रविवार, अप्रैल 30, 2017

जब कान में जूँ महज रेंगी नहीं..सरपट भागी



कान में जूँ का रेंगना भी अजब सी घटना है. जाने किस बात पर रेंग जाये और जाने किस बात पर न रेंगे. इसका बात की बड़ी या छोटी होने से कुछ लेना देना नहीं है.
मंचों और माईकों से भाषण से लेकर प्रवचन तक सब दिये गये कि भ्रष्टाचार मिटाओ. समझाया गया कि आप जब रिश्वत दोगे नहीं, तो कोई लेगा कैसे? मगर किसी की कान में जूँ तक नहीं रेंगी.
और वहीं एक सेलीब्रेटी घर बैठे १४० से भी कम शब्दों में ट्वीट करता है कि अज़ान की आवाज से उसकी नींद में खलल पड़ता है तो पूरा देश टूट पड़ता है. जूँ रेंगने के बदले दौड़ पड़ती है सरपट सबके कानों में. कोई सेलिब्रेटी के साथ तो कोई विरोध में.
१४० शब्दों के ट्वीट ने ऐसा हंगामा मचाया कि बात बत न रही..वह हिन्दु मुसलमान हो गई. यही आजकल हर बात का चरम है. एक तरफ मंदिर की आरती, जगराता, गणपति विसर्जन का हंगामा मुद्दा बनने लगा तो दूसरे तरफ लाऊड स्पीकर पर दी जाने वाली अज़ान.
एक बात जरुर है ऐसे आड़े वक्तों में मीडिया अपनी यूजवल जलाई बुझाई के साथ साथ आपको विषय विशेष में ज्ञानी ही नहीं विशेषज्ञ बना डालता है.
लगातार कार्यक्रम चला रहा है कि अज़ान क्या होती है? कौन सी दिशा में देखकर कौन सी पंक्ति पढ़ी जाती है? हर पंक्ति का क्या अर्थ होता है? कितनी देर की होती है? कितनी बार होती है? अज़ान लगाने वाला मुअज्जिन कहलाता है. अज़ान अरबी शब्द उज्न से बना है.  डेसिबल क्या होता है? कितने डेसिबल तक लाउड स्पीकर कोर्ट के आदेश के मुताबिक बजा सकते हैं? एडीसन कौन था? वो १८४७ में पैदा हुआ था. ईस्लाम उसके पहले से है तो कुरान में तो लाउड स्पीकर का जिक्र आ ही नहीं सकता और न जाने क्या क्या...
