जिस देश में लोग जी डी पी की कमी बेशी को भी
गणपति देवा का प्रसाद मान कर ग्रहण कर लेते हों, वह किसी की मार्फत विकास की राह तके, अजब
लगता है.
ऐसे में विकास भी गणपति देवा के हाथों में ही छोड़ दिया जाना चाहिये. पान
के ठेले पर खड़े ज्ञान बांटते हुए भक्त बता रहे थे कि जीडीपी का फुल फार्म गणपति
देवा का प्रसाद (जीडीपी) है- फिर प्रसाद तो प्रसाद होता है, इसमें
कम ