मांसाहारी को यह सुविधा रहती है कि मांसाहार न उपलब्ध होने की दशा
में वो शाकाहार से अपना पेट भर ले. उसे भूखा नहीं रहना पडता. जबकि इसके विपरीत एक
शाकाहारी को, शाकाहार न उपलब्ध होने की दशा में कोई विकल्प नहीं बचता. वो भूखा पड़ा
मांसाहारियों को जश्न मनाता देख कुढ़ता है. उन्हें मन ही मन गरियाता है. वह खुद को
कुछ इस तरह समझाता है कि देख लेना भगवान इनको इनके किए की सजा जरुर देगा. ये जीव
हत्या के दोषी हैं और फिर चुपचाप भूखा सो जाता है.
नास्तिक ओर आस्तिक में भी कुछ कुछ ऐसा ही समीकरण है. नास्तिक
आस्तिकों की भीड़ में भी नास्तिक बना ठाठ से आस्तिकों की आस्था को नौटंकी मान मन ही
मन मुस्करता रहता है. नास्तिक स्वभावतः एकाकी रहना पसंद करता है और जब तक उसे
आस्तिक होने के उकसाया न जाये, अपने नास्तिकपने का ढिंढोरा बेवजह नहीं
पीटता है.
आस्तिक गुटबाज होता है. वो आस्तिकों की भीड़ में रहना पसंद करता है.
वह किसी नास्तिक को देख मन ही मन मुस्करता नहीं है बल्कि उसे बेवकूफ मान प्रभु से
प्रार्थना करता है कि हे प्रभु, यह अज्ञानी है, इसे नहीं पता कि
यह क्या कर रहा है. इसे माफ करना.
आस्तिक बेवजह नास्तिक को अपनी आस्था के चलते जीवन में हुए चमत्कारों
को रस ले ले कर सुनता है ताकि नास्तिक भी उन चमत्कारों की बातों के प्रभाव में आकर
आस्तिक बन उसके गुट में आ जाये. बस, इसी उसकाये जाने के चलते नास्तिक भड़कता
है और पचास ऐसे किस्से सुनाता है जिसमें हर किस्से का अंत मात्र इस बात से होता है
अगर भगवान होता है तो वो उस वक्त कहाँ था?
तार्किक जबाब के आभाव में आस्तिक इसे नास्तिक की नादानी मान उसे उसके
हाल पर छोड़ते हुए नाक भौं सिकोड़ कर मात्र
इतना कह कर निकल लेता है कि एक दिन तुम्हें खुद अहसास होगा तब तुम अपनी बेवकूफी पर
पछताओगे.
आस्तिक स्वभावतः भीरु एवं आलसी प्रवृति का प्राणी होता है अतः एक
सीमा तक कोशिश करने के बाद आस्था की रजाई ओढ कर सो जाने का स्वांग रच, रजाई
से कोने से किसी चमत्कार की आशा लिए झांकता रहता है और यह मान कर चलता है कि जैसा
ईश्वर को मंजूर होगा, वैसा ही होगा. प्रभु जो करेंगे, अच्छा ही
करेंगे. उसे अपनी मेहनत से ज्यादा यकीन आस्था के प्रभाव से हुए चम्त्कार पर होता
है.
नास्तिकों में एक बड़ा प्रतिशत उन नास्तिकों का होता है जिन पर अब तक
कोई ऐसी विपदा नहीं पड़ी है जिसका कोई उपाय न हो और मात्र प्रभु पर भरोसा ही एक
सहारा बच रहे. ऐसे नास्तिक अधिकतर उस उम्र से गुजरते हुए युवा होते हैं जिस उम्र
में उन्हें अपने मां बाप दकियानूसी लगते हैं या गाँधी को वो भारत की आजादी नहीं,
भारत
की बर्बादी जिम्मेदार मानते हैं. उनकी नजरों में गाँधी की वजह से देश इस हालत में
है वरना तो देश की तस्वीर कुछ और होती. उम्र का यह दौर उसकी मानसिकता पर अपना ऐसा
शिकंजा कसता है कि उसे अपने आप से ज्ञानी और तार्किक कोई नहीं नजर आता. वो अक्सर
गंभीर सी मुद्रा बनाये दुनिया की हर उस चीज को नाकारता दिखता है जिससे की यह
दुनिया और इसकी मान्यतायें चल रहीं हैं. उसकी नजर में वह सब मात्र बेवकूफी,
हास्यास्पद
एवं असफल जिन्दगियों के ढकोसले हैं जो उनके माँ बाप गुजार रहे हैं.
उम्र के साथ साथ समय की थपेड़ इन नास्तिकों का दिमाग ठिकाने लगाने में
सर्वदा सक्षम पाई गई है. जैसा कहा गया है कि गाँधी को समझने के लिए पुस्तक नहीं,
एक
उम्र की जरुरत होती है.