कभी जयललिता भर्ती हुई थीं तब उनके इतिहास से लेकर पूरी मेडिकल साईंस पढ़ा डाली थी, तो कभी मंगलयान के साथ पूरा अंतरीक्ष ज्ञान तो कभी भूकंप आने पर एपिक सेन्टर से लेकर रेक्टर स्केल और मेग्नीट्यूड का ज्ञान. मीडिया महान है..अपने आप में एक विश्व विध्यालय है.
हमारे जमाने में तो ये इतने जागृत न थे मगर इतना सब कालेज में अगर कोई पढ़ा देता तो आज हम कहीं किसी शहर के कलेक्टर होते.
ऐसे ही सीख सीख कर दिमाग ओवरलोड हो लिया है. कभी कभी तो पान ठेले की तर्ज पर टीवी पर बोर्ड टांग देने का मन करता है: कृप्या यहाँ ज्ञान न बांटे, यहाँ सभी ज्ञानी हैं.
धन्य हैं कि अभी वो स्तर नहीं हुआ है कि उस लेयर पर पढ़ाया जाये जहाँ नींद में खलल के क्या क्या कारण हो सकते हैं और इससे स्वास्थय पर क्या प्रभाव पड़ता है. अहसान ही कहलाया दर्शकों पर.
वरना इनका क्या- कह देते हवाई जहाज इतने बजे से इतने बजे न उड़ाया जाये, उससे इतने डेसिबल का साउन्ड उठता है और कम्पन के रेडीयेशन का हार्ट पर इतना असर पड़ता है. मुद्दा चाहिये बस्स!!
कहने लगेंगे कि एक एंटी रोमियों स्क्वॉयड की तर्ज पर एंटी मुर्गा स्कवॉयड बनाई जाना चाहिये. जो भी मुर्गा सुबह सुबह बांग लगा कर नींद में खलल डालेगा, उसे इस एंटी मुर्गा स्कवॉयड के स्वयंसेवक मुर्गा बना कर सजा देंगे.
कोई ज्ञानी प्रश्न उठायेगा कि वो तो पहले से ही मुर्गा है, उसको क्या मुर्गा बनाओगे?
जबाब तो सब जानते हैं, दारु के साथ जो मुर्गा खाया जाता है वो भी तो मुर्गे से ही बनता है..तब काहे नहीं पूछते हो कि मुर्गे को क्या मुर्गा बनाओगे?
खैर दहशत कहो या विकास या शहरीकरण!! मुर्गा जमाने से मौन है..
सच सच बताना कि मुर्गे की बांग आखिरी बार कब सुनी थी सुबह सुबह!!
१९८५ के बाद जन्में बच्चे इस प्रश्न के दायरे के बाहर रखे जा रहे हैं..उनको तो शायद कोयल की कूंक और मुर्गे की बांग का अन्तर भी न पता हो..तब तक देश उस तरक्की की राह पर चल पड़ा था..जिस पर आजतक चलता ही चला जा रहा है...न जाने कहाँ पहुँचने को..

