बचपन में किन्हीं बड़े
त्यौहारों पर घर में व्रत रखा जाता था. बेहतरीन फलाहारी
पकवान बनते. कुट्टु के आटें की पूड़ी, काजू मूँगफली भुनी हुई सैंधा नमक के साथ, आलू की सूखी सब्जी, सिंधाड़े के आंटे का
हलुआ, मखाने की खीर, साबुदाने की खिचड़ी, फ्रूट सलाद और भी न
जाने क्या क्या..
जो घर में व्रत न रहते, उनके लिए रोज की तरह रोटी, सब्जी, दाल, चावल बनता. हम बालमन पकवानों की लालच
में आकर व्रत रखते. कहा जाता कि एक आसना ( याने कि एक बार में बैठ कर जितना खाना हो खा लो फलाहारी, फिर नहीं मिलेगा सारा दिन). हम भी सुबह ११ बजे के आसपास फलाहारी खाकर मजे में हो लेते. मगर बच्चे थे कितना भूखे रहते आखिर?
तब मित्र सरफराज काम आता. सरफराज भाईजान के घर रावनवमीं का कैसा व्रत? वो घर से चिकन बिरयानी अपने खाने के नाम पर टिफिन में बंधवा
कर तालाब के पास लेता आता और मैं उसके साथ तबीयत से बिरयानी का मजा लेता. तब तक यह हिन्दु मुस्लिम काट खाओ के बदले हिन्दु मुसलिम भाई
भाई का जमाना बरकरार था.
तब तक न तो राजनिति गर्त की
इतनी गहराई तक उतरी थी और न ही मित्रता में इस तरह से धोखा देने के साधन हर हाथ
में थे कि सेल्फी लेकर ब्लैक मेल कर सकें. एक विश्वास बरकरार
रहा था जब तक कि धोखा न हो जाये. आज अगर धोखा न हो जाये तो
विश्वास करने का जोखिम उठाने को मन बड़ी मुश्किल से तैयार होता है.
सरफराज के घर पर व्रत को
अलग नाम से पुकारते थे. पुकारता तो वो अम्मा और
बाबू जी को भी अम्मी और अब्बू था मगर उससे मायने नहीं बदल जाते. रिश्ता तो वहीं था. व्रत को वो रोजा
कहते. रोजे के वक्त वह खाना खाता
मूँह अंधेरे ही और फिर उसे देर शाम इफ्तार की दावत में खाना मिलता. इस बीच खाना पीना तो दूर, थूक गिटकने की इजाजत भी न होती. तालाब पर हमारी दुपहर तब भी साथ गुजरती मगर मेरे घर की दाल
चावल और बैंगन की सब्जी के साथ. वो दीवाना था मेरे घर के
खाने का और मैं उसके घर के.
बड़े हो गये तो समझदार हो
गये. समझदार समझाई गई उन
समझदारियों से हुए जिसमें सरफराज जैसे मित्रों की मित्रता को धर्म निर्धारित व्रत
के नियमों को तोड़ने की खौफनाक साजिश बताया गया और हमारे द्वारा मित्रता के बदले
लौटाये गई मित्र धर्म के कर्तव्य को लव जिहाद टाईप अपने रंग में ढाल लेने का उनका
ही प्रयास बताया गया. कहीं से भी यह हमारी गल्ती
न कही गई बल्कि हमारे भोलेपन का फायदा उठाते हुए एक साजिश का हिस्सा माना गया.
चलो, हम तो फलाहार के चक्कर
में और सरफराज कुटाई के डर में अपनी अपने उपवास रखा करते थे मगर आजकल नेता वोट की
लालच में जो उपवास रखने का उपक्रम फैला रहे है, उसमें पक्ष क्या और विपक्ष क्या,
दोनों ही हमारे बचपन वाला खेल खेल रहे हैं. हम तो बच्चे थे और हमारी हरकतें वो
बचपन वाली शरारतें. मगर ये तो हमारे कर्णधार, हमारे नेता हैं और अपनी मक्कारियों
से हमारी ही आँख में धूल झौंक रहे हैं.
-समीर लाल ’समीर’
जबलपुर से प्रकाशित पल पल
इंडिया में अप्रेल १७, २०१८ को:
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