यह आस्तिक व नास्तिक मात्र भगवान के प्रति आस्था और विश्वास रखने एवं
न रखने का प्रतीक था. आज के अस्तिक, अपने
बदलते स्वरुप के साथ, अपने राजनैतिक आकाओं को भगवान का दर्जा देकर उनके भक्त बने आस्तिकता
का परचम लहरा रहे हैं और जो उनके भगवान में आस्था नहीं रखते, उन्हें
गाली बकने से लेकर उनके साथ जूतमपैजार करने तक को आस्था का मापदण्ड बनाये हुए.
इसी की परिणिति है कि आज भक्त का अर्थ भी मात्र एक राजनैतिक पार्टी
के आका में आस्था रखने वालों तक सीमित होकर रह गया है, शेष सभी जो बच
रहे, उन्हें आप अपनी इच्छा अनुसार दुष्ट, नास्तिक या
देशद्रोही आदि पुकार सकते हैं. आज का आस्तिक भक्ति भाव से नाच नाच कर भजन पूजन का
स्वांग रच रहा है और फिर थक कर आस्था की रजाई में मूँह ढाँपे अच्छे दिन लाने वाले
चमत्कार का इन्तजार कर रहा है. उनके प्रभु हैं तो मुमकिन है,
और उनके इतर आज का नास्तिक तो मानो मंदिर की बॉउन्ड्री वाल पर पीठ
टिकाये बीड़ी के धुँएं के छल्ले बना कर उड़ा रहा है. उसे बस इतना मालूम है कि अच्छे
दिन आना मात्र एक चुनावी जुमला है. भला ऐसा भी कभी होता है कहीं? मगर उसे ये नहीं
मालूम कि अगर नास्तिकों का भी कोई कृतिम भगवान होता तो वो है कौन? वो आका विहीन
संसार का वाशिंदा है.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मई 16, 2021 के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/60478728
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6 टिप्पणियां:
यदि लोगों को ये ज्ञान मिल जाए कि शाकाहार-मांसाहार जैसा कुछ नहीं, बल्कि सबकुछ अंततः "जीवाहार" ही है (मैं शाकाहारियों को अंकुरित अनाज के आहार का उदाहरण देता हूँ - वे जीवंत, जीवित को जिंदा ही उदरस्थ करते है, :)), तो यह बात खतम ही हो जाए. वैसा ही कुछ आस्तिक नास्तिक का है...
आस्तिक कभी शोर मचाता हुआ नही दिखेगा की मैं आस्तिक हु पर नास्तिक जरूर कहेगा हर जगह दम भर कर बोलता है की मैं नास्तिक हु। मार्क्सवादी,माओवादी आदि इत्यादि ही तो नास्तिक कहते है खुद को।
रही बात गांधी जी की तो उनकी विचारधारा थी सत्य और अहिंसा पर सत्य और अहिंसा का युद्ध में कोई काम नही वो भी विदेशी सत्ता के खिलाफ! सत्य तो यही है कि आजादी के लिए , चंद्रशेखर आजाद,भगत सिंह और उनके साथियो और वीरों ने बलिदान दिया है। चरखा चलाकर दम भरने से कुछ नही होता है कुर्बानी देनी पड़ती है
बोस बाबू के आजाद हिंद फौज के दम पर मिली है जिसके 26,000 हजार से ज्यादा सिपाही शहीद हो गए थे ! कटु सत्य है इसी सत्य और अहिंसा ने देश को खंडित किया है।
नास्तिक होने का सबसे बड़ा लाभ है कि हम बिना कहे बुद्धिजीवी हो जाते हैं...और बुद्धिजीवी तब खुश होगा...जब दुनिया में दुःख खत्म हो जायेगा...नास्तिक है इसलिये सारे गलत काम उसके लिये सही हैं...दूसरों के दुःख दूर करने से बड़ा कोई बिजनेस होता है क्या...उत्कृष्ट रचना समीर साहब...👌👌👌
दो बार पोस्ट हो गया है, ठीक कर लें.
मांसाहारियों से जीव-भक्षण पर कोई भी तर्क कर लें जीत नहीं सकते. गुस्सा तो सच में आता है जब मांसाहारी कहते हैं कि हम शाकाहारी क्या खाते हैं घास-फूस. शाकाहारियों के लिए शुद्ध भोजन मांसाहारियों के बीच संभव नहीं. कुढ़-कुढ़कर रोटी और सलाद से पेट भरना होता है.
यही हाल आस्तिकों का है. उनके गुट के आगे ऐसा लगेगा मानों हम नास्तिक इतने बड़े पापी हैं कि हमारे ही पाप के कारण दुनिया रसातल में जा रही है.
बहुत खूब लिखा. जय हो.
आपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है. ऐसे ही आप अपनी कलम को चलाते रहे. Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.
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