सरौता बाई नाम था उसका. सुबह सुबह ६ बजे आकर कुंडी खटखटाती थी. तब से उसका जो दिन शुरु होता कि ६ घर निपटाते शाम के ६ बजते. कपड़ा, भाडू, पौंछा, बरतन और कभी कभी मलकिनों की मालिश. बात कम ही करती थी.
पता चला कि उसका पति शराब पी पी कर मर गया कुछ साल पहले. पास ही के एक टोला में छोटी सी कोठरिया लेकर रहती थी १० रुपया किराये पर.
एक बेटा था बसुआ. उसे पढ़ा रही थी. उसका पूरा जीवन बसुआ के इर्द गिर्द ही घूमता. वो उसे बड़ा आदमी बनाना चाहती थी.
हमें ७.३० बजे दफ्तर के निकलना होता था. कई बार उससे कहा कि ५.३० बजे आ जाया कर तो हमारे निकलते तक सब काम निपट जायेंगे मगर वो ६ बजे के पहले कभी न आ पाती. उसे ५ बजे बसुआ को उठाकर चाय नाश्ता देना होता था. फिर उसके लिये दोपहर का भोजन बनाकर घर से निकलती ताकि जब वो १२ बजे स्कूल से लौटे तो खाना खा ले.
फिर रात में तो गरम गरम सामने बैठालकर ही खाना खिलाती थी. बरसात को छोड़ हर मौसम में कोशिश करके कोठरी के बाहर ही परछी में सोती थी ताकि बसुआ को देर तक पढ़ने और सोने में परेशानी न हो.
समय बीतता गया. बसुआ पढ़ता गया. सरौता बाई घूम घूम कर काम करती रही. एक दिन गुजिया लेकर आई कि बसुआ का कालिज में दाखिला हो गया है. बसुआ को स्कॉलरशिप भी मिल गई है. कालिज तो दूर था ही, तो स्कॉलरशिप के पैसे से फीस , किताब के इन्तजाम के बाद जो बच रहा, उसमें कुछ घरों से एडवान्स बटोरकर उसके लिये साईकिल लेकर दे दी. पहले दिन बसुआ अपनी माँ को छोड़ने आया था साईकिल पर बैठा कर. सरौता बाई कैरियर पर ऐसे बैठकर आई मानों कोई राजरानी मर्सडीज कार से आ रही हो. उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे. बहुत खूश थी उस दिन वो.
बसुआ की प्रतिभा से वो फूली न समाती. बसुआ ने कालिज पूरा किया. एक प्राईवेट स्कूल से एम बी ए किया. फिर वो एक प्राईवेट कम्पनी में अच्छी पोजीशन पर लग गया. हर मौकों पर सरौता बाई खुश होती रही. उसकी तपस्या का फल उसे मिल रहा था. उसने अभी अपने काम नहीं छोड़े थे. एम बी ए की पढ़ाई के दौरान लिया कर्जा अभी बसुआ चुका रहा था शायद. सो सरौता बाई काम करती रही. उम्र के साथ साथ उसे खाँसी की बीमारी भी लग गई. रात रात भर खाँसती रहती.
बसुआ का साथ ही काम कर रही एक लड़की पर दिल आ गया और दोनों ने जल्द ही शादी करने का फैसला भी कर लिया, सरौता बाई भी बहुरिया आने की तैयारी में लग गई.
एक दिन सरौता बाई ५.३० बजे ही आ गई. आज वो उदास दिख रही थी. आज पहली बार उसकी आँखों में आसूं थे. बहुत पूछने पर बताने लगी कि कल जब घर पर चूना गेरु करने का इन्तजाम कर रही थी बहुरिया के स्वागत के लिये, तब बसुआ ने बताया कि बहुरिया यहाँ नहीं रह पायेगी. वो बहुत पढ़ी लिखी और अच्छे घर से ताल्लुक रखती है और वो शादी के लिये इसी शर्त पर राजी हुई है कि मैं उसके साथ उनके पिता जी के घर पर ही रहूँ. वैसे, तू चिन्ता मत कर, मैं बीच बीच में आता रहूँगा मिलने.
