समस्त युग पुरुष, जैसे कि फुरसतिया जी तटस्थता पर लिख चुके और नितिन बागला जी पूछ चुके. अरुण(पंगेबाज) दिनकर जी की इन पंक्तियों में नहा कर डूब चुके.
"समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।"
और ऐसे ही कभी परसाई जी ने हम भारतीयों के बारे में कहा था कि हममें अदभुत सहनशीलता है और साथ ही बड़ी भयावह तटस्थता. कोई हमारे पैसे छीन कर भाग जाये और हम तुरंत दान का मंत्र जपने लगते हैं. मैं परसाई जी की आत्मा से क्षमा मांगते हुए उनसे पूर्णतः सहमत न होने की गुस्ताखी कर रहा हूँ. शायद उनकी बात काफी भारतीयों पर सही उतरे मगर हम पर तो नहीं.
(एक अपवाद है जरुर, कि जब किसी पंगे में दोनों तरफ हमसे भारी बजरंगी होते हैं, तब भी हम मजबूरीवश सहनशील और तटस्थ हो जाते हैं. इसे समझदारी समझा जाये, कायरता नहीं. ऐसे वक्त हम दान मंत्र नहीं जपते तद्यपि जपने का ढोंग जरुर करते हैं)
हमारी सहनशीलता सिर्फ अदभुत ही नहीं बल्कि धार्मिक भी है. शायद इसी से हमारी सहनशीलता को देख, हमें जानने वाले और हमारा परिवार खीझ उठता है. हर विषय में धार्मिकता के साथ इस तरह की बातें स्वभाविक हैं. हमने अक्सर बहूओं को सास की पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों पर खीझते देखा है. यह कोई नई या अनोखी बात नहीं. धार्मिक सहनशीलता एक जीवन शैली है, जिसके दो अलग अलग चरित्र एवं पहलू होते हैं. घर में कुछ और व बाहर कुछ और. बहुत घोर धार्मिक महापुरुष देखे, जिन्होंने न जाने कितनी सड़कों पर, रेल्वे की जमीन पर और सार्वजनिक स्थलों पर मंदिर/मजार बना डाले और उनके हटाये जाने पर आंदोलन किये और जेल भी गये. बात मरने/मारने पर आ जाती है. मगर जरा उनसे पूछ कर देखियेगा कि जनता की सुविधा के लिये उनके अहाते में उनकी जमीन पर एक मंदिर/मजार बनवा दें क्या!! सब धार्मिकता एक मिनट में दर किनार हो जायेगी. वो सार्वजनिक धार्मिक हैं, परिवारिक नहीं. वैसी ही धार्मिक सहनशीलता के हम अनुयायी हैं. जब तक हमारी सहनशीलता हमारा व्यक्तिगत नुकसान नहीं करती, हम सहनशील हैं. दूसरा प्रताड़ित होता रहे, हम सहनशील रहेंगे और हर सहनशील व्यक्ति का मूक समर्थन करते रहेंगे.
रही तटस्थता की बात, तो वह हमारी भयावह इसलिये है क्यूँकि उसका आधार पौराणिक है.पौराणिक बातों का इच्छानुसार और समयानुकुल अर्थ निकाला जा सकता है अपनी सुभीता का आंकलन करते हुये. पौराणिकता के कवच में सब अर्थ जायज हो जाते हैं. बस, उसका एक बेहतरीन तार्किक आधार तलाशना होता है. तलाशने से तो कारु का खज़ाना हासिल हो जाता है तो तार्किक आधार की क्या मजाल. इस तरह की कवची अवधारणाओं से तो खुदा भी डरता है कि कब न इंसान अर्थ का अनर्थ कर उसे ही पंचायती चौपाल में खड़ा कर ले. इसीलिये भयावह है. पौराणिकता एक आत्म विश्वास देती हैं और अपने अनुरुप उनके अर्थ को सिद्ध करना एक सम्मानजनक और प्रतिष्ठित स्थिती प्राप्त करता है.
इस धार्मिक सहनशीलता और पौराणिक तटस्था के बीच संतुलन बनाये रखने का हमारा सिद्धांत भारतीय सड़कों पर गढ्ढों से बच कर चलने के सिंद्धांत जैसा है जो कि हर पल बदलता रहता है और जिसके आप कभी अभ्यस्थ नहीं हो सकते, जब तक की भारत सरकार गढ्ढों की गारंटी लेना न शुरु कर दे. अरे बिना गारंटी के, आज जहाँ गढ्ढा है, कल भी वहीं रहेगा, कोई जरुरी नहीं. क्या अभ्यास करें खाक!! इस गढ्ढे को भरने के लिए सड़क पर उससे बड़ा गढ्ढा बना देते हैं.किस को छोड़ें- किस को लांघे. हमसे तो बेहतर शराबी हैं. जितना बड़ा गढ्ढा नहीं, उससे लंबी कुद. क्या पता कितना लंबा गढ्ढा हो. शराबियों का त्रितीय नेत्र खुल जाता है. वो सजग होते हैं. इसीलिये मैं उनका नमन करता हूँ और कायल हूँ. वो सामान्य नहीं होते. वो प्रेरणापरक जीव होते हैं. वो साधुवाद के असली अधिकारी हैं. हर कदम संभल कर उठाते हैं. काश, सब इंसान शराबी होते, तब काहे का पंगा. सब संभले होते. सब संभल संभल कर चलते गढ्ढे बचाते हुए. यह संतुलन का सिद्धांत परिस्थिती जन्य होता है. जैसी स्थितियां दिखीं, वैसी ही संतुलन की कवायत.
