शनिवार, नवंबर 30, 2019

हांके जाने वाले घोड़े विकास मार्ग पर बने रहें...




अगर आपके पास घोड़ा है तो जाहिर सी बात है चाबुक तो होगी ही. अब वो चाबुक हैसियत के मुताबिक बाजार से खरीदी गई हो या पतली सी लकड़ी के सामने सूत की डोरी बाँधकर घर में बनाई गई हो या पेड़ की डंगाल तोड़ कर पत्तियाँ हटाकर यूँ ही बना ली गई हो. भले ही किसी भी तरह से हासिल की गई हो, चाबुक तो चाबुक ही रहेगी जो हर घोड़े के मालिक के पास होती है. याने घोड़ा है तो चाबुक तो पक्का होगी ही. मगर इसके उलट यदि किसी के पास चाबुक है तो घोड़ा भी होगा ही- यह मान लेना ९०% मामलों में गलत ही साबित होगा.
दरअसल यही चाबुक मनुष्य को, जो कि मूलतः स्वभाव से आलसी होता है, घोड़े के समान उर्जावान बनाती है. अधिकतर सरकारी दफ्तर इसी चाबुक के आभाव में पटे पड़े हैं आलसी शूरवीरों से. घोड़े अगर आलस्य की चादर ओढ़ लें तो गधों की श्रेणी में आ जाते हैं.
चाबुक का कार्य मुख्यत: घोड़ों को घोड़ा बनाये रख उन्हें नियंत्रण में रखने का है. चाबुक यह नहीं जानती कि वो जिस घोड़े पर बरस रही है, वो उच्च नस्ली है या आम नस्ल का घोड़ा- वो सब पर एक सी बरसती है. उसका बरसना मौसम ज्ञानी नहीं, चाबुकधारी निर्धारित करते हैं कि कितना कब कहाँ और कैसे बरसना है.
वैसे ही घोड़े, चाहे नस्ली हों या आम, नहीं जानते कि चाबुक सुनहरी धागे वाली महंगी है या घर पर बनी हुई है या डंगाल से तोड़ कर बनाई गई- वो तो बस उसके बरसने के अंदाज पर निहाल हो दौड़ते, मुड़ते और ठहरते हैं.
मगर चाबुकधारियों का अपना एक अलग जहान है, जहाँ चाबुकधारी की औकात चाबुक की क्वालिटी से आंकी जाने लगी. इसका महात्म ऐसा हो चला कि चाबुकधारी बजरंगी मठाधीष अब अपने चाबुक फैशन डिज़ानर्स से बनवाने लगे. पहले वाली सूत की डोरी लगी चाबुक मठाधीषों को निम्न श्रेणी की नजर आने लगी. हालांकि घोड़े इस बात से अब तक अनभिज्ञ ही हैं कि वो किस चाबुक से हकाले जा रहे हैं. उन्हें तो बस हकाले जाने से मतलब है.
चाबुक का करिश्मा ऐसा कि हकालना रोको और बस देखो घोड़ों को खच्चर और गधों में तबदील होते. चाबुक रुकी और बस, हर हरे भरे खेत में मुँह मारना मानो इनका जन्म सिद्ध अधिकार हो. जहाँ से जितना चर पाओ..भरते जाओ. लीद जमा करा दो विदेशों में. कोई जान ही नहीं पायेगा कि क्या चरा और क्या निकाला.
नये घोड़ों की नई नसल भी हरी घास और चने की खुद के लिए आवंटित खुराक छोड़ कर चाबुक के आभाव में यत्र तत्र सर्वत्र मुँह मारने की फिराक में निकल पड़ती है.
बहुत जरुरी है कि मठाधीष चाहे डिज़ाईनर चाबुक ही लिये रहे, क्या फर्क पड़ता है एक चुटकी नमक किनारे कर देने से, पर इतना ध्यान रखे कि चाबुक लहरती रहे, गरजती रहे और बरसती रहे. चाबुक चलाना भी तो अपने आप में एक कला ही है. कभी डोरी हवा में नचाओ, कभी हड्डे पर मार करके डराओ और कभी सच में शरीर पर बरसाओ. जब जैसा मौका हो, जब कहीं भटकन का अहसास हो, पुनः रास्ते पर लाने का हुनर ज्ञात रहे बस. ज्ञात हुनर अज्ञात अभिलाषाओं की भंवर में डूब न जाये कहीं.
अंत में उद्देश्य तो यही है अगर विकास का मार्ग चुना है तो हर घोड़े जो हांके जायें वो इसी विकास मार्ग पर बने रहें. हर भटकन पर चाबुक बरसती रहे और बजरंगी मठाधीष घोड़े संभालने में यही न भूल बैठे कि उनका मुख्य कार्य विकास का मार्ग प्रश्सत करना है न कि घोड़ों को संभालने की कला में दक्षता हासिल करना. थोड़ा सा विवेचन जरुरी है वरना घोड़ा संभाल सीना फुलाये घुमते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा मात्र मति भ्रम के.
यूँ तो अभी चिन्ता का विषय यह है नहीं क्यूँकि सबसे बड़े अस्तबल के मठाधीष अभी यही सीखने की कोशिश में जुटे हैं कि चाबुक डोरी की तरफ से पकड़ कर चलाते हैं या लकड़ी की तरफ से.
पुराने छुटपुट क्षेत्रिय अस्तबल के घोड़े जो पूर्णतः गधे हो चुके थे, पुनः मात्र विरोध के उद्देशय से एकजुट हो घोड़ा बनने की लम्बी तैयारी में है. अभी तो पुनः चार साल हैं. गधे और खच्चर बन चुके घोड़ों को च्यवनप्रास खिलाया जा रहा है. फिर से उन्हें घोड़ा बनाये जाने की पुरजोर तैयारी की जा रही है. उनके तथाकथित मठाधीषों के चाबुक भी डिजानर भले न भी हों तो भी फैशनेबल तो है ही..और फिर पहले ही बता दिया है कि चाबुक तो चाबुक होता है- घोड़े इसमें फरक नहीं करते. मगर उनकी समस्या यह है घोड़े से गधे बने को तो आप फिर से चचच- चाबुक, चना और च्यवनप्राश के भरोसे घोड़ा बना सकते हैं मगर जो शुरु से गधा रहा हो और मात्र हरी घास और चने के जुगाड़ में आया हो, उसको कैसे बदलोगे?
पर फिर भी- जब इत्ते सारे एकजुट मुट्ठी बाँधेगे तो खुले पंजे से तो मजबूत हो ही जायेगे अतः चेताया.
तानो अपनी सुनहरी चाबुक हे महारथी- घर वापसी का नहीं विकास प्राप्ति का मार्ग प्रस्शत रखो!! घर वापसी स्वतः इसी राजमार्ग से हो जायेगी. मेरा विश्वास कीजिये.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार दिसम्बर] १, २०१९ में प्रकाशित:


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1 टिप्पणी:

Gyan Vigyan Sarita ने कहा…

This article reminds of Tonga driven by Horse and cond controlled through Chabuk.

Present generation who has seen horses in racecourse have seen horse being controlled by slings. They may find it difficult to comate the scenario.

Using colloquial slangs has made it relevant and youngsters may like to know how original horses decay to donkies if not controlled through Chabuk.

It applies as much to me as to them as well.

Great!!!!