कोई भी काम हो तो फोन नम्बर भी दिया है कि इस पर फोन लगवा लेना. उसे चिन्ता लगी रहेगी. बहुत ख्याल रखता है बेचारा बसुआ. जाते जाते कह रहा था कि अब तो मेरा खर्च भी तुझको नहीं उठाना है. बसुआ पढ़ लिख गया है तो तू एकाध घर कम कर ले और हफ्ते में एक टाईम की छुट्टी भी लिया कर. अकेले के लिये कितना दौड़ेगी भागेगी आखिर तू. और अब इस उम्र भी तू पहले की तरह काम करेगी तो सोच, मुझे कितनी तकलीफ होगी. आखिर बेटा हूँ तेरा.
तब से सरौता बाई रोज ५.३० बजे आने लगी.
गुरुवार, नवंबर 01, 2007
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59 टिप्पणियां:
कनाडा में बैठे आप इस तरह के भाव कहां से लेकर आते हैं
नहीं हो सकता कोई भी बसुआ एसा, कभी नहीं हो सकता.
आपकी कहानी अच्छी लगी। आशा है की आप लेखन जारी रखेंगे।
सुबह सबेरे क्यों रुलाये जा रहे हो!
समीर जी सरौता बाई और बसुआ को बहुत देखते हैं यहाँ आसपास। और दर्द भी बहुत होता है। जैसे आज ही सरौता बाई दिमाग में चलती रहेंगी।
बहुत बूढ़ों की जिन्दगी में आंसू और रीतापन पढ़ा ही नहीं, देखा भी है। पर समाधान नजर नहीं आते। परिवर्तन ऐसी तेजी से हो रहे हैं समाज में कि सब भाव गड़बड़ा रहे हैं। भीषण संक्रांति काल है यह।
bahut dard bhari kahani hai sameer bhai
इन्ही सरौता बाई और बसुआ जैसों के लिये मैने एक पोस्ट "व्रद्ध" लिखी थी.....दुर्भाग्य है कि ये सब हमारे भारतीय समाज की नियति है......अजीब विरोधाभास है यहां अंबानी और सरौता बाई साथ साथ रहते है , जो क्रमश: विकास और पिछडेपन के परिचायक हैं जहां एक के लिये हर पल सब कुछ बदलता है तो दूसरे के लिये जिन्दगी भर कुछ बदलता ही नही.......
भावुक करने वाली पोस्ट!
मार्मिक है जी। कनाडा में खांटी देसी बने हुए हैं आप। यह देखकर तसल्लीदायक आश्चर्य होता है।
बहुत मार्मिक वर्णन किया है आपने !
अभी तीन कवि सममेलनों की तैयारी पर जुटा हूं पर आपकी इस पोस्ट पर पिफर भी कमेंट लगाने का लोभी हो गया बहुत अच्छी है आपका सम्मेलन कैसा रहा
इस विषय पर रह रह कर सोचा तो काफ़ी है पर कोई सही निष्कर्ष नहीं निकाल पाया।कुछ समस्या आ जाती है- जो मैंने अपने आसपास देखी है।एक तो यह कि नयी जगह पर माँ -बाप रहने जाते भी हैं तो ऊब कर(नयी जीवनशैली,अपरिचित घेराव)लौट आते हैं।सालों एक जगह पर रहते वो यह परिवर्तन झेल नहीं पाते(हाँ यह हर बार सही नहीं होगा)।साथ थी बच्चों को बाहर रहना ही होता है।इस समस्या का समाधान काफ़ी चिंतन माँगता है।
बहुत अच्छा लिखा है आपने ! दिल को छु गयी आपकी कहानी ....
भावुकता से परिपूर्ण एक अच्छी कहानी.
सच समय कितना निर्मम है.
दिल को छू गई
मार्मिक कहानी ..अफ़सोस की यह सब हो रहा है ...और आने वाला बुढापा और अकेला और बेबस हो रहा है, यूं वक्त के चलते..... तेजी से रोज़ नए खुलते ओल्ड एज होम इस बात का सबूत हैं !!
समीर जी,
दिल को छू लेने वाली दास्तान सुना दी आपने...
पूत भये कपूत... ऐसी जाने कितनी सरोता बाई..अपने लाडलों के लिये जवानी दरिद्रता में गुजार देती है और बुढापा रो रो कर.
साधुवाद
आप की कहानी बहुत ही बढिया है आप इस प्रकार कि कहानी एक आधुनिक देश मे होते भी केसे लिख देते है! आप की ये कहानी हमारे आधुनिक(या यु कहे आज) देश कि अच्छे से बखान कर देती है...
