मौत से आज दिल्लगी हो गई
जिन्दगी फ़िर अज़नबी हो गई.
दोस्तों से करता रहा शिकवा
दुश्मनों से यूँ दोस्ती हो गई.
गैर का हाथ थाम कर निकला
वफ़ा की क्यूँ उम्मीद खो गई.
रेहन मे हर इक साँस दे आया
जिन्दगी भी यूँ उधार हो गई.
रात भर आसमान तकता रहा
चांदनी भी थक कर सो गई.
--समीर लाल 'समीर'
बुधवार, मई 24, 2006
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7 टिप्पणियां:
मौत से आज दिल्लगी हो गई
जिन्दगी फ़िर अज़नबी हो गई
क्या बात कही है समीर जी।
बहुत सुंदर, क्या बात है भई। छा गये हैं आप।
सच कहुँ, कोई पुस्तक लिखीए ना! सबसे पहले मैं खरीदुंगा. आप उपहार दें दें तो और भी अच्छा हो. :-)
बहुत अच्छी हैं समीर भाई
पंकज भाइ,
सबसे पहले कुण्डलियाँ पर पुस्तक लिखने का सुझाव मैने दिया हे सो सबसे पहले उपहार मुझे मिलेगा। हे ना समीर भाई?
वाह जी वाह क्या खुब लिखा हैं, मज़ा आ गया. मौके-बे मौके एक आद पंक्ति उद्धृत करने कि अनुमति दे.
कौन चाहता था कि बने कवि,
बयां-ए-जिन्दगी कविता हो गयी.
बहुत सुन्दर लिख रहे हो समीर भाई. निरंतर निखार आ रहा है
अब के सावन बिछड़ गया मुझसे
एक बदली थी आई औ' रो गई
वैसे तो पूरी गजल अच्छी है पर पहला शेर जबरदस्त लगा!
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