-समीर लाल ’समीर’

अप्रेल ३०, २०१७ के भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में प्रकाशित
http://epaper.subahsavere.news/c/18697532


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शनिवार, अप्रैल 29, 2017

जैसे हवाई चप्पल के दिन बहुरे, वैसे सबके बहुरें!!


हवाई चप्पल वालों के लिए हवाई यात्रा की घोषणा कर साहेब ने यह तो कर दिखाया कि अच्छे दिन वाली बात पूरी तरह से हवाई किला नहीं थी, एकाध कमरे असली भी बन रहे हैं.
अब बताईये कुतर्की ऐसा कह रहे हैं कि भले वो बंदा एयरपोर्ट तक आने के लिए टैक्सी का किराया न भर पाये मगर हवाई यात्रा की कीमत इतनी लुभावनी कि एक रात पहले ही घर से हवाई चप्पल पहने पैदल निकल ले.
घोषणाओं और उससे जुड़े नियमों के नित बदलाव के पुराने अनुभव ऐसे रहे हैं कि हो सकता है कि कल जब आप हवाई चप्पल पहने शिमला जाने के हवाई सपने सजाये हवाई अड्डे पहुँचे तब तक कोई नया नियम आ चुका हो, मसलन:
  • सिर्फ हवानी कम्पनी की हवाई चप्पल ही हवाई यात्रा के लिए मान्य है.
  • केवल भीम एप से खरीदी गई चप्प्लें ही मान्य हैं.
  • तीन महीने से ज्यादा पुरानी चप्पलें वैध्य नहीं हैं? कृप्या उनका रिन्यूवल करा कर वापस आवें.
  • सिर्फ हवानी कम्पनी की हवाई चप्पल में चीप लगी है, जिससे आपको अपना आधार कार्ड अटैच करना होगा, अन्यथा आप यात्रा नहीं कर सकते.
  • कृप्या ध्यान रखें कि यह हवाई चप्पले पहनने के लिए नहीं हैं. इसे आप सिक्यूरीटी चैक पर अपने पहचान पत्र, आधार कार्ड के साथ तल्ला उपर की तरफ करके दिखायें. सिक्यूरीटी को जरा भी डाऊट होने पर कि यह चप्पल आपने कभी पहनी हैं, वो आपको यात्रा करने से रोक सकता है.
  • कृप्या हवाई यात्रा के दौरान हवाई कर्मचारियों को मारने के लिए इस चप्पल का इस्तेमाल न करें. यह दंडनीय अपराध है. उस पावन कार्य हेतु आप चमड़े की या कोल्हापुरी चप्पल का इस्तेमाल करें.
  • हवाई चप्पल का धारक जिसका आधार कार्ड चप्पल से अटैच हो, वही बस यात्रा कर सकता है, चप्पलें भले सेम साईज की हो, मगर ट्रास्फरेबल नहीं हैं.
  • कृप्या ध्यान दें कि यात्रा से वापस आकर चप्पलें अपने जन धन खाते से जुड़े लॉकर में सुरक्षित रखें. चप्पल खरीदते समय आधार कार्ड के साथ साथ आपको अपने लॉकर का पता भी दर्ज करना होगा.
  • यात्रा समाप्ति के २४ घंटे के भीतर चप्पल लॉकर में ने जमा करने पर प्रति दिन ५०० रुपये का जुर्माना भुगतान करना होगा.
  • हवाई चप्पल गुम हो जाने की दशा में, तुरंत एफ आई आर दर्ज करा कर, इन्हें नई चप्पल से रिप्लेस कराना होगा जिसका एडमिन चार्ज पहली गुमाई पर ३००० रुपये और उसके बाद प्रत्येक गुमाई पर ५००० रुपया होगा.
  • हर तीन माह में हवाई चप्पल का रिन्यूवल हवानी कम्पनी के लोकल दफ्तर से कराना होगा, जिसका रिन्यूवल चार्ज ५०० रुपया होगा जो मात्र भीम एप के जरिये देय होगा.
  • हवाई जहाज में एन्ट्री पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर होगी. बाकी यात्री अपनी हवाई चप्पल पुनः अपने लॉकर में जमा कर आराम से घर पर बैठें.
  • जन धन खाते से जुड़े लॉकर का प्रति ऑपरेशन चार्ज ५०० रुपये एवं सालाना किराया ३००० रुपया प्लस सर्विस टैक्स अलग से लगाया जायेगा.
  • हवाई चप्पल कोटा के यात्री कृप्या ध्यान दें कि अपनी हवाई चप्पल अपनी सीट के सामने वाली पाकेट में फंसा कर रखें ताकि कहीं भूले से एयर होस्टेस आपको नार्मल यात्री समझ कर चाय पानी न पूछ बैठे.
बाकी तो अच्छे दिन आ ही गये हैं कृप्या हवाई जहाज में चढ़ने से पहले साहेब का जयकारा लगाना न भूलें.