समीर जी,यही आज के समाज का चहरा बनता जा रहा है...आज अपनें सुख के सामनें बच्चें माँ-बाप के प्यार व त्याग को कोई महत्व नही देते।आप ने इस कहानी में सच्चाई का बखूबी चित्रण किया है।पता नही आप कैसे कनाडा में बैठे भारतीय समाज का इअतना सटीक चित्रण कर लेते हैं?
कैरियर पर माँ को बैठाकर लाने वाले कई बसुआ अपने तमाम पुण्यों को ऐसी ही अधकचरी सोच के चलते गँवा देते हैं।
शुक्रिया...अच्छी थी कहानी
कितने अजीब रिश्तें हैं यंहा पर.
कुछ दूर चलते है.
जब मोड़ आए तो
बच के निकलते है.
अन्तर्मन को झकझोर गयी आपकी ये कहानी समीर जी,आजकल तो यही देखने को मिलता है हाय रे सदी !क्या करें ... अच्छे लेखन के लिये बधाई स्वीकारें
पढ़ते पढ़ते शब्द धुँधले से होने लगे... गले में कुछ अटकने सा लगा. क्यों ऐसा हुआ ... ! माँ की अंधी ममता , बेटे को पाल-पोस कर बड़ा करने के पीछे अपने लिए स्वार्थ ,,माँ की तपस्या क्यों व्यर्थ हुई..... क्या था ऐसा जो बेटे को पाषाण बना गया... आपने तो आज खूब रुला दिया... :( :( :(
मर्मस्पर्शी।
वाह गुरुजी ,जवाब नही है आपका....एक और धमाकेदार खोज ....बहुत अच्छा लगा पढना ,क्या गजब लिखा है आपने..बधाई
एक छोटी किंतु सम्पूर्ण कथा के लिए बधाई।
ह्म्म!! क्या कहूं!!
बस ऐसा पढ़कर आंखे नम होने लगती और एक अजीब सा गुस्सा आने लगता है!! कुछ दिन पूर्व यही भाव लिए हुए ही कहीं और कुछ पढ़ा था तब भी ऐसे ही भाव आए थे!!
भावुक कर देने वाली कहानी पर ये जिंदगी की एक सच्चाई भी है।
इतना अच्छा न लिखें कि आपके नाम की सुपारी देनी पड़े....
ये दर्द आज घर घर की कहानी है, हर घर में एक बसुआ बैठा है, पश्चमी सभ्यता का अंधा धुंध अनुसरण करने का नतीजा। खैर आज कल मां बाप भी स्याने होने लगे, वो कोई सपने ही नहीं संजोते बच्चों को लेकर, टूटे सपनो की किरकन बहुत खून बहाती है न इस लिए, काश एक बार फ़िर सयुंक्त परिवारो का चलन आ जाता। अगर कपड़ो में पुराने फ़ैशन आ सकते है तो परिवार शैली में क्युं नहीं…पर कहानी ने एक बार फ़िर हमारे मन के डर सामने ला ख्ड़े किए है…आप को दाद दें या साहसी होने का ढ़ोंग करें …आप ही बताइए
बहुत मार्मिक, समीर भाई.....
बसुआ चाहे जैसा हो जाए, सरौता बाई रहेगी सरौता बाई ही...
आखिर बेटा हूं तेरा। यकीन नहीं आता कि किसी बेटे की संवेदनाएं इतनी मर सकती हैं। काश ये सिर्फ कहानी का सच होता, सच की कहानी नहीं।
आँसू पोछने दीजिए सर…
गजब का भाव पैदा किया है,मेरी फिल्म के लिए भी कोई अच्छी सी कहानी लिखें… तब तो और मजा आ जाए…।
अनिल जी और बेनामी जी से कहना चाहूंगा कि ऐसे कितने ही बसुआ हो चुके हैं जिन्होने अपनी माँ के साथ ऐसा किया।
पर माँ के साथ ऐसा क्यों होता है,? क्या बीतती है जब बेटे उन्हें इस तरह दगा देते होंगे।
बसुआ के मुंह से यह शब्द कैसे निकले होंगे
पढ़ लिख गया है तो तू एकाध घर कम कर ले और हफ्ते में एक टाईम की छुट्टी भी लिया कर. अकेले के लिये कितना दौड़ेगी भागेगी आखिर तू. और अब इस उम्र भी तू पहले की तरह काम करेगी तो सोच, मुझे कितनी तकलीफ होगी. आखिर बेटा हूँ तेरा.
