कनाडा में ट्रेन में ऑफिस जाते आते वक्त आमूमन रोज वही कोच, वही सीट और वही आमने सामने के सहयात्री. मेरे सामने की सीट पर दो लड़कियाँ बैठती हैं. बहुत बातूनी. दोनों के घर नजदीक ही हैं शायद. अक्सर उनकी बातचीत पर अनजाने में ही कान चले जाते हैं.
इतने दिनों से रोज आते जाते ऐसा लगने लगा है कि न जाने कितने दिनों से मैं उन्हें जानता हूँ. वो भूरे बाल वाली का नाम स्टेफनी है और दूसरी वाली सेन्ड्रा. वो मेरा नाम नहीं जानती. मैं जानता हूँ क्योंकि मैने उन्हें एक दूसरे से बात करते सुना है. मैं चुप रहता हूँ, किसी से ट्रेन में ज्यादा बात नहीं करता.
उम्र का अंदाज लगाना मेरे लिये वैसा ही दुश्कर कार्य है जैसा कि किसी तथाकथित जमीनी नेता की अघोषित संपत्ति का अनुमान लगाना आपके लिये. फिर भी जैसे आप कुछ तथ्यों के आधार पर, कुछ उसकी जीवन शैली के आधार पर और कुछ अपनी क्षमता के अनुरुप जोड़ घटा कर उसकी अघोषित संपत्ति का खाँका खींच कर अंदाज लगा ही लेते हैं, वैसे ही आधार पर दोनों ३० से ३५ वर्ष के बीच की उम्र की लगती हैं.
अक्सर इसी यात्रा के दौरान खाली बैठे कहानी और कविताओं का प्लाट तैयार करता हूँ. कोशिश होती है कि मस्तिष्क में उस स्थल को जिऊँ. उस घटना क्रम में लौट चलूँ, जिस पर लिखना है.
भारत के एक गाँव का दृष्य जीने का प्रयास करता हूँ. कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती बस, नंगे पैर खेलते बच्चे, सर पर गगरी रखे पनघट से लौटती पल्ले से सर ढ़ांपे लजाती स्त्रियाँ, खेत में हल चलाते पसीने में सारोबार किसान, तालाब में नहाती भैंसे, गर्मी की धूप में पेड़ की छांव में अलसाते मजदूर, चौपाल पर बैठे न जाने किस सोच और परेशानी में डूबे बीड़ी पीते बुजुर्ग, गोबर की महक, कच्ची झोपड़ियों में जलती ढिबरियाँ, शाम को पेड़ के किनारे गोल बना कर लोकगीत गाते ग्रमीण- सब बिम्ब की तरह उभरते हैं, बनते हैं, मिटते हैं.
ट्रेन अपनी रफ्तार से भागी जा रही है. शीशे के बाहर नज़र पड़ती है. हजारों कारें अपनी धुन में हाईवे पर दौड़ रही हैं. हाईवे के उस पार मॉल में रोशनी में चमचमाती दुकानें, नये नये फैशन में सजे स्त्री पुरुष. ट्रेन के भीतर परफ्यूम से दमकते ऑफिस जाने के लिये सजे संवरे हुये लोग, एक दूसरे से सटे लिपटे बेपरवाह युगल, आधुनिक लिबास में कॉलेजे जाती लगभग अर्ध नग्न स्वछंद युवतियाँ, एयर कंडीशनिंग में खिले स्फूर्त चेहरे, ट्रेन में बजता कोई पाश्चयात संगीत की धुन और सामने खिलखिलाती अपनी बात में मशगुल स्टेफनी और सेन्ड्रा.
सेन्ड्रा स्टेफनी को बता रही है कि कैसे हाई स्कूल के बाद वो इन्डेपेन्डेन्ट हो गई और अलग अपार्टमेन्ट लेकर रहने लगी. तब से एक कॉल सेन्टर में नौकरी करती रही. आगे पढ़ नहीं पाई पैसों की कमी के चलते. बस लोन लेकर कुछ पार्ट टाईम कोर्स किये. पिता जी के पास बहुत पैसा है मगर वो हाई स्कूल के बाद बच्चों को इन्डिपेन्डेन्ट हो जाने वाली सभ्यता में विश्वास रखते हैं. खुद भी वो हाई स्कूल के बाद से दादा जी से अलग हो गये थे. सेन्ड्रा के अलग हो जाने के बाद उसके माँ बाप में भी साल भर के भीतर ही सेपरेशन हो गया था.
