इनकी वसीयत भी ऐसी कि क्या कहा जाये. आज तक जितनी वसीयत देखी उसमें सब पीछे छूटे को कुछ न कुछ देकर जाते हैं. इस वसीयत में पहली बार देखा कि देना देवाना तो कुछ नहीं बल्कि फलाने की इतनी उधार लौटा देना. फलाने का इतना बाकी है. उसे ब्याज का यह भाव देना है. तुम मेरे खास हो और मैं तुम्हें चाहता हूँ इसलिये तुम फलाने को लौटाना क्योंकि वो किश्तों में ले लेगा और ब्याज भी कम है.
धन्य है यह वसीयत. संग्रहालय में रखने लायक.
इतने खास मित्र हैं कि यह तो तय ही समझा जाये कि उनके जाने पर राजू भाई का रोल हमें ही अदा करना होगा. बाँस मंगवाने से लेकर उनको राख बनाने तक का सारा जिम्मा इन नाजूक काँधों पर गिरा ही समझिये. फिर आखिर में पेड़ के नीचे खड़े होकर वो भाषाण, जिसमें उनके महान होने से लेकर उनके जाने के अफसोस तक को कवर करना, कोई हँसी खेल तो है नहीं. इसीलिये हमने सोचा कि जब वो वसीयत सार्वजनिक कर गये पूरी उधार आदि के हिसाब के साथ तो हम भी वो भाषाण अभी से तैयार कर लें. फिक्स डेट मालूम रहती तो ट्रक और तैरहवीं के भोज के लिये हलवाई आदि की बुकिंग भी अभी से कर देते. ऐन टाईम पर बिना बुक किये सभी कुछ तो महंगा पड़ता है. कहाँ तक उस समय मोल भाव करेंगे. एक ही काम तो है नहीं.
अब जितना हो सकता है, उतना कर लिया है अभी से. जैसे कि यह भाषाण. कोई सुधार करना हो तो बताईयेगा. अभी तो लगता है कि कुछ समय है:
कृप्या ध्यान दें, नीचे दिये भाषण में () के बीच के वाक्य भाव भंगिमा बनाने और वाक्यों का अर्थ समझाने के लिये हैं, वो भाषाण के दौरान बोले नहीं जायेंगे.
भाषण:
“ भईया जी नहीं रहे. (विराम-चेहरे पर घोर उदासी)
कल रात तक थे. खाना भी खूब खाया. (उनको खाता देख कोई भी समझदार जान लेता कि ऐसे खा रहे हैं जैसे कि आगे कभी नहीं मिलेगा. मगर कोई समझ ही नहीं पाया. सबने समझा ऐसा वो आदतन कर रहे हैं.) फिर वो सो गये. (सोये भी तो ऐसा कि फिर उठे ही नहीं.) हमेशा के लिये सो गये. चिर निद्रा में लीन.(अब तो जला भी दिया है तो उठने की कोई उम्मीद भी नहीं.)
बहुत दुख हो रहा है. (दुख इस बात का नहीं कि वो नहीं रहे. इन्सान का जीवन है सभी को एक दिन नहीं रहना है, सभी को चले जाना है. दुख तो इस बात का है कि बस थोड़ा जल्दी चले गये.) कुछ (दो-तीन) साल और रुक जाते. (तो हम स्टेब्लिश हो जाते.- दो बूँद आंसू) वे बहुत याद आयेंगे. उन्होंने मेरा बहुत साथ दिया. आज व्यंग्यकारी की दुनिया में मेरा जो भी नाम है वो उनकी ही देन है. उन्हीं के कारण मेरा लिखा अच्छा माना जाता था. (ऐसा नहीं कि वो मुझे लिखना सिखाते थे. मगर उन्हीं की लेखनी का जादू था कि मैं कुछ भी लिख दूँ उनसे बेहतर ही होता था और लोग मुझे पढ़ लेते थे.)
उनके और मेरे संबंधों पर इस मौके पर एक शेर कहना चाहूँगा:
आज मेरा इस जहाँ में, जो जरा सा नाम है
मान ले इस बात को तू, वो तेरा ही काम है.
उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है, वो कभी नहीं भरा जा सकेगा. (भर तो सकता है मगर कौन भरना चाहेगा. कोई क्यूँ अपनी लेखनी का स्तर गिरा कर खाई को भरेगा. बेहतर है वो रिक्त ही रहे. सभी तो चैन चाहते हैं.)
भईया जी सिर्फ भईया जी नहीं थे वरन एक युग थे. (युग तो क्या कहिये, घोर कलयुग थे. हर बड़े नेता से लेकर धर्म गुरुओं, भगवानों, शासन तंत्र, बाजार, सामाजिक व्यवस्था को उन्होंने लेखनी के माध्यम से अपना निशाना बनाया. लगा कि नहीं यह अलग बात है, मगर बनाया.) आज सब मौन हैं (सुख चैन में हैं, अब हाहाकार की आवश्यक्ता नहीं रही), सब यहाँ उपस्थित हैं (देखने आये हैं कि सच में चले गये गये या वापस न लौट आयें). आज उनके साथ उस युग की समाप्ति हो गई.
भविष्य उनको याद रखेगा. उनका बताया मार्ग सभी नव व्यंग्यकारों का मार्ग दर्शन करेगा. (इस मार्ग से बच कर चलो).
आज उनके परिवार का रुदन देखा नहीं जा रहा. सब रो रहे हैं. (कमाया धमाया तो कुछ नहीं, इतनी उधार छोड़ गया है कि कैसे चुका पायेंगे सोच सोच कर). आने वाली पीढ़ी भी उन्हें याद करेगी.(इतनी उधार चुकाना इस पीढ़ी के बस में नहीं-अगली पीढ़ी तक ही चूक पायेगा मय ब्याज) .
उनकी व्यंग्य-भारती किताब सदैव उनकी याद ताजा रखेगी. (बिकी तो एक कॉपी नहीं, सारी प्रतियाँ घर पर लदी हैं और प्रिन्टर के पैसे जो बकाया सो अलग ब्याज का मीटर चला रहे हैं). भईया जी रोज एक व्यंग्य कम से कम लिखा करते थे और तीस व्यंग्य की मासिक पत्रिका निकाला करते थे, जिसे वो घूम घूम कर, इस तकादे के साथ कि इस बार फ्री दे रहा हूँ अगले माह से पैसे लगेंगे, सबको बाँटा करते थे. (यह बाँटने का क्रम और तकादे का क्रम सतत चला और हर माह उधार में वृद्धि भी सतत होती गई)
इतने खास मित्र हैं कि यह तो तय ही समझा जाये कि उनके जाने पर राजू भाई का रोल हमें ही अदा करना होगा. बाँस मंगवाने से लेकर उनको राख बनाने तक का सारा जिम्मा इन नाजूक काँधों पर गिरा ही समझिये. फिर आखिर में पेड़ के नीचे खड़े होकर वो भाषाण, जिसमें उनके महान होने से लेकर उनके जाने के अफसोस तक को कवर करना, कोई हँसी खेल तो है नहीं. इसीलिये हमने सोचा कि जब वो वसीयत सार्वजनिक कर गये पूरी उधार आदि के हिसाब के साथ तो हम भी वो भाषाण अभी से तैयार कर लें. फिक्स डेट मालूम रहती तो ट्रक और तैरहवीं के भोज के लिये हलवाई आदि की बुकिंग भी अभी से कर देते. ऐन टाईम पर बिना बुक किये सभी कुछ तो महंगा पड़ता है. कहाँ तक उस समय मोल भाव करेंगे. एक ही काम तो है नहीं.
अब जितना हो सकता है, उतना कर लिया है अभी से. जैसे कि यह भाषाण. कोई सुधार करना हो तो बताईयेगा. अभी तो लगता है कि कुछ समय है:
कृप्या ध्यान दें, नीचे दिये भाषण में () के बीच के वाक्य भाव भंगिमा बनाने और वाक्यों का अर्थ समझाने के लिये हैं, वो भाषाण के दौरान बोले नहीं जायेंगे.
