं यूट्यूब वगैरह पर सुनने को मिल जाए।
शब्दों ही शब्दों द्वारा सीन बहुत अच्छे से चित्रित किया है आपने, पढ़ते हुए लगा कि मानो पढ़ नहीं रहा वरन् फिल्म की भांति सब आँखों के सामने से गुज़र रहा हो! :)
Bahut Sundar prastuti...!!
गाँधी जी की पुण्य-तिथि पर मेरी कविता "हे राम" का "शब्द सृजन की ओर" पर अवलोकन करें !आपके दो शब्द मुझे शक्ति देंगे !!!
आज बहुत दिनो बाद आया हूं और कारण एक ही है "ईंटरनेट कट गया था"
बहुत बढीया लेख है।
नेट कटा था ईसलीये रिस्पांस नही दे पा रहा था।
अभी मै बिच धार मे फस गया हूं(भविस्य की चिंता) ईसलीये नेट मै लगवा भी नही रहा हूं।
ये तो बात हुई पत्नी की. अगर प्रेमिका वही पहले सी मोहब्बत माँगे तो?
क्या बात है समीर जी, फोटू छापा तो ताऊ जी के चिट्ठे समान पहेलीनुमा. क्या कुछ रोशनी में खडे नहीं हो सकते थे?
लगता है कि ताऊजी का भूत अब सब के सर पर चढ कर बोल रहा है !!
सस्नेह -- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
भाभी जी ने आपके इस वाकये को किस नजरिये से देखा ??
मेरे हिसाब से ...
वो तो छीन लेंगी ....आप चाहे दे या न दे ....काहे न मांग ...उनका अधिकार हैं
वैसे एक गीत पर आपकी ये सुन्दर रचना मन को बहुत भाई ..
लेकिन गम तो यह हैं कि ....... आजकल हम देने के चक्कर मे ज्यादा पड़े हैं .... लेकिन कोई लेता ही नहीं हैं :) :)
एक बहतरीन आलेख के लिए बधाई। पढ़कर मज़ा आगया।
सरकार हैं आप....कहाँ-कहाँ से विषय-वस्तु ढ़ूंढ़ के लाते हैं आप
फ़ैज़ साब पढ़ लें,तो वो दौड़े चले आये आपसे मिलने....
वाह !!!
पूरा लेख मुस्कराहटें बिखेर गया...
बहुत ही बढ़िया!एक गीत की एक पंक्ति ने आप को यह लेख लिखवा दिया..क्या बात है!
सुंदर तस्वीर बताने के लिए शुक्रिया.
बस आपको यही कहेंगे कि आप ये गायें- " कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ...
बहुत फैंटास्टिक रहा ये लेख और फोटो भी बहुत अच्छा है...
वाह सुबह सुबह आपका लेख पढा और शरीर मे जवानी जाग उठी :)
आपको बताते हुए हर्ष हो रहा है की हमने ''ब्लोगेरिया जैसी घातक बीमारी का इलाज खोज निकला है
ब्लोगेरिया से बचने की दवा की खोज,सब ब्लॉगर मे जश्न का माहोल
dekhe
www.yaadonkaaaina.blogspot.com
टेबल पर खाना लगा है...आ जाओ..क्या दिन भर सोते ही रहोगे. पत्नी की आवाज सुनाई दे रही है.
----------
हाय! हमें एक ऐसा दिन नसीब हो! बाकी मुहब्बत-सुहब्बत क्या क्या करना जी! :)
कुछ नज़्म लिखने वाले की कलम का जादू है,कुछ आपकी कल्पना और कलम का. बहुत खूब.
padhte hue,honthon pe ek dheemi muskuraahat chha gayi hai. sonch raha hoon,aur bhi kuch kaaran ho sakte hain...maslan saahas ke bajaye kamjori...
Ha-Ha-ha...
बहुत बढ़िया लिखा है आपने.ऐसे ही लिखते रहें.
आपने तो यह बताया ही नहीं कि खाना खाया या नहीं.......कुछ भी कहिए मामला तगड़ा है
आदरणीय समीर जी,
पीले पन्नों पर दर्ज हरे हर्फ : एक बुजुर्ग की डायरी को पढने बाद यह टिपण्णी दे रहा हूँ!
ये क्या लिख दिया आपने! मन को झिंझोड़ कर रखा दिया आपने! इतने भी मार्मिक ना बनो! सच कहूँ हर शब्द मेरी आंखों में नमी लाया हैं! सलाम आपकी लेखनी को,क्या कहूँ! मन बहुत भारी हो गया हैं! कृपया ये बताएं कि यह आत्मकथा हैं या फ़िर शब्दों को कहानी का रूप दिया गया हैं! अगर आत्मकथा हैं तो ये बात जरुर कहना चाहूँगा कि मन को भारी ना करे, ऐसी परिस्थितियां तो आती जाती रहती हैं, सुखमय जीवन एवं रिश्तों की मिठास जल्दी ही एक दिन आपके आगोश में होंगी!
कृपया यह जरुर बताइयेगा कहीं ये आत्मकथा तो नहीं! जरूर बताइयेगा! इसके जबाब के पश्चात् ही मुझे चैन आएगा!
मै प्रण करता हूँ कि मेरे माता पिता को मैं कभी ऐसा अहसास नहीं होने दूंगा!
आपके उत्तर मै प्रतीक्षारत!
सस्नेह!
दिलीप गौड़
गांधीधाम!
मिया बीवी हम क्या जाने हम तोह कुवारे है; इसलिए :
उबासी लेती हुई पोस्ट
उड़न तश्तरी अब तो उडो!!
ek nazm ki panktiyaan kya keh de aapne.....itne e e e e e e e e e
dilon ke andar ki baat keh daali..
is lajwaab lehje ke liye mubarakbaad.........
---MUFLIS---
मोहब्बत भले पहले जैसी नही रहती, पर उससे ज्यादा निखरती ही है, वरना वो मोहब्बत कहाँ? बड़ा मज़ा आया पढने में, अभी उस मुकाम तक नही पहुचे हैं पर समझ सकते हैं आपकी भावनाएं!!
अब मेरे पास टिप्पणी में इसकी प्रशंसा के लिए शब्द नहीं हैं जी। बस आप एक और शतक के करीब हैं इसलिए एक संख्या मैं भी बढ़ा देता हूँ।
बारम्बार बधाई। जबरदस्त पोस्ट के लिए।
क्या कहूँ!
बस, मजा ही आ गया।
आपकी लेखन शैली बेहद प्यारी एवं रोचक है..मुझे आपका लेख पढ़कर बहुत खुशी हुई..बीच बीच में तो हंसी भी आ गई थी, पत्नी तो पत्नी है..भाई साहेब
bhahut sundar sir . der se padhne me aur aanand aata hai. kabhi tanhaiyon me aapki yad aayegi :)
बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति है आपकी.
युवा शक्ति को समर्पित हमारे ब्लॉग पर भी आयें और देखें कि BHU में गुरुओं के चरण छूने पर क्यों प्रतिबन्ध लगा दिया गया है...आपकी इस बारे में क्या राय है ??
पोस्ट और उसमे संदर्भित गाना पढने के बाद एक और गीत याद आ रहा है जिसमे एक आशिक कहता है....तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है....इधर बगल में पत्नी आँखे तरेरे पूछ रही है यही सब कम्प्यूटर पर टाईम पास करते रहोगे कि बाकी काम भी करोगे...छोटे को स्कूल ले जाना है, बडे को किताब दिलानी है....बाजार से सब्जी लानी है........और मुझे अपनी पत्नी की इन आँखों में समस्त दुनिया दिख रही है......तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है....सब्जी, बाजार, कापी, किताब, दूध का बिल, लाईट का बिल, पानी का बिल और कुछ नहीं तो चूहे का बिल जिसने खोद-खोद कर जगह जगह अपने होने का अहसासा कराया है....फिर वही...तेरी आँखों के सिवा दुनिया में....हा हा हा :)
शानदार पोस्ट।
माइक्रो कमेंट
वाह
गीत ने आपके जज्बातों को बखूबी बयां किया है।
बहुत ही मजेदार .....बहुत खूब!!
वास्तव में पहली सी मुहब्बत सा लेख है...पोस्ट के लिए आभार.
aap bhi gane ko lekar itna kuch likh diya kamaal hai
kya soch hai kya lekhan hai aur uske saath aapne vayang aur usmain hi haasya bahut maza aaaya
आज के फिल्मी गाने तो कुछ भी हो सकते है, और सभी गाने अच्छा या बुरा संदेश समाज पर छोड़ते हैं. लेकिन एक प्रबुद्ध उस से क्या संदेश ग्रहण करता है ,हम इस बेहद चिंतन प्रधान आलेख से समझ चुके हैं. आलेख में मनोरंजक बातों के माध्यम से आगे बढ़ते हुए अपने उद्देश्य पर पहुँचा गया है कि दो आत्माओं के पवित्र बंधन से बंधने के पश्चात भी हम और हमारा समाज अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं कि अर्थी निकालने पर तुला है क्या ?
- विजय
आपकी रचना होठों पर मुस्कान छोड़ गयी। आपकी कल्पनाशीलता कमाल की है। आपने मेरी कई रचनाओं पर उत्साहवर्द्धक टिप्पणियां की हैं। आपके प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
वाह जी, दाल में कुछ काला लग रहा है, नहीं बल्कि पूरी ही दाल काली लग रही है. वैसे पहले सी मोहब्बत मांगना तो गुनाह है. खेर लेख अच्छा है..
main parhti rahi aur muskuraati rahi...
maine apna hindi lekhan aaj hi shuru kiya aur dekhiye main aapke blog se guzri....
mere blog ka link hai
http://merastitva.blogspot.com
kabhi fursat mein padhariye aur mujhe kuchh sikhne ka mauka dijiye..
Jeevan ki tikhi sachchaiyan ujagar karti hai " mujhse pahli si ....".Sundar.
आकर्षक पोस्ट लिखने में और उससे भी ज्यादा आकर्षक शीर्षक रखने में आपका कोई सानी नहीं।
आपके लेखों के अलावा मुझे तो आप बाप-बेटों वाले फोटो हर बार बहुत अच्छे लगते हैं. लिखते तो हो आप हमेशा ही जानदार.
बहुत बदिया कहा हम भी सोचने पर मज्बूर हो गये कहीं चाँद फिज़ा जैसा मामला तो नहीं था?
आप किस चक्की का खाते हो ये कभी मत बताइयेगा, पर ये हँसी से भरे लेख मेरी सेहत ज़रूर सुधार देंगे.
:)
नि;संदेह रोचक हर बार की तरह उत्कृष्ट
जनाब आपकी और भाभीजी की तस्वीर पहली बार साथ देखी। सुंदर परिवार। गीत-संगीत का रिश्ता तो मन से होता है। प्राण से होता है। संवेदनाओं से होता है। भाषा, मजहब, दूरिया इन सबका कहां इनसे वासता। लाजवाब लिखा आपने। धन्यवाद।
क्या समीर साहब अब इस उम्र में ये सब ..........जो भाभीजी ( या बहूजी) को पहली सी मोहोब्बत के लिये मना किये जा रहे है । अच्छी बात ना है जै ।
अरे जनाब! पहली सी मुहब्बत से आगे भी बढ़ेंगे या यहीं पर तन कर खड़े होने का विचार है.
sahab lajawaab kar diya aapne
samajh hi nahi aa raha kya likhu
नर्मदे हर
बहुत सुन्दर लिखा आपने, बधाई.
कभी मेरे ब्लॉग शब्द-शिखर पर भी आयें !!
नम्बर एक ब्लॉग बनाने की दवा ईजाद देश,विदेशों में बच्ची धूम!!
http://yaadonkaaaina.blogspot.com/2009/02/blog-post_7934.html
KAHAN RAH GAYE AAP?????
vaah kya baat hai.
vaah kya baat hai.
vaah kya baat hai.
Congrats on a great post...loved it!
Would love to learn a lot from you!
Do feel free to visit me at
www.yourstrulypoetry.wordpress.com
www.yourstrulypoetry.com
"निमाड़ और मूंच की खटिया सिर्फ म्यूजियम और (शायद) प्रेमचन्द्र की किताबों में ही देखेगी."
भले ही म्यूजियम में पहुँच चुकने के बाद ही लेकिन अंततः एक दिन तो निमाड़ और खटिया को लौटा कर लाना हीं होगा क्योंकि उसका कोइ विकल्प नहीं है |
अपने ब्लॉग पर आपके आने को आशीर्वाद स्वरूप ही समझूंगा !
आपकी लेखनी के साथ व्यक्तित्व से भी प्रभावित हूँ…
प्रेम से सराबोर लेख, बहुत सुंदर
बहुत सहज और आकर्षक लहजे में आपने यह लेख लिखा, काफी आनंददायक रहा इसे पढना |
समीर भाई,
भाभी जी से डरते हैं तो अच्छी बात है। लेकिन अब पहले जैसे न तो मुहब्बत है न समय और परिस्थितियाँ भी बिल्कुल आधुनिक हैं। लेख में बहुत सी जगह जो आपने भाभी जी के वो डायलॉग दिये हैं जो आपको उन्होने कहने थे वो बड़े ही रोमांचक हैं।
satire is excellent and very imaginative .aap badhaii ke patra hai
kripayaa mere blog par bhi aaye
SHUKRIYA...................
SHUKRIYA...................
log in to
http://mpbirds.blogspot.com
jabab nahi sir aapka kaya khoob najriya hai .. dhyanbaad
aapka jabaab nahi sir kaya khoob tareeka hai kahne ka .. badiya ... hai seekh raha hoon, dhyanbaaad
pren par aapka article achchha laga...maja aa gaya.
Regards.
Mohabbat ek bar ek se hi hoti hai,Pahli see mohabbat bar bar nahin hoti hai.Bahut badiya likha hai aapne.Vakai mein aapne kisi se mohabbat kee hai aesa lagta hai.
एक टिप्पणी भेजें