मैं आँख बन्द कर लेता हूँ. फिर से लौटता हूँ गाँव की तरफ. बहुत मुश्किल से और तमाम कोशिशों के बाद कुछ धुंधले धुंधले बिम्ब उभर पाते हैं.
आज मन है रुक्मणी माई की दारुण कथा लिखूँ. वही रुक्मणी माई जो मेरे दोस्त कैलाश की अम्मा है. कैलाश हमारे शहर का कलेक्टर था. अक्सर अपनी अम्मा के किस्से सुनाया करता था कि कैसे उसकी दो वर्ष छोटी बहन के जन्म के साथ ही पिता जी की मृत्यु हो गई. गाँव के कच्चे मकान में वो, उसकी बहन और रुक्मणी माई रह गई. छोटी से एक जमीन का टुकड़ा था उनके पास. बताता था, कैसे रुक्मणी माई ने दूसरों के खेतों में मजूरी कर कर के उन्हें पाला पोसा, पढ़ाया लिखाया और कैलाश को कलेक्टर बनाया. वो जब पढ़ ही रहा था तभी उस जमीन के टुकड़े को बेच कर बहन की शादी भी अच्छे घर में कर दी. उसके कलेक्टर बनने के कुछ समय बाद रुक्मणी माई गुजर गई. वो उनके आभावों और कष्टों के दिनों के ढ़ेरों किस्से सुनाता. मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूँ.
सामने सेन्ड्रा स्टेफनी को बता रही है कि कल नये किराये के घर मूव में किया है शाम को. माँ अपने बॉय फ्रेन्ड के साथ आई थी सामान शिफ्ट कराने. फिर इस अहसान के बदले वो अपनी माँ और उनके बॉय फ्रेन्ड को डिनर कराने रेस्टारेन्ट में ले गई थी. अब सामान तो शिफ्ट हो गया है. अनपैक करके जमाना है. कुछ अलमारियाँ और लाईटें भी लगनी है. पिता जी से हेल्प माँगी है. उनकी वाईफ की तबियत ठीक नहीं है, इसलिये अगले हफ्ते आ पायेंगे. उनके लिये भी कुछ गिफ्ट खरीदना होगी. वो बहुत रिच आदमी हैं, कोई मंहगी गिफ्ट खरीदना होगी. अकाउन्ट में तो पैसे बचे नहीं है, क्रेडिट कार्ड पर कुछ लिमिट बची है, उसे ही इस्तेमाल करके खरीदूँगी. आखिर हेल्प करने जो आ रहे हैं. मैं उनकी बात न चाहते हुये भी सुन रहा हूँ.
रुक्मणी माई के किस्से याद करने की कोशिश कर रहा हूँ. बिम्ब नहीं खींच रहे. कथा सूत्र याद ही नहीं आ रहे. थोड़ा असहज होने लगता हूँ.
सामने सेन्ड्रा और स्टेफनी किसी बात पर हँस रही हैं.
स्टेशन आने वाला है. अब दफ्तर से लौटते समय कोशिश करुँगा रुक्मणी माई के आभाव और कष्टकारी दिनों की कहानी याद करने की.
रविवार, अगस्त 05, 2007
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44 टिप्पणियां:
बहुत ही बेहतरीन पोस्ट. आज का सवेरा सफल हो गया.
समीर जी जितना जुड़ाव मैं रुक्मणी माई से महसूस कर रहा हूं; न जाने क्यों उतना ही सॉण्ड्रा से भी कर रहा हूं. आदमी इधर का हो या उधर का. सम्वेदनायें मानवीय ही हैं. अलग जीवन शैली. अलग मूल्य. उसके नीचे आदमी आदमी ही है!
कहानी का इंतजार रहेगा. आज तो आप ने बीच में ही लटका दिया, अत: हम जैसे पाठकों को कोई "पुरस्कार" मिलना चाहिये !!
ये क्या हो रहा है जी। आप या तो फ्यूचर मोड में हैं या अतीत के मोड में।
वर्तमान की मौज भी लीजिये।
आप ऐसी सीरियस बातें करेंगे, तो तो हो लिया। आपकी इमेज खराब हो जायेगी।
कवि-कविनियों के धंधे पर लात नही ना मारिये।
वैसे मेरी बातों को सीरियसली लेने की जरुरत नहीं है, मैं खुद भी नहीं लेता।
आचार्य जी कुछेक वर्षों बाद भारत में भी राखी और रश्मि, सेन्ड्रा और स्टेफनी की तरह बाते करेंगी और हम गांव वालों को रुक्मणी माई की दारुण कथा को अपने दिल में ही जब्त कर लेना होगा ।
धन्यवाद
“आरंभ” संजीव का हिन्दी चिट्ठा
जिन्दगी के दो ध्रुव! :)
होता है.