भाषण:
“ भईया जी नहीं रहे. (विराम-चेहरे पर घोर उदासी)
कल रात तक थे. खाना भी खूब खाया. (उनको खाता देख कोई भी समझदार जान लेता कि ऐसे खा रहे हैं जैसे कि आगे कभी नहीं मिलेगा. मगर कोई समझ ही नहीं पाया. सबने समझा ऐसा वो आदतन कर रहे हैं.) फिर वो सो गये. (सोये भी तो ऐसा कि फिर उठे ही नहीं.) हमेशा के लिये सो गये. चिर निद्रा में लीन.(अब तो जला भी दिया है तो उठने की कोई उम्मीद भी नहीं.)
बहुत दुख हो रहा है. (दुख इस बात का नहीं कि वो नहीं रहे. इन्सान का जीवन है सभी को एक दिन नहीं रहना है, सभी को चले जाना है. दुख तो इस बात का है कि बस थोड़ा जल्दी चले गये.) कुछ (दो-तीन) साल और रुक जाते. (तो हम स्टेब्लिश हो जाते.- दो बूँद आंसू) वे बहुत याद आयेंगे. उन्होंने मेरा बहुत साथ दिया. आज व्यंग्यकारी की दुनिया में मेरा जो भी नाम है वो उनकी ही देन है. उन्हीं के कारण मेरा लिखा अच्छा माना जाता था. (ऐसा नहीं कि वो मुझे लिखना सिखाते थे. मगर उन्हीं की लेखनी का जादू था कि मैं कुछ भी लिख दूँ उनसे बेहतर ही होता था और लोग मुझे पढ़ लेते थे.)
उनके और मेरे संबंधों पर इस मौके पर एक शेर कहना चाहूँगा:
आज मेरा इस जहाँ में, जो जरा सा नाम है
मान ले इस बात को तू, वो तेरा ही काम है.
उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है, वो कभी नहीं भरा जा सकेगा. (भर तो सकता है मगर कौन भरना चाहेगा. कोई क्यूँ अपनी लेखनी का स्तर गिरा कर खाई को भरेगा. बेहतर है वो रिक्त ही रहे. सभी तो चैन चाहते हैं.)
भईया जी सिर्फ भईया जी नहीं थे वरन एक युग थे. (युग तो क्या कहिये, घोर कलयुग थे. हर बड़े नेता से लेकर धर्म गुरुओं, भगवानों, शासन तंत्र, बाजार, सामाजिक व्यवस्था को उन्होंने लेखनी के माध्यम से अपना निशाना बनाया. लगा कि नहीं यह अलग बात है, मगर बनाया.) आज सब मौन हैं (सुख चैन में हैं, अब हाहाकार की आवश्यक्ता नहीं रही), सब यहाँ उपस्थित हैं (देखने आये हैं कि सच में चले गये गये या वापस न लौट आयें). आज उनके साथ उस युग की समाप्ति हो गई.
भविष्य उनको याद रखेगा. उनका बताया मार्ग सभी नव व्यंग्यकारों का मार्ग दर्शन करेगा. (इस मार्ग से बच कर चलो).
आज उनके परिवार का रुदन देखा नहीं जा रहा. सब रो रहे हैं. (कमाया धमाया तो कुछ नहीं, इतनी उधार छोड़ गया है कि कैसे चुका पायेंगे सोच सोच कर). आने वाली पीढ़ी भी उन्हें याद करेगी.(इतनी उधार चुकाना इस पीढ़ी के बस में नहीं-अगली पीढ़ी तक ही चूक पायेगा मय ब्याज) .
