बफैलो कवि सम्मेलन मे जो हमने पढ़ा और जो अब तक मेरे इस चिठ्ठे मे नही है, वो यहां पेश है. इसके अलावा आफिस कुंडलियां, दुविधा वाली कुंडलियां और प्रेम गाथा भी पढ़ी गई, जो कि यहां पूर्व प्रकाशित हैं:
कुंडलियां
॥१॥ //यह आशिष फुरसतिया जी दिये थे, चेट पर//
पाये खुब आशिष, जब हम इधर को घुमे
सफलता तेरे चरण नही, चेहरा भी चुमे.
चेहरा भी चुमे? वो अब दलित है भाई
आरक्षण लग गया, जब से पत्नि है आई.
कहे समीर कि अब बस इतना मिल जाये
हर कविता जो कहूँ वो तेरी दाद ही पाये.
॥२॥
डरते डरते हम आये हैं, कविता पढ़ने आज
ताली जो तुम पीट दो, खुश हो लें कविराज
खुश हो लें कविराज क्या कोई गीत सुनायें
या फिर इक वो गज़ल जो तेरे मन को भाये
कहे समीर कि चलो अब हम कविता हैं पढ़ते
भाग ना जायें लोग बस इतनी सी बात से डरते.
कविता मे:
नेता जी बहुत महान हैं
नेता जी बहुत महान हैं
समाज सेवा बस काम है.
वो जो जेल देखते हो,
जहाँ जाना भी हराम है.
ना जाने कितने कैदी,
इनके भाई के समान हैं.
अंदर ही सारे इंतजाम हैं,
नेता जी बहुत महान हैं
कल तक जहाँ झोपडी थी,
आज कितना खुला मैदान है.
और उस पर बना इनका होटल
इस शहर की शान है.
बार बालाओं को इतमिनान है
नेता जी बहुत महान हैं
इस अनाथालय को देखिये,
रुपये की तो बात ही क्या.
कुछ अदद बच्चे भी यहाँ
इन्ही का गुप्त दान हैं.
इनके बहुतेरे अहसान हैं,
नेता जी बहुत महान हैं
वो जो भीड़ देखते हो,
भक्तों की कतार है.
नेता जी का बंगला नही,
लगता है तीरथ धाम है.
आप भगवान के समान हैं,
नेता जी बहुत महान हैं
--समीर लाल 'समीर'
गीत मे: इस पर आपका खास ध्यान चाहूँगा:
आदमी की सोच
आदमी की सोच मे फिर से कमी हो जायेगी
वक्त के इस साथ चलते, मतलबी हो जायेगी.
देखता हूँ बैठ कर मै इस चिता पर कब्रगाह
छोड दो इस बात को, ये मजहबी हो जायेगी.
अपने आंसू पोंछ कर तू चल नदी के पार तक
जिंदगी अपनी ज़मीं पर,फिर सुखी हो जायेगी.
जान की बाजी लगाते देश की जो आन पर
डर तो ये है एक दिन, उनकी कमी हो जायेगी.
रो रहा हूँ देख कर सूखे हुये उस ताल को
आंसूओं की धार से, कुछ तो नमीं हो जायेगी.
वोट की खातिर दलित की आज़ उसने थाह ली
कितने अरमानों की फिर अब, खुदकुशी हो जायेगी.
-समीर लाल 'समीर'
एक दोहा:
लेक ऎरी की तीर पर, भई कविजन की भीड़
रचना अब कोई और लिखे, तबहिं पढ़ें समीर.
गुरुवार, सितंबर 28, 2006
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12 टिप्पणियां:
अच्छा तो सारा लफड़ा हमारे आशीर्वाद का था.इसीलिये आप इतना शानदार काव्यपाठ किये कि जम गये.बधाई.
लेखनी की इस विद्या को जो बनाया अपना करम है,
सफलता के क्षितिज की ओर अब आपके कदम हैं,
विचारों का आन्दोलन कर दे ऐसी "समीर" कलम है,
बस युँही लिखते रहें, आपको हमारी कसम है।
समीर जी,
आपकी कुण्डलियां हमेशा ही बेहतरीन होती है।
आदमी की सोच कविता की जितनी तारीफ करें कम है।बधाई।
अपन को तो नेताजी भा गए और
तबियत हरी हो गई.
कवि सम्मेलन न जा पाने की
कमी पुरी हो गई.
कितनी अच्छी बात है श्री समीर कविराज
पढ़ा आपको लिख रहा हर कोई कविता आज
हर कोई कविता आज लिखा पंकज ने मुक्तक
फिर संजय की कलम भला चुप रहती कब तक
बाकी पूरी कमीं करें लिख लिख कर रत्ना
फ़ुरसतिया का दिया हुआ आशीष है कितना
बहुत सुंदर सृजना है। सबसे बाँटने के लिए धन्यवाद।
-प्रेमलता
मे - में
नही - नहीं
यहां - यहाँ
कुंडलियां - कुंडलियाँ
खुब - खूब, ख़ूब
आशिष - आशीष
चेट - चैट
घुमे - घूमे
चुमे - चूमे
पत्नि - पत्नी
गज़ल - ग़ज़ल
झोपडी - झोंपड़ी
इन्ही - इन्हीं
(संदर्भ - मीन-मेख अभियान)
देखता हूँ बैठ कर मै इस चिता पर कब्रगाह
छोड दो इस बात को, ये मजहबी हो जायेगी.
बड़ी बात ही है आपने इस शेर में.. खूब पसंद आई यह ग़ज़ल. धन्यवाद समीर भाई.
ग़ज़ल बड़ी ख़ूबसूरत है।
इरशाद इरशाद
रो रहा हूँ देख कर सूखे हुये उस ताल को
आंसूओं की धार से, कुछ तो नमीं हो जायेगी.
वोट की खातिर दलित की आज़ उसने थाह ली
कितने अरमानों की फिर अब, खुदकुशी हो जायेगी.
वाह जनाब ! बहुत खूब लगे ये शेर ।
बढ़िया ग़ज़ल है, समीर जी। लिखा भी अच्छा है।
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