 -समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अप्रैल 24, 2017

सबसे ज्यादा तोड़ा मरोड़ा क्या जाता है?



प्रश्न वही हो तब भी जबाब देने वाले के हिसाब से जबाब अलग अलग मिल सकते हैं..
सबसे ज्यादा क्या तोड़ा जाता है..आशीक मिज़ाज होगा तो कहेगा दिल और पति होगा तो कहेगा पत्नी के द्वारा गुस्से में कांच का गिलास..आम जन होगा तो कहेगा नेताओं का वादा.
फिर आप पूछेंगे कि सबसे ज्यादा मरोड़ा क्या जाता है..फिरवही..माशूका होगी तो कहेगी..बहियां और स्कूली छात्र होगा तो कहेगा रफ कागज..
मगर आप चाहें किसी से पूछें कि सबसे ज्यादा तोड़ा मरोड़ा क्या जाता है?
एक सुर में सभी कहेंगे कि नेताओं के बयान!!
हालत ये हैं कि प्रेस कांफ्रेन्स में टीवी पर दिये बयान से भी मुकर जाते हैं और कहते हैं कि इसे तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है. सिर्फ २५ चप्पल मारी थी एयर लाईन के स्टाफ को..प्रेस ने तोड़ मरोड़ कर मेरे बयान को ऐसे पेश किया जैसे मैने ३० चप्पल मारी हों. ये प्रेस वाले बहुत गलत लोग हैं..जनता को भड़काते हैं. इनको बस टी आर पी से मतलब रहता है.
चुनाव में १५ लाख रुपये हर खाते में डलवाने वाले जुमले को वायदा कह कर पेश कर दिया. अब इस तोड़ मरोड़ न कहें तो क्या कहें? सब जानते थे कि यह बस एक जुमला है जैसे पहले होता था गरीबी मिटायेंगे- उसी को बस क्वान्टीफाई  कर दिया. १५ लाख खाते में आना और गरीबी मिटाना एक ही बात तो है. मगर यह मुआ मीडिया..आज तक तोड़ मरोड़ किये जा रहा है...हमेशा प्रश्न करता है कि अच्छे दिन कहाँ हैं? हमारे १५ लाख कहां हैं यह जनता जानना चाहती है!! कौन सी जनता भई? अगर वो जानना चाहती तो भला यू पी में ऐसे जिताती?
अब आज का ही एक बयान देखिये...
प्रदेश में अधिकारियों को निर्देश दिया गया है कि राज्य भर की जेलों में बंद सभी माफिया डॉन और सामान्य अपराधियों को एक जैसा खाना और अन्य सुविधाएं दी जायें।
टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज:
खबर आ रही है कि मुख्य मंत्री द्वारा जेल में आम कैदियों को भी एसी, मोबाईल, मुर्गा और दारु परोसने का आदेश...जेल में जो सुविधायें डॉन को दी जायें वो ही आम कैदियो को भी दी जाये...
वाह जी, क्या जलवे कर दिये. बाहर ५ रुपये की थाली का इन्तजाम शरीफों के लिए और भीतर एसी, मोबाईल, मुर्गा और दारु परोसने का आदेश..
बड़े ध्यान से दोनों न्यूज पढ़ रहा हूँ मुझे तो तोड़ मरोड़ कहीं दिख नहीं रहा है, आपको दिख रहा है क्या?
वैसे तो आजकल प्रचलन यह है कि नेता खुद ही अपना बयान ही इतना तोड़ मरोड़ कर देते हैं कि और तोड़ने मरोड़ने की ज्यादा गुँजाईश होती नहीं और जब सरल शब्दों में समझाने को कहो तो बोल देते हैं कि उपर से आदेश है मौन रहा करो.
आज से सब नेताओं को हिन्दी में भाषण देना अनिवार्य कर दिया गया है..अब तो नित तोड़ मरोड़ का ठीकरा भाषा पर टूटेगा और नाहक ही बदनाम होगी हमारी हिन्दी!!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में अप्रेल २३, २०१७ को:

http://epaper.subahsavere.news/c/18514205
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शनिवार, अप्रैल 22, 2017

हद है ये कैसा राज पाट ..जिसमें लाल बत्ती भी न हो?


बत्ती उतरी कार से, मंत्री जी झुंझलायें
ये वीआईपी कार है, कैसे यह बतलायें
कैसे यह बतलायें, कोई तो राह बताओ..
मंत्री न हो आम, कोई तो साख बचाओ..
मैं बोला कि आप अब कर दो एक कमाल
बैठो छत पे कार की, पहन के टोपी लाल!!
-समीर लाल ’समीर’

