शनिवार, मार्च 13, 2021

एक युग के भीतर समाप्त होते अनेक युग

 

उस रात किसी बड़ी किताब का भव्य विमोचन समारोह था. यूँ भी हिन्दी में किताबों के बड़े या छोटे होने का आंकलन उसके लेखक के बड़े या छोटे होने से होता है और लेखक के बड़े या छोटे होने का आंकलन उसके संपर्कों के आधार पर.

बड़े लेखक की बड़ी किताब का विमोचन हो तो विमोचनकर्ता का बड़ा होना भी जाहिर सी बात है. अतः इस समारोह के विमोचनकर्ता भी बहुत बड़े और नामी साहित्यकार थे. वह इतना अच्छा लिखते हैं कि वर्षों से इसी चक्कर में कुछ लिखा ही नहीं (शायद भीतर ही भीतर यह भय सताता हो कि कहीं कमतर न आंक लिए जाये) मगर फिर भी, नाम तो चल ही रहा है.

अधिकतर अच्छा लिखने वालों के साथ यही विडंबना है कि वो इतना उत्कृष्ट लिखते हैं, इतना अच्छा लिखते हैं कि कुछ लिख ही नहीं पाते. बरसों बरस बीत जाते हैं उनका अच्छा लिखा पढ़ने को. बस, उनसे दूसरों के बारे में सुनने और पढ़ने के लिए यही मिलता चला जाता है कि फलाने ने अच्छा लिखा और ढिकाने ने खराब. सलाह भी उन्हीं की ओर से लगातार बरसती है कि अच्छा लिखने की कोशिश होना चाहिये साहित्य को धनी बनाने के लिए. वे बिना अपना योगदान देखे, हर वक्त दुखी नजर आते हैं कि आजकल अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और यह चिन्ता का विषय है.

सस्वर सरस्वती पूजन, माल्यार्पण आदि के बाद संचालक महोदय ने माईक संभाला और मुख्य अतिथि का परिचय प्रदान करते हुए स्तुति गान में ऐसा रमे कि यह कह कर मुस्कराने लगे कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री पुरुष नहीं हैं.

इतना कह वह मौन हो गये और मुस्कराते हुए मंच से लोगों के हावभाव देखते रहे. पूरे हॉल में इस सनसनीखेज खुलासे की वजह से सन्नाटा छा गया. सब छिपी आँख एक दूसरे को देखने लगे. संपूर्ण मंच भी असहज सा नजर आने लगा तब श्री विराट स्तंभी जी आगे बोले कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री जी पुरुष नहीं, महापुरुष हैं. अपने आप में संपूर्ण संस्था हैं. तब जाकर सभागृह में जान लौटी. श्री विराट स्तंभी जी के इस बयान से उनके सहज हास्य बोध का परिचय मिला जबकि कर्म एवं नाम से वह वीर रस हेतु प्रख्यात हैं. पूरे सभागृह में करतल ध्वनि की गुंजार उठ खड़ी हुई.

विचार आया कि यदि दो वाक्यों के बीच मौन के दौरान बिजली महारानी की कोप दृष्टि पड़ जाती, तब क्या होता?

संस्था का नाम सुनते ही मेरी रीढ़ की हड्ड़ी में न जाने क्यूँ एक अरसे से एक सुरसुरी सी दौड़ जाती है. एक चित्र खींच आता है मानस पटल पर किसी संस्था का, जिसे अपने पापों, घोटालों को अंजाम देने के लिए सबसे मुफीद और पावन उपाय मान व्यक्ति, व्यक्ति न रह संस्था में बदल जाता है. फिर गोपनीय वार्षिक बैठक, बेनामी पदाधिकरी और स्वयंभू अध्यक्ष की आसंदी पर विराजमान स्वयं वह.

देश में आजतक जितना संस्थाओं के नाम पर घोटालों को अंजाम दिया गया है, उतना शायद ही कहीं और हुआ होगा.

शायद संस्था ही वह वजह हो जिससे उनका स्टेटस बिना बरसों तक लिखे भी बहुत ऊँचा लिखने वाले का बरकरार रहा आया हो, कौन जाने? संस्था के भीतर की बात जानना तो सरकारी ऑडीटर के लिए भी टेढ़ी खीर ही रहा है अतः भीतर जाने की बजाय वो बाहर के बाहर पैसे लेकर निपटारा करना सदा से सरल उपाय मानता रहा है.

अब तो ऐसी संस्थाएं भी आ गई हैं, जिसमें न तो ऑडिट और न आर टी आई का प्रावधान है.

खैर, समारोह बहुत भव्य रहा. उतना ही भव्य मुख्य अतिथि का उदबोधन जिसमें उन्होंने पुनः साहित्य और लेखन के गिरते स्तर पर गहरी चिन्ता जतलाई और इस पुस्तक को इस दिशा में सुधार लाने का एक ऐतिहासिक कदम निरुपित किया.

इस कार्यक्रम के बाद एक और वरिष्ट साहित्यकार की श्रद्धांजलि सभा में जाना था. वहाँ भी श्रद्धांजलियों के दौर में अनेक संदेशों में मृतात्मा को एक व्यक्ति नहीं, युग बताया गया और उनके अवसान को एक युग का पटाक्षेप.

एक युग के भीतर समाप्त होते अनेक युग. हर वरिष्ठ, हर गरिष्ठ के प्रस्थान के साथ एक युग का पटाक्षेप, और एक ऐसे रिक्त का निर्माण, जिसकी भरपाई कभी संभव नहीं. शुरु से आजतक ऐसे रिक्त स्थानों की जिनकी भरपाई संभव न थी, एक एक बिन्दी के आकार का भी गिन लें तो शीघ्र ही, या कौन जाने पूर्व में ही, शायद ही कोई स्थान बचे जो रिक्त न हो.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च 14, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/59066272

                                               

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1 टिप्पणी:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

क्या गजब का कटाक्ष है , बड़े बड़े साहित्यकार पर करारा व्यंग्य . बहुर खूब .