परसाई जी की यह बात सही है कि कोई हमारे पैसे छीन कर भाग जाये तब ऐसी स्थिती में हम दान मंत्र जपने लगते हैं. मगर आंख बंद करके नहीं. एक आँख खुली रख कर मंत्र जपना हमने सीख लिया है. यह एक कला है. हम मंत्र जपते हुए भी सब देखते हैं. जानते हैं कि क्या चल रहा है. उसी एक आँख से देखते रहते हैं.
हमारी इन सब स्थितियों से उपजा, जन हित में जारी, सूत्र जिसे आप कुछ दिनों में हर बस पर, चौराहे पर, संसद में, जेल में टंगा पायेंगे. बस मार्केटिंग का बंदा तलाशा जा रहा है, जब योग मार्केटिंग के बल पर विश्व स्तर पर बेच दिया गया तो हम तो मुफ्त दे रहे हैं:
"धार्मिक सहनशीलता और पौराणिक तटस्थता ही एक अति-सफल राजनीतिक जीवन की कुँजी है." -स्वामी समीरानन्द
सूचना: "जो भी राजनितज्ञ इस सूत्र से अभिभूत हो स्वामी समीरानन्द जी के श्रीचरणों के दर्शन को लालायित हों, कृप्या संपर्क करें."
अब देखो, जब कोई हमारे पैसे छीन कर भाग और हम एक आँख बंद किये दान मंत्र का जाप कर रहे थे तब क्या दिखा इस बाईं आँख से और सुनो इस धार्मिक सहनशील और पौराणिक तटस्थ आदमी को. :
मन ही मन में वो हँसता है,
पर आँख में आसूं रखता है
जिसको तुम नेता कहते हो
दिन रात तिजोरी भरता है.
पांच साल में दिखता है
हाथ जोड़ वो झुकता है
वोट तुम्हारा मिल जाये
वादों पर वादा करता है
उसका कोई ईमान नहीं
वादों का सम्मान नहीं
एक बार उसे जितवा देना
फिर तेरा कोई ध्यान नहीं.
बस भाई भतीजा वाद यहाँ
नहीं भ्रष्टाचार अपराध जहाँ
बैठे हैं छिप कर खद्दर में
गाँधी की इनको याद कहाँ.
इनका बस एक ही मकसद है
कुर्सी हथियाने की कसरत है
मंदिर मज्जिद अब तुम जानों
इनको तो पद की हसरत है.
-समीर लाल 'समीर'
नोट: इस आलेख में इस्तेमाल 'हम' और 'हमारा/हमारी' शब्द का अर्थ हम नहीं है, यह प्रतिकात्मक है. इस अवधारणा में विश्वास रखने वाले समस्त श्रृद्धालु इसे स्वयं का द्योतक मान सकते हैं. यह कोई नई बात नहीं है, अक्सर वैदिक ऋचाओ मे इस तरह के कुछ शब्दो का प्रतिकात्मक प्रयोग हुआ है.
गुरुवार, मई 03, 2007
धार्मिक सहनशीलता और पौराणिक तटस्थता
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21 टिप्पणियां:
संमीरा(बालीवुड की समीरा नही) नन्द महाराज जी को वंदन,आपकी कविता का जवाब नही ,मजा आ गया
"धार्मिक सहनशीलता और पौराणिक तटस्था ही एक अति-सफल राजनीतिक जीवन की कुँजी है." -स्वामी समीरानन्द
महाराज आपके प्रवचन की यहा पूरी तैयारी हो चुकी है लेकिन आप अपना वादा भुल रहे है आपने अपने तमाम आडियो विडिओ तथा पब्लिश की जाने वाली सामग्री के समस्त अधिकार (कापीराईट )आप हमे
दे चुके है अब आप आगे से अपने लेख उडन तशतरी जी को ना देकर पंगेबाज पर ही दे इससे आश्रम को हानि हो रही है प्रेम से बोलो समीरानन्द महाराज की जैय
" जब तक हमारी सहनशीलता हमारा व्यक्तिगत नुकसान नहीं करती, हम सहनशील हैं. दूसरा प्रताड़ित होता रहे, हम सहनशील रहेंगे और हर सहनशील व्यक्ति का मूक समर्थन करते रहेंगे."
बहुत खूब!!
है मुनिवर,
आपके प्रवचन को सुनकर मैं प्रेरित हो रहा हुँ. वैसे ही आपने मुझे हद से ज्यादा प्रेरित कर रखा है, अब तो सागर छलकने लगा है. मुझे डर है कि कहीं मैं ज्वार भाटा के चक्कर में ना पड जाऊँ.