किसी जमाने में कुण्डली बांच कर पंडित जी बताया करते थे कि तुम्हारी कुण्डली में राज योग है. १६ अश्वों के रथ में सवार होकर एक दिन चक्रवर्ती सम्राट बनोगे.
सम्राटों को जमाना तो खैर लद गया मगर राज पाट और राज योग तो फिर भी जारी रहा.
कुछ बरसों पूर्व हरिद्वार में एक पंडित मेरी हथेली थामे मेरा भाग्य बांच रहा था...राज योग है..एक दिन लाल बत्ती की गाड़ी में घूमोगे. खजाने में हजारों हजार के नोट भरे होंगे. फिर इस भविष्यवाणी के साथ मुस्कराते हुए पंडित जी बोले- तब हमको ही अपना राज ज्योतिष रखना...ऐसा प्रसन्न किया पंडित ने कि उसके चढ़ावे में मांगे गये उस समय के वैध्य हजार के नोट के २१ नोट मूँगफली के दाने के समान नजर आये.
मगर अब क्या बतायें?
आशीष था..खजाने में हजारों हजार के नोट भरे होंगे....इसे तो नोट बन्दी ने ऐसा खारिज किया गया कि जित्ते जमा थे वो भी जार जार रोये कि क्यूँ जमा हुए? बेहतर होता कि खर्च ही हो लिए होते..अब तो उनका धोबी के गधे सा हाल हो गया है..न घर के न घाट के...घर में रखें तो कोहराम..बैंक में जमा करें तो कोहराम... मन किया कि उसी पंडित को बुलवायें और कहें चलो, इसे भी समेटो और अब कभी अपना चेहरा न दिखाना? मगर फिर शाप न दे दे...यह डर भी तो होता है पंडित से डील करने में..संस्कार डीएनए गढ़ देते हैं..इसलिए चुप रहे कि जब लाल बत्ती मिल जायेगी तो इस नुकसान की भरपाई कर लेंगे दो हजार वालों से...पंडित हर बार थोड़े न गलत साबित होगा?
मगर बुरे दिन फिसलपट्टी के समान होते हैं..संभलने का मौका ही नहीं देते,,,फिसलाते ही चले जाते हैं जब तक की मन भर न फिसला लें.. आज सुनते हैं कि अब लाल बत्ती से भी गये!! अब वो भी नसीब न होगी,,,
हद है ये कैसा राज पाट ..जिसमें लाल बत्ती भी न हो?
एक जमाने में कहते थे कि क्लर्क से प्रमोटेड..नामित आईएएस..जब कोई बिल पास करता है तो टोटल खुद से लगा कर देखता है..यही अंतर होता है असली आईएएस और नामित आईएएस में..असली काम करता है और नामित काम करने लग जाता है. बिना लाल बत्ती वाला मंत्री..टोटल ही लगायेगा...नई योजना तो भला क्या ला पायेगा...योजना बनाने का समय ही कहाँ बच रहेगा?
लाल बत्ती एक कॉन्फीडेन्स देती है पावर का..बिना इस कॉन्फीडेन्स के तो भला हनुमान भी जान पाते क्या कि वो उड़ सकते हैं? उन्हें भी बताया गया था कि सर, आपके पास लालबत्ती है..आप उड़ सकते हैं..तब जाकर वो उड़े थे..संजीवनी लाने वरना तो लक्ष्मण जी तभी नमस्ते हो लिए होते..
मगर अब न होगी लाल बत्ती तो न होगी!!
आदत पड़ जायेगी लाल बत्ती वाले पावर को बिना लाल बत्ती वाले पॉवर से रिप्लेस करने की..बाकी का सारा ढोल मजीरा...कमांडो..सब तो हैं ही..बस लाल बत्ती ही तो बुझी है.
वैसे भी लाल बत्ती..रेड लाईट..याद दिलाती है या यूं कहें कौंधाती है रेड लाईट एरिया का ख्याल...अंतर क्या है...कहीं तन बिकता है तो कहीं वतन बिकता है...
अपवाद तो दोनों तरफ हैं..उस रेड लाईट एरिया में भी तो मूँगफली बेचने वाले होते हैं..और इस रेड लाईट एरिया में..कुछ फकीरी की नुमाईश लगाने वाले भी दिखाई पड़ ही जाते हैं..
मगर अपवादों से दुनिया नहीं चलती..
अपवाद चिन्हित होते हैं और वास्तविक दुनिया अपवादों से इतर परिभाषित!!

-समीर लाल ’समीर’
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भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में प्रकाशित
http://epaper.subahsavere.news/c/18459983


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शनिवार, अप्रैल 15, 2017

एंटी ईवीएम छेड़छाड़ स्क्वाड


मृत्यु को एक वरदान मिला है. मृत्यु को कभी बदनामी नहीं मिलती. जब कभी किसी की मृत्यु होती है उसका दोष सदा ही कभी बुढ़ापे, कभी बीमारी, कभी दुर्घटना को जाता है. यहाँ तक की जब कोई कारण नहीं मिलता तब भी यही कहा जाता है कि अच्छे खासे थे, न जाने क्या हुआ और गुजर गये..  
वही हाल चुनाव में प्रत्याशियों की हार का है..मानो तुलसी दास कह रहे हों कि प्रत्याशी को नहीं दोष गुसांई..हार याने की इनके न जीतने का दोष प्रत्याशी के सिवाय चाहे जिस बात पर डाल दिया जाये मगर प्रत्याशी तो मानो गालिब हो, कुछ भी कर ले..कितना भी बदनाम क्यूँ न हो..उसके आका से लेकर उसके चहेतों तक बस एक ही बात:
नेता तो वो अच्छा है, बदनाम बहुत है
ये कभी नहीं हारते. जीतने वाला जीत गया, ये नहीं जीते..बस, इतनी सी घटना होती है.
कभी सामने वाले की लहर के चलते तो कभी जनता के आदेश के चलते सामने वाला जीत जाता है और यह नहीं जीतते.
शास्त्रों में लिखा है कि सब हार कर भी जो इन्सान उम्मीद नहीं हारता, आशा का हाथ थामें रहता है- एक दिन सफलता उसके कदम जरुर चूमती है, इस सूत्र का इस धरती पर यदि अगर एक वर्ग के रुप में कोई अक्षरशः पालन करता है तो वो नेता वर्ग ही है.
पहले अक्सर इनके न जीतने का ठीकरा बूथ केप्चरिंग पर फोड़ा जाता था. बाहुबलियों का बोल बाला हुआ करता था. जिसके पास जितने लठैत, वह उतना सफल नेता. लठैत मात्र लट्ठ लिए लोग नहीं बल्कि चाकू, तलवार, दोनाली से लेकर रिवाल्वरधारी भी हुआ करते थे. लठैत अपने नेता की जीत सुनिश्चित कराते थे, जीतने वाला नेता अपने लठैतों को जेल से बचाये रखने की गारंटी दिया करता था. दोनों का चोली दामन का साथ था. बूथ केप्चरिंग में यह बूथ इन्चार्ज को धमका कर, मार पीट कर मत पेटी पर कब्जा करके अपने मन मर्जी के वोट डाल लेते थे.
जिस किसी नेता को पहले से यह अंदाजा हो जाता कि वह नहीं जीतेगा इस बार, वह वोटिंग वाले दिन ही बूथ केप्चरिंग का इल्जाम लगा देता था और बाकी के न जीत पाने वाले, चुनाव के नतीजे आने के बाद उसके इल्जाम का समर्थन करने लग जाते थे. मगर जो जीत गया सो जीत गया.  
बताते हैं कि आज लैठेतों की जगह तकनीक के ज्ञाता सॉफ्टवेयर इन्जीनियरों ने ले ली. ये तकनिकीयुगीन लठैत अपने तकनिकी ज्ञान की दोनाली लिए अपने आकाओं के आदेश पर ईवीएम (इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) पर धावा बोलते हैं. उसका अपने ज्ञान से ऐसा हृदय परिवर्तन करते हैं कि जनता चाहे जो आदेश दे, लहर भले किसी की चले..एवीएम जितायेगी इनके आकाओं को ही.
बाकी के न जीत पाये नेता, वही पूर्ववत अब दोषारोपण ईवीएम मशीन पर कर देते हैं कि इनसे छेड़छाड़ की गई है.
जल्दी ही इस छेड़छाड़ के खिलाफ भी एण्टी रोमियो कानून की तरह ही कोई कानून लाना पड़ेगा वरना यह छेड़छाड़ की बीमारी प्लैग से भी ज्यादा संक्रामक है, पूरे देश में फैलते वक्त न लेगी. कुछ ही बरसों में पूरे देश में फैल जायेगी.
वक्त रहते न संभले तो फिर कुछ ही बरसों में फैली इस बीमारी के उन्मूलन में कई दशक लग जायेंगे.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में आज:

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शुक्रवार, अप्रैल 14, 2017

बम था कि बमों का बाप


अमिताभ बच्चन की फिल्म शहंशाह का वो डायलॉग जो उस जमाने में बच्चा बच्चा सीख गया था..
’रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं और नाम है शहंशाह!!’
हर जगह जब कभी अपनी ताकत दिखाने की जरुरत पड़ती तो लोग कहा करते कि रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं.
एक गुँडा चाकू चमका रहा है और दूसरा गुँडा उसे चमका रहा है कि धर ले अपना चाकू अपनी जेब में..ये तो कुछ भी नहीं है.. मेरे पास इसका बाप है ये देख..और वो हवा में फरसा घुमाने लग गया. चाकू वाला गुँडा डर कर भाग गया.
कभी ऐसा भी सुनने में आ जाता है कि यार, सोचा था उससे कुछ रकम झटकी जाये मगर वो तो मेरा भी बाप निकला, उल्टी टोपी पहना कर चला गया.
खूब जोर का धमाका सुनाई पड़े तो इन्सान स्वतः ही बोल उठता है बाप से बाप, क्या धमाका था, कान सुन्न हो गये.
कहने का तात्पर्य यह है जब भी किसी चीज को बड़ा बताना हो, उसकी विशालता का बखान करना हो, तो उसे बाप बताया जाता है.
क्या आपने कभी इसके बदले में मम्मी या मदर का इस्तेमाल होते देखा?
कोई ऐसा कैसे कह सकता है कि अपना चाकू अपनी जेब में रख, मेरे पास इसकी मम्मी है और लगे तलवार हवा में लहराने.
माँ शब्द के साथ आप ये जरुर कह सकते हैं ओह माँ, आज सर में बहुत दर्द है. एक संवेदना है, एक ममता की उम्मीद है..बाप शब्द के साथ एक जोश है, एक धमक है.
आज जब सुबह से सुन रहा हूँ कि अमरीका ने अफगानिस्तान के आई एस आई एस के ठिकाने पर विश्व का सबसे बड़ा गैर परमाणु बम गिराया है, जिसे मदर ऑफ ऑल बॉम्बके नाम से पुकारा जाता है, तब से इस उलझन में हूँ कि आखिर इसे सब बमों के बाप याने फादर ऑफ ऑल बॉम्ब क्यूँ नहीं बुलाया गया?
माना महिला सश्क्तिकरण का जमाना है मगर मेरा दावा है कि इस बम का धमाका सुन कर भी लोगों के मूँह से एकाएक यही निकला होगा –बाप रे बाप, क्या धमाका था..बम था कि बमों का बाप?
हाँ, जो इसकी चपेट में आकर मरे होंगे या चोटिल हुए होंगे..उनके मूँह से उई माँजरुर निकला होगा..
मैं समझता भी हूँ और महिला सशक्तिकरण का घोर पक्षधर भी हूँ मगर भावनायें और उनसे जुड़े शब्द डी एन ए का हिस्सा होते है, उन्हें कैसे समझायेंये तो जब पूर्ण पुरुष प्रधान समाज था, तब भी दर्द में माँ की शक्ति और ममता को ही याद करता था..
-समीर लाल समीर
आज के भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में:

http://epaper.subahsavere.news/c/18310508

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मंगलवार, अप्रैल 11, 2017

कल हो न हो!!



कुछ उलझन को सुलझाने में..
नादां दिल को समझाने में..
बीती, फिर  रात बिताने में..
उगती सुबह को सजाने में
अपने रुठों को मनाने में..
कोई बिगड़ी बात बनाने में….
कुछ  यादों में खो जाने में..
खुद को कुछ देर रुलाने में..
खोई कोई साख जुटाने में.
टूटे रिश्ते के जुड़ जाने में..
सब कुछ खोकर कुछ पाने में
हम गुम हो गये  जमाने में..

कुछ जामों के  टकराने में..
कुछ बहके कदम बढ़ाने में..
नासूरों  के भर जाने में
कुछ जख्म हरे हो  जाने में
हर झूठ को सच बतलाने में
और सच को यूँ झुठलाने में..
उसको नीचा दिखलाने में..
खुद को हर पल भरमाने में..
इस जीवन को जी जाने में..
और जीते जी मर जाने में..
सब कुछ खोकर कुछ  पाने में
हम गुम हो गये हैं जमाने में..

सोचो गर ये जो सोच सको
कल रो कर न हँस पाये तो..
चुप रह कर न कह पाये तो
मन ही मन हम पछताये तो
कल सोकर  उठ पाये तो..
बस रह जायेंगे अफसाने में..
सब कुछ खोकर
क्या पाने में?
हम गुम हो गये हैं जमाने में..

इस जीवन को जी जाने में..
और जीते जी मर जाने में..
सब कुछ खोकर ! क्या  ? पाने में
हम गुम हो गये हैं जमाने में..
-समीर लाल समीर

नोट: मित्र पुष्पेन्द्र पुष्प की दो पंक्तियाँ पढ़ी..और बह निकली एक पूरी रचना..कुछ बरस पहले...


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