यह पढ़ कर लगता है की हम तो हम ही भले, कभी अमेरीका या केनेडा नहीं बनना.
तौबा हम तो माँ-बाप पर ता-उम्र आश्रीत रहते है. उनसे किनारे कैसे कर सकते है?
वाह! समीर जी,आज तो आप ने ट्रेन की सैर करा दी। भारत और कनाडा का बहुत बढिया तुलनात्मक विशलेष्ण किया । आज एक नयी बात का भी पता चली कि आप "उड़नतशतरी" क्यों कहलाते हैं? जब ट्रेन में बैठे-बैठे ही कल्पनाओं की उड़ान भर लेते हैं तो यह नाम भी बिल्कुल सार्थक-सा लगता है। आज का लेख पढ़कर कनाडा के लोगों के रहन-सहन के बारे मे जानकारी मिली। धन्यवाद।
दोनों सभ्यताओं का अच्छा बिम्ब खींचा आपने.इस रेंग में भी जमे रहें.
समीर भाई, सांड्रा और स्टेफनी की अपनी एक अलग दुनिया है और शायद उसमें आपके लिए कोई जगह न हो, लेकिन यह सच है कि जाने-अनजाने वे दोनों आपकी दुनिया में शामिल हो चुकी हैं और इतनी आसानी से इससे बाहर नहीं जाएंगी। इसी से पता चलता है कि 'वसुधैव कुटुंबकम' कोई आरएसएस का नारा नहीं बल्कि हमारे सामाजिक और व्यक्तिगत अस्तित्व की बुनियाद है। भाई, रुक्मिणी माई की कथा लिखने वाले हिंदी में बहुतेरे हैं और आप भी जब चाहेंगे, थोड़ा प्रयास करके इसे लिख ही लेंगे। लेकिन मुझे लगता है, जिस समय और समाज में आप जी रहे हैं, उसके बारे में आप सबसे प्रामाणिक, सबसे अच्छा और सबसे रुचिकर लिख सकते हैं, और खासकर कनाडा में यह काम आपसे बेहतर दूसरा कौन कर पाएगा? सैकड़ों वर्षों से विदेशी लोग हिंदुस्तान के बारे में, यहां के लोगों के बारे में इतना सारा और इतना अच्छा लिखते आ रहे है। क्या अब समय नहीं आ गया है कि हिंदुस्तानी जन भी बाहरी दुनिया के बारे में कहीं ज्यादा आत्मीयता के साथ लिखकर अपनी भाषा को समृद्ध करें, साथ ही हो सके तो थोड़ा-बहुत उनका सभ्यतागत ऋण भी उतार दें?
गंभीर लेखन करके आ रहा हूं इसलिए अभी टिप्पणी के मूड में नहीं हूं.
समझ नहीं आ रहा कि अब क्या कहूँ! मैं भी विचार mode में हूँ!!
भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति की अनकही परंतु स्पष्ट तुलना! बहुत खूब!
क्या ख़ूब मिलाया है आपने भारत और कनाडा को ।
और एक बेहतरीन लेख।
समीर भाई आजकल फुल फॉर्म में हैं आप । बहुत मार्मिक । संवेदनशील ।
१. मैं चुप रहता हूँ, किसी से ट्रेन में ज्यादा बात नहीं करता.
भाइ ये बात तो हम पहले ही जानते ह,अगर वहा बतियाने मे लग गये तो टिपियाने जैसा जरूरी काम कौन करेगा..
२.एक दूसरे से सटे लिपटे बेपरवाह युगल, आधुनिक लिबास में कॉलेजे जाती लगभग अर्ध नग्न स्वछंद युवतियाँ,
अहा हा क्या सीन है भाइ यहा तो टेली विजन पर भी ऐसे सीन नजर बचा कर ही देख पाते है.