उनकी व्यंग्य-भारती किताब सदैव उनकी याद ताजा रखेगी. (बिकी तो एक कॉपी नहीं, सारी प्रतियाँ घर पर लदी हैं और प्रिन्टर के पैसे जो बकाया सो अलग ब्याज का मीटर चला रहे हैं). भईया जी रोज एक व्यंग्य कम से कम लिखा करते थे और तीस व्यंग्य की मासिक पत्रिका निकाला करते थे, जिसे वो घूम घूम कर, इस तकादे के साथ कि इस बार फ्री दे रहा हूँ अगले माह से पैसे लगेंगे, सबको बाँटा करते थे. (यह बाँटने का क्रम और तकादे का क्रम सतत चला और हर माह उधार में वृद्धि भी सतत होती गई)
अब वो पत्रिका नहीं निकला करेगी. अब से वो इतिहास हो गई.(व्यंग्य तो खैर कभी भी नहीं थी, कम से कम कुछ तो हुई)
भईया जी के अहसानों को याद कर उन्हें नमन करता हूँ और अब हम दो मिनट का मौन रख यहाँ से विदा लेंगे.(मौन तो खैर सब यूँ भी हैं, बस दो मिनट बाद विदा ले लिजिये).”
नोट: यह पोस्ट मौज मजे के लिये है फिर भी कोई सिरियस हो जाये या बुरा मान जाये तो यहाँ टिप्पणी करने की बजाये भईया जी से उपर जाकर शिकायत करे. वो हमसे कहेंगे तो हम आपसे माफी माँग लेंगे आखिर उनके बहुत अहसान हैं हम पर, कैसे उनकी बात टाल पायेंगे. :)
25 टिप्पणियां:
तीन दिन का अवकाश क्या हुआ हमारे चेहरे पर की मुस्करागट छिन गयी। आज कुछ आयी है।
शादी सालगिरह की बधाई।
ऐसे टिप्पणी करने का नयाब तरीका निकाला है आपने :-)
आपने तो रूला दिया लेकिन सच्चाई ब्रैकेट के अंदर क्यों लिखा?
विषय ही सीरियस है. भैया जी को ऊपर ई-मेल किया था, कॉपी आपको फार्वर्ड की थी. आप अपना ई-मेल आजकल चेक क्यों नहीं करते? :)
हमारे एड्रेस को स्पैम में डाल दिया है क्या?
अभी हम है यहा, इसलिये आप इस भाषण को भूल जाये..हम जब अपनी वसीयत लिखेगे तो उससे पहले आपके लिये भाषण भी लिख जायेगे..और वसीयत मे आपके लिये भाषण पढने (कैसे पढे की) नसीहत भी लिख डालेगे..बाकी आपके लिये हमने अपनी वसीयत मे एक खंड अलग से डाल रहे है जिसके अनुसार आप हमारी बढिया सी सुंदर सी समाधी बनवायेगे,तथा आपको रोज हमारी समाधी पर आकर नियम से ५ नयी गजल/कविता रोज सुनाना अवश्य जरूरी होगा.. आप तैयारी शुरू करदे..हम अपने सामने ही सारे क्रियाक्रम का ट्रायल देख कर पूर्ण संतुष्टी के बाद ही जाने के बारे मे सोचना शुरू करेगे..:)
समीरजी
ऐसा विकट विश्वासघात
ये ही किया आपने मेरे विश्वास का
हाय क्या सोचकर मैंने आपको वसीयत सौंपी थी, हाय ये आपने क्या कर दिया
अब दूसरी वसीयत लिखकर दूंगा, तो आपको न दूंगा।
आपका संदेश मिला अच्छा लगा । दरअसल में मुझे ये लगता है कि कुछ लोग जानबूझकर ग़ज़ल को आम लोगों से दूर रख रहे हैं इसीलियें ये प्रयास कर रहा हूं आशा है आपकी टिप्पणियां मिलती रहेंगीं
ऐ ल्लो अब वसीयत वसीयत खेलने लगे आप तो. :)
देख रिया हुँ आप हरफन मौला होती ही चले जा रहे हैं. अब शौख मेरा मतलब है शौक सभा उद्घोषक भी .. ही ही ही...
सही जा रहे हैं. :)
न हँसते बनता है न रोते बनता है, गमगीन घटना पर व्यंग्य. बात पसन्द आयी. मजा आया. कोष्टक वाली बाते बोली जाय तो..स्रोता ज्यादा वाह वाह करते.. :)
आपके भी बहुत लोगों पर अहसान हैं, उनका क्या?
मैं ऊपर आ रहा हूं.. मेरे नौ सौ तेरह डॉलर्स निकलते हैं!
