शनिवार, जनवरी 02, 2021

नए जमाने के साथ कदमताल

 


नया जमाना आ गया था. एक या दो बच्चे बस. बेटा या बेटी-क्या फरक पड़ता है? दोनों ही एक समान.

शिब्बू नये जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलाने में विश्वास करने वाला था. खुली सोच का मालिक. ऐसा वो भी सोचता था और उसके जानने वाले भी.

एक प्राईवेट फर्म में सुपरवाईजर था.

एक बेटी की और बस! तय कर लिया कि इसी को पाल पोस कर इसे बहुत अच्छा भविष्य देना है. सबने खूब तारीफ की. माँ बाप ने कहा कि एक बेटा और कर लो, वो नहीं माना. माँ बाप को पुरातन ठहारा दिया और खुद को प्रगतिशील घोषित करते हुए बस एक बेटी पर रुक गया. पत्नी की भी कोई बात नहीं मानी. पौरुष पर उठती उंगलियों को प्रगतिशील मानसिकता ठेंगा दिखाती रही और वो अपने फैसले पर अडिग रहा.

खूब पढ़ाया बिटिया को. इंजिनियर बना गई आई टी में. नया जमाना था. आई टी का फैशन था. कैम्पस इन्टरव्यू हुआ और बिटिया का मल्टी नेशनल में सेलेक्शन हो गया. सब जैसा सोचा था वैसा चला.

मंहगाई इस बीच मूँह खोलती चली गई. माँ की लम्बी बिमारी ने जमा पूंजी खत्म कर दी. उम्र के साथ रिटायरमेन्ट हो गया. नया जमाना, नये लोग. पढ़ाई और नया काम सीखने में वह पुराना ही रह गया, बिना अपडेट हुआ..वर्कफोर्स से बाहर हो गया. उम्र ५८ पार हो गई. नया कुछ करने का जज्बा और ताकत खो गई. घर बैठ गया. बेटी उसी शहर में नौकरी करती रही. कई लाख का पैकेज. जरुरत भी क्या है कुछ करने की, वह सोचा करता. प्राईवेट कम्पनी में था तो न कोई पेंशन ही बनी और न कोई फंड मिला.

बिटिया को तो समय के साथ साथ बड़ी होना ही था तो बड़ी होती गई. शादी की फिक्र माँ को घुन की तरह खाने लगी मगर शिब्बू-उसे जैसे इस बात की फिक्र ही न हो.

पत्नी कहती तो झल्ला जाता कि तुम क्या सोचती हो, मुझे चिन्ता नहीं? जवान बेटी घर पर है. बाप हूँ उसका..चैन से सो तक नहीं पाता मगर कोई कायदे का लड़का मिले तब न!! किसी भी ऐरे गैरे से थोड़े ही न बाँध दूँगा. यह उसका सधा हुआ पत्नी को लाजबाब कर देना वाला हमेशा ही जबाब होता.

पत्नी अपने भाई से भी अपनी चिन्ता जाहिर करती. उसने भी रिश्ता बताया मगर शिब्बू बात करने गया तो उसे परिवार पसंद न आया. दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी लड़के पर थी. कैसे अपनी बिटिया को उस घर भेज दे.

पत्नी इसी चिन्ता में एक दिन चल बसी. घर पर रह गये शिब्बू और उसकी बिटिया.

जितने रिश्ते आये, किसी न किसी वजह से शिब्बू को पसंद न आये. लड़की पैंतीस बरस की हो गई मगर शिब्बू को कोई लड़का पसंद ही नहीं आता.

लड़की की तन्ख्वाह पर ठाठ से रहता था और बिटिया ही उसकी देखरेख करती थी.

उस रोज शिब्बू को दिल का दौरा पड़ा और शाम को वो गुजर गया.

उसको डायरी लिखने का शौक था. उसकी डायरी का पन्ना जो आज पढ़ा: १० वर्ष पूर्व यानि जब बिटिया २५ बरस की थी और नौकरी करते तीन बरस बीत गये थे तथा शिब्बू रिटायर हो चुका था उस तारीख के पन्ने में दर्ज था...

शीर्षक: बिटिया की शादी

और उसके नीचे मात्र एक पंक्ति:

" मैं स्वार्थी हो गया हूँ."

आज भी न जाने कितने शिब्बू हमारे समाज में हैं जो कभी प्रगतिशील कहलाये मगर अपने स्वार्थवश बिटिया का जीवन नरक कर गये. प्रगतिशील इंसान की सोच भी कभी कितनी पतनशील हो सकती है?

बिटिया अब घर पर अकेले रहती है. अभी अभी दफ्तर सर घर जाने के लिये निकली है-बेमकसद!!

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जनवरी ०३,२०२१ के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/57462723


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4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर कदमताल।
बधाई हो आपको।

Gyan Vigyan Sarita ने कहा…

जान साधारण की आदत है 'हवा की दिशा में  चलो, काम तकलीफ होगी'. परन्तु ऐसा करते वकतेक कहावत साकार होती है कि  'नक़ल भी अकाल से करना चाहिए" . इस युक्ति का उपयोग न करके नये  ज़माने के साथ कदमताल करने के परिणाम का दुखत अंत बहुत अच्छी तरह एवं मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।  बहुत ही सिचारणीय लेख है नव -वर्ष की भेंट के लिए धन्यवाद। ... 

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

ऐसी कई घटनाएँ देखी हूँ। बिटिया को समय रहते ख़ुद ही जीवनसाथी चुन लेनी चाहिए; अपने पिता का ध्यान भी रखना चाहिए। बहुत अच्छा लिखा।

कविता रावत ने कहा…

एक गलत फैसला काफी है जिंदगी नरक बनाने के लिए