और भाइ अब कुछ नही कह सकता आपने आखिर मे हमारे टिपियाने के प्रोग्राम की हवा जो निकाल दी है..:)
'भारत के एक गाँव का दृष्य जीने का प्रयास करता हूँ. कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती बस, नंगे पैर खेलते बच्चे, सर पर गगरी रखे पनघट से लौटती पल्ले से सर ढ़ांपे लजाती स्त्रियाँ, खेत में हल चलाते पसीने में सारोबार किसान, तालाब में नहाती भैंस---'
समीर जी, अब तो गाँव अपना स्वावभाविक स्वरूप खो रहे है। गुटखा और शीतल पेयो से गाँव भरे पडे है। युवा शहर चले गये है। केवल बुजुर्ग है क्योकि वे नही जाना चाहते। परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। डर है कन्ही गाँव भी कल्पनाओ तक न रह जाये।
badee azeeb sanskriti hai.lekin ham janboojhkar usee chamak damak ke peechee badhavaas hokar usee tarah bhag rahe hain jaise koee bachha thalee me rake paani me chand ko pakadne kee koshsish karta hai.
बहुत खूब समीर भाई!
एक बेहतरीण सात्यिक रचना। हास्य और कविताओं के बाद जब भी आप संवेदनात्मक लिखते हैं तो पढ़ने वाले को आवाक छोड़ देते हैं फिर चाहे वो घर में पल रही चिड़िया के बारे में हो, भेड़चाल में अपनी स्पीड संभालने के बारे में हो या निजी संबंधों पर इस तरह की रचना। जो कुछ भी आप लिखते हैं कभी कभी उससे ज्यादा अंदर वो सब चोट करता है जो आप नहीं लिखते पर कह रहे होते हैं।
एक जीवंत चित्रण पढ़ कर अच्छा लगा सर...
वाह ! क्या खाका खींचा है आपने रुक्मणी माई व पाश्चात्य सभ्यता का ! दोनों सभ्यताओं में कुछ अच्छा व कुछ बुरा है । हमें तो बस दोनों में से मोती आत्मसात् करने हैं और बांकी को छोड़ देना
है ।
घुघूती बासूती
क्या मेल है सभ्यताओं का।
रुक्मणी माई के किस्से याद करने की कोशिश कर रहा हूँ. बिम्ब नहीं खींच रहे. कथा सूत्र याद ही नहीं आ रहे. थोड़ा असहज होने लगता हूँ.
कितु आपने अच्छा बिंब खींचा हम पाठकों के लिए। वैसा तो आप अच्छा लिखते ही हैं, ऐसा और अच्छा लिखते हैं।
सम्बन्धों को निभाने में उन्हें जोडे रखने में और भावनातत्मक रुप से
एक-दूसरे का साथ देने में यानि हर स्वरुप में हम श्रेष्ठ है ।आधुनिक
सभ्यता की दुहाई देकर हम बच्चों को बालिग होने पर अलग होने का
पाठ नहीं पढाते अपितु ताउम्र सम्बन्धों को निभाने की सीख देते है ।
यही विशेषता है हमारी और हमारी संस्कृति की जो पूरे विश्व में एक
अलग पहचान बनाती है हमारी ।
अक्सर ऐसा हो जाता है
जीवन के पथ पर चलने में
कुछ आगे फिर पीछे आता
एक दृश्य जो रहा आज का
बीता कल जीवित कर जाता
चलती फिरती कुछ घटनायें
आईना जो दिखला जाती
उसमें के बनते बिम्बों से
मैं अक्सर ही छुप रहता हूँ
और न संभव लगा टिप्पणी
करूँ आपके इस लेखन पर
इसीलिये अब चुप रहता हूँ
जी मैं अक्सर चुप रहता हूँ
Main kabhie kuchh 'gambheer' nahin likhta...Isliye tippani kar raha huun..
Zabardast lekh..Agar Rukmini mai ko yaad karke kisi aur ki yaad aa sakti hai..lekin Sandra kee baaton mein kisi aur ko khojane kee zaroorat nahin...Humamein se bahut saare Sandra kee baaton se khud ko jod sakte hain...Koi kathin baat nahin..
क्या लिखूं . जो कुछ लिखना था वह सब ज्ञान जी और भाई चंद्रभूषण पहले ही लिख चुके हैं .
मैं बस खुले दिल से आपको साधुवाद देना चाहता हूं इस बेहतरीन पोस्ट के लिए . आप बिल्कुल वैसा लिख रहे हैं जैसा मेरा मन चाहता था . सब शिकायतें दूर कर दीं आपने तो .
यह तो आपकी बहुत ही उची उदान है आपकी आप ने तो दो देशो भारत व कनाडा
समीर भाई,
बस मजा आ गया पढ़कर…।
कल्पना की उड़ान तो साथ में साथी का साथ…।
आज पढ़ा इसे। बहुत अच्छा लिखा। संवेदनाऒं के ये रूप हैं। जो समाज के हिसाब से अलग-अलग हैं। यह तो लंबी कहानी और छोटे उपन्यास का विषय है।
बहुत आत्मीय चित्रण और उतना ही अच्छा लगा आपका यह संस्समरण....
अगले किस्त का इंतजार रहेगा...
बहुत अच्छा लिखा है, पहले की तरह। न्यू जर्सी आए थे क्या?
समीर लाल जी
वाकई जबरदस्त कहानी है, देश-प्रदेश, समय-काल और हालत में बदलाव तो होते हैं पर आदमी को जिन्दा रहने के लिये यहाँ भी और
वहाँ भी संघर्ष करना होता है, यही संदेश है जो इस कहानी से मिलता है। विदेशों के
सपने देखने वाले इसे पढें। मैं लेखक के नाते नहीं पाठक के नाते लिख रहा
हूँ मुझे ऐसे कहानियाँ कभी नहीं भूल्ती -जैसे नमक का दरोगा, बडे घर की बेटी। मैं लेखक से भविष्य में भी ऐसी कहानियों की आशा करूँगा
आज सुबह आपकी यह रचना पढ़ी ..और यह महसूस किया की इन दिनों समीर ज़ी आप को
शिद्दत से अपने देश की मिट्टी की याद आ रही है :) बहुत ही प्रभावशाली ढंग से
आपने दोनो देश की सभ्यता का खाका खींच दिया... बहुत संवेदनशील ...जुड़ाव दोनो के साथ महसूस किया
अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा ....:)
समीर जी.. अपनी परम्परागत शैली से हटकर एक उम्दा लेखन की जो छवि आपने खीची है..उसके लिये द्ण्ड्वत प्रणाम करता हूँ...आपके दिल का एक ऐसा पहलू देखने को आज मिला है जिसे आपने कबसे छिपा कर और किस दिन के लिये रखा है..कुछ पता नही..हम रुक्मणी माई और सॉण्ड्रा पात्रो को एक साथ जी रहे है..मेरा आग्रह है आपसे कि आपका ऐसा लेखन भी हमे आगे भी पढने को मिलता रहे..बेहद कन्टेम्परेरी..
bahut acche.. shilp bhee ..
पहली बार किसी ब्लोग पर व्रतान्त पड कर इतना
बन्धा हू नही तो मे बीच मे ही पलायन कर जाता था, आपकी भासा शैली मे आकर्सन है जो पडने वाले को रोक के रखती है, मै भी रुका हुआ हू और इन्तजार कर रहा हू आगे की कहानी का...
समीर जी बहुत-बहुत बधाई, बहुत अच्छा खाका खींचा है आपने दोनों सभ्यताओं का,पूरा संस्मरण संवेदनाओं से ओत-प्रोत है,दिल के किसी कोने में कुछ टूटता सा कुछ छूटता सा महसूस होता है...
आगे भी तो चलिए भाया !:)
रुक्मिणी माई जैसी हस्तियों से ही तो भारत भारत बना है। चीजों को बड़ी बारीकी से पकड़ा है आपने। अच्छा लिखा है। बधाई।
समीरजी अच्छा लगा .वृतांत भी और आपका के व्यक्तिव का यह पहलू भी
sachmuch bahut yatharthvaadii avlokan.bahut achchhaa lekh. do jiivan-shailiyon kii rail-yaatraa me marmsprshii padtaal aap hii kar sakte the. badhaaii.....
इतना जबरदस्त साथ देख कर मन खुश हुआ जाता है. ईश्वर से कामना है यह बना रहे.
सभी मित्रों का हौसला बढ़ाने के लिये बहुत बहुत आभार.
इसी तरह स्नेह बनाये रखें. बहुत आभार.
पढी़ थी काफी पहले पर टिप्पणी नहीं कर पाई । बहुत ही बढि़या लिखा .. और प्रासंगिक भी । आज के समय मे हिन्दी में ऐसे लेखन की आवश्यकता है जो आज के संदर्भ में हो ।
-सीमा कुमार
बहुत अच्छा वर्णन किया है आपने. यह भी आईना दिखा गए आप की हम अपने माँ-बाप, सगे-संबंधी, दोस्त-मित्रों को कितना "for granted" लेते जिन्दगी भर नहीं थकते हैं.
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