अच्छा लगा जानकर भइया जी के बारे में !
समीर जी,
फोटो में जिन लोगों को आपने उधारदाता कहा है, उनके चेहरे देखने से लग रहा है जैसे उनके ऊपर भैया जी का उधार बाकी था....चेहरे बता रहे हैं कि इन्हें इस बात का डर है कि भैया जी कहीँ उठकर बैठ नहीं जाएँ.
समीर जी, सबसे पहले तो शादी सालगिरह की बधाई स्वीकारे...क्यो कि बाद में ...शायद गमगीन हो जाऊँगा:)
आज आप की पोस्ट पढ़ने से पहले आप की फॊटॊ पर ध्यान चला गया.....हम तभी समझ गए कि हो ना हो कोई गंभीर बात हो गई है ...फोटों मे हँसी गायब थी....चहरे पर छाए गंभीर भाव..तमतमाया चहरा...बहुत कुछ कह रहा है...सो डरते-डरते आप का लेख पढ़ा...हमारी सोच सही दिशा मे थी...लेख हमारी पलके भीगो गया(एडवास में)उस वसीयत को पढ़ कर..हमे भी अपनी वसीयत लिखने की प्रेअर्णा मिली है...इस के लिए आपके सदा आभारी रहेगें...और वसीयत तैयार करते समय आप का खास ध्यान रखेगें...बाकी समय आने पर...:(
आपके एक और आयाम की जानकारी मिली। क्यो न ज़ितू जी की बुनो कहानी जैसे ही बुनो वसीयत या कहो वसीयत आरम्भ करे। :-)
समीर जी आप तो हर विधा में हाथ आजमा रहें हैं। सफल रहे ,रोचक है ।
अच्छा सुझाव है. जल्द ही भईया जी से शिकायत करने के लिये मिलना पडेगा.
शादी की वर्षगाँठ की बहुत-बहुत मुबारकबाद देरी के लिये माफी चाहूँगी ...
बहुत अच्छा व्यंग्य लिखा है समीर जी बहुत-बहुत बधाई...
ह्रदय को छू लेने वाली रचना
दीपक भारतदीप
तो आप सहमत हैं कि उनके साथ साथ कलियुग समाप्त हो गया जिसका अर्थ मान लिया जाए कि हम सत् युग के मुहाने पर खड़े हैं। बड़ी मुश्किल है - व्यंग्यकारों का क्या होगा?
ऐसा कीजिए, कि उनका शव दाह संस्कार द्वारा नष्ट ना करें, mummify करवा के रखवा दीजिए जिससे
कलियुग चालू रहे और सरकारी निजाम सुचारू रूप से चलता रहे।
बहुत बढ़िया रचना । पर इसे पढ़ अपनी मूर्खता पर अफसोस हुआ । मैंने तो अपनी वसीयत पर केवल किसको क्या मिलेगा लिखा है । किसने मुझे क्या देना है नहीं लिखा । अब फिर से ठीक करनी पड़ेगी । पर हम अपनी वसीयत दिखा नहीं सकते, क्योंकि जिसके नाम कविताएँ छोड़ी हैं वह तो नाराज हो अभी ही हमारा राम नाम सत्य करवा देगा /देगी ।
घुघूती बासूती
बहुत बढ़िया!!
ह्म्म....
दो मिनट के मौन के बाद लिख रहे हैं । समझ नहीं आ रहा आप किन व्यंगकार को लपेट दिये हैं :-)
लेकिन कई सोच रहे होंगे कि हमे ही लपेटा गया है, बहुतों ने तो आपकी इस पोस्ट का लिंक भी बाकायदा इधर उधर भेजा होगा सनद के तौर पर...
बढिया लगा...
shadi ki sallgirah mubarak ho...........................................................
bahut acchi rachna shabd nahi hai]
shadi ki salgirah mubark ho///////////////////////////////////////////......................
acchi rachna .
बहुत अच्छा व्यंग्य लिखा है समीर जी ....शादी की वर्षगाँठ की बहुत-बहुत बधाई:):)
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