Sameer Ji,
आखिर बेटा हूँ तेरा, और फिर रात गुजर गई, एक थी रुक्मणी माई makes one wonder. Are we doing the same thing? Are we like those characters who have left India for our future and probably don't look back to our parents. How can we avoid being like such people?
Suggestions?
kitna katu satya hai...kya prashansa karoon aapki, aapke bhaavnaaon ki, shabd dabdabaayi aankhon me dhundhle ho gaye hain...kanth avroodh hai...nisandeh yahi aapki prashansa hai...
समीर भाई, सँवेदनासे भरे ह्र्दय से कही
"सरौता बाई की कहानी ", मन को छू गई, मुझे रुला गई ..सच तो यही है कि, जो इन्सान सच्चे ह्रदय से अपना आपा लुटाकर अप्नोँ का जतन करता है उसीकी कीमत वही, "अपने"भी ठीक से नहीँ किया करते.
इन्सान खुदगर्ज किस्म का प्राणी ही, बहुधा पाया जाता है..बिरले , इस स्तर के ऊपर उठते हैँ ..
बहुत भावविहल करने वाली रचना।
दीपक भारतदीप
बहुत खूब....!
Sanjana.raviwar@gmail.com
www.raviwar.com
कहानी अच्छी लगी।
आपकी कहानी अच्छी लगी,बहुत सटीक लिखा है, दिल को छू लेने वाली दास्तान सुना दी आपने! बधाई।
बहेद मार्मिक.....माँ के दुख को समझ सकती हूँ।
समीर भाई आज भी है एसी माँऎ और एसे बसुआ...यह सत्य घटना है कोई कहानी नही...मालूम नही क्यों मगर ईन्सान की फ़ितरत हमेशा से स्वार्थी रही है...बहुत भाग्यशाली है वो माता-पिता जिनका बेटा बसुआ जैसा नही होता...
बहुत मार्मिक घटना का बहुत सीधी सच्ची भाषा में वर्णन किया है आपने। एक-एक शब्द दिल को छू जाता है। - आनंद
जब से पढ़ा है दिल उदास है. लगता है कही अपनी कहानी तो नहीं.
हमारे यहाँ बसुआ तो बहुत मिल जायेंगे. पर हमारे यहाँ ऎसी माएं भी बहुत हैं जो एक बसुआ के होने के बाद भी ऐसे अनेक बसुआओं को जन्म देना चाहती हैं. क्योकि वो जानती हैं , आख़िर बेटा तो वो उसी का कहलायेगा ना. .... और ऎसी माँओं पर हमें फख्र है.
ऍसा ही हो रहा है..पर माँ तो आखिर माँ ही रहेगी बेटा भले बदल जाए
मन को छू लेने वाली कहानी , शायद यह कहानी हो लेकिन है यह हमरे समाज का ऐसा सच जिसे आसानी से झुठला देना संभव नही दिखता , लेकिन फ़िर समाधान क्या हो ? क्या हमारी शिक्षा -दीक्षा दॊषपूर्ण है या हम अपने बच्चों से कुछ ऐसी गलत उम्मीद रखते हैं जो उनके द्वारा पूरा करना संभव नही दिखता । एक बहुत ही अच्छी और मर्मस्पर्शी पोस्ट !
आँखे नम हो गई. जबरदस्त. शब्द नहीं मिल रहे इस पर कुछ भी कहने के वास्ते.
बहुत बढिया समीरजी आपको साधुवाद।
काश आपने पढी -लिखी बहु को मोहरा न बनाया होता। और भी जीवन प्रसंग है। जीविका की तलाश मे, अपने सपनों की तलाश मे लोग अपने घर से बेघर घुमते है। आजकल हिंदुस्तान मे भी अधिकतर महत्त्वकंशी बच्चे हर साल नौकरियां बदलते है, शहर बदलते है। घर छोड़ते है। उसका कोई सीधा विकल्प भी नही है.फिर सिर्फ सरौता बाई का बसुआ नही , मध्य वर्ग के बच्चे यही करने को अभिशप्त है। रूपये पैसे की तंगी न भी हो, तो भी माँ बाप और बच्चे दोनो एक दूसरे को मिस करते है। नयी पीडी के बच्चे सिर्फ बसुआ नही है.
सदा की तरह उम्दा लेखन!