बहुत सही खबर ली है, मान्यवर. ऐसे ही लेते रहें.
आपकी लेखनी में धार आ रही है. साधुवाद. :)
अंत में मेरी चार लाइने:
नेता और अभिनेता एक,
अन्दर कुछ, कुछ और बाहर,
मकसद और मतलब भी एक,
कर अभिनय और भर रूपयों का सागर.
सुन्दर लेख है.. सब कुछ कह कर भी तटस्थता नहीं छोड़ी..धन्य हैं आप(मतलब हम, प्रतीक रूप में कह रहा हूँ)..
आपके सूत्र में तटस्थता की जगह तटस्था हो गया है.. बाकी सब मस्त है..
आप धार्मिक सहनशील हैं या पौराणिक तट्स्थ बात समझ नहीं आयी.
वैसे बात पते की है..
वाह वाह समीर जी, बढिया लिखा है आप ने..तटस्था को ले कर.. और नेता ..
"आदमी तो नेता बन सकता है मगर नेता आदमी कभी नहीं"
भला हम (मै) आप से अलग हो सकते है....... वैसे भी जहां रिस्क दिखे हम कहना ज्यादा उचित रहता है.. बेभाव की पडे तो डिवीजन का फ़ायदा होता है... ही ही ही...
मगर जरा उनसे पूछ कर देखियेगा कि जनता की सुविधा के लिये उनके अहाते में उनकी जमीन पर एक मंदिर/मजार बनवा दें क्या!! सब धार्मिकता एक मिनट में दर किनार हो जायेगी...
बहुत बढ़िया समीर जी....वैसे,इन दिनों आदमी मजबूरी में ही धार्मिक और तटस्थ होता है
अभय भाई
बहुत आभार. भूल सुधार कर ली गई है. :)
हम तटस्थ होकर कहते हैं, 'स्वामी समीरानंद जी की जय हो।' मानव जाति ही नहीं, हमारी बिल्ली 'कीका' तक स्वामी जी के दीदार के लिए बेज़ार हैं। कहती है कि --- चलो यह कहानी फिर कभी!
समीर भाई, मजा आ गया पढ़ने में - बड़ी गहराई डुबकी लगाई है।
मिला ज्ञान हमको, न होंगें हम अब पक्षाधार
हैं तटस्थ हम, नहीं करेंगें टिप्पणियां इस बार
सहनशील हो, अब खेलेंगे राजनीति के खेल
आप देखिये धार तेल की, हम देखेंगे तेल
करते रहिए बंधुवर कोशिश।।
आप तो खूब तटस्थ रहेंगे पर म्रित्र जमाना रहने नहीं देगा। एकाध वोट तो अब आपको खोना ही पड़ेगा।
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अच्छा लिखा है, इससे कम स कम अगले फड्डे तक आपको तटस्थ रहने की सुविधा मिल गई है। पर फिर सूरज निकलेगा फिर उजला होगा। :)
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इस टिप्पणी में आप को आप न समझा जाए - ये तो केवल प्रतीकात्मक है।
योग मार्केटिंग के बल पर विश्व स्तर पर बेच दिया गया तो हम तो मुफ्त दे रहे हैं:
मुफ्त मे मिलना संशय को जन्म देता है !
बिना लिए कुछ ना दें । आपको स्वामी जी से परामर्श करना चाहिए :)
क्या टिप्पणी करें? तटस्थता को प्राप्त करने की कोशिश में है. संतुलन शब्दो में भी रखना चाहते है.
यह क्या अनर्गल लिख रहा हूँ? जाने दे. सिधा सरल कहूँ तो पढ़ कर मजा आया.
Thanks for you work and have a good weekend
उत्तम! अति उत्तम!!
भाई इतना दिमाग मत खर्च करवाएँ । इतनी गूढ़ता से अपनी बात रखिएगा तो जो थोड़ा मोड़ा बचा है वो भी खाली हो जाएगा :)
सदा की तरह बहुत बढ़िया लिखा है । मजा आ गया ।
घुघूती बासूती
ओ उड़न खटोले वाले राही ..... लेख और कविता का बेजोड़ मिश्रण है भाई आपकी कलम में ... कब तक बने रहेंगे हम मौन्दर्शी तटस्थअ के नाम पर अपने भय को छुपकर ॥ हास्य के चटकारे व्यंग और ताने क्या नही है आपके लेख में...
आपका पंखा - सजीव सारथी
:)bahut bahut khoob ....:)
"धार्मिक सहनशीलता और पौराणिक तटस्थता ही एक अति-सफल राजनीतिक जीवन की कुँजी है."
बहुत खूब दर्शन है। वैसे हम तटस्थ नहीं हैं आपके ही पक्ष में हैं।
आप सबका बहुत आभार .पढ़ते रहें पढ़ाते रहें. आते रहें, बुलाते रहें. धन्यवाद, मन आनन्दित है आप सबकी टिप्पणियां पाकर.
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