रोयें खड़े हो गए समीर भाई आपकी कहानी से गुज़रते हुए. सच, आपकी संवेदना और दिल की गहराइयों की दाद देता हूं. हर कोई नहीं महसूस सकता ये दर्द. बहुत बढिया लिखा आपने. आपको पढ़ना बहुत अच्छा लगता है.
बहुत अच्छे. वाकई दर्दनाक कहानी है. this one hits quite close तो heart :) . कई वर्ष पहले एक कहानी पढ़ी थी जिसका नायक अपनी प्रेमिका/ पत्नी के कहने पर अपनी माँ की दिल काट कर उसके लिए ले जा रहा था. रस्ते में उसको ठोकर लगी तो उस दिल से आवाज़ ई - मेरे बेटे को कहीं चोट तो नहीं लगी.
पर क्या आपको नहीं लगता की हम यहाँ बैठे बैठे कुछ हद तक यही कर रहे हैं. हम अपनी कई छोटी छोटी सुविधाओं के लिए अपने घरवालों की भावनाओं को समझने की कोशिः नहीं करते. विदेश में रहने की सबसे बड़ी कमी ये है की यहाँ हर किसी को अपने जीवन को अपने मुताबिक जीने की स्वतंत्रता होती है. आज कल दुनिया में इतनी प्रलोभन हैं की इंसान चाहे तो हर वक्त उनमें खोया रहे. कई सारी चीज़ें जो लोगों को मुश्किल से पहले मिलती थीं वो अब बहुत ही आसन हो गई हैं. इससे इंसान अपने आप को self sufficient समझने लगा है. हमारे पास इतनी तो इच्छा संपत्ति है की हम अपना जीवन आनंदपूर्वक गुजार सकें पर इतनी हिम्मत नहीं की अपने चाहने वालों को अपने साथ केकर चलें.
समीर जी,ऐसे बधुआ तो कहाँ नहीं हैँ?हर जगह...हर देश में आपको ऐसे बधुआ मिल जाएँगे किसी न किसी रूप में...कहीं विचार न मिलने के नाम पे यही ड्रामा होता है तो कहीं आज़ादी न मिलने का बहाना..और कहीं आर्टीफिशल स्टेटस के धराशाई होने का डर
इसी का तो रोना है चहूँ ओर ...बच्चे सोचते हैँ कि जो माँ-बाप ने किया...वो उनका कर्तव्य था...
पहले मजबूरी थी तो निर्वाह किया जा रहा था अब अलग होने में कैसी शर्म?
जीवन इसी का नाम है. मुझे इस कहानी मे कुछ भी अजीब नही लग़ा. पीढी दर पीढी ऐसा होता चला आ रहा है. शहर या गाँव कही भी ऐसे बेटे मिल जाते है. सात पुतों वाली मां को भी अकेले रह्ते देखा है.
जीवन की डोर जब भी पति या बेटे के हाथ मे चली जाती है तो ऐसा कष्ट कई मांओ को होते देखा है. हम आप कई बार संवेदनशील होते हुए भी अपने मां बाप को यदा कदा कष्ट पहुँचाते ही हैं.
sameerji
kuchh nayaa likho bhai ye to har ghar ki har maa ki dastan hai.
har baap ki dastan hai. yatharth hai. esme nayaa kuchh hai kyaa. samadhaan kya hai?
mahendra sinh
आपकी कहानी पढ़ी .बसुआ जैसे लाखों हैं आज . पता नही कमबख्त , जी कैसे लेते हैं ! एक कहानी याद आ रही है .
शायद आपको पता हो .
प्रेमिका ने प्रेमी से अपने प्यार के सबूत के लिए माँ का दिल माँगा . बेटे ने अपनी फरमाइश माँ के सामने रखी . माँ ने ख़ुशी -ख़ुशी दिल दे दिया . कमीना बेटा थाल में सजाकर दिल लिए दौड़ा . रास्ते में ठोकर लगी , दिल गिर पड़ा और उससे आवाज़ आई , 'बेटे , तुझे चोट तो नही लगी '!
बहुत मार्मिक कहानी ! सच के बेहद करीब !
रश्मि प्रभा जी ब्लॉग बुलेटिन के माध्यम से अक्सर पुरानी यादें ताज़ा करवाती रहती हैं ... आज की बुलेटिन में भी ऐसी ही कुछ ब्लॉग पोस्टों को लिंक किया गया है|
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, वो जब याद आए, बहुत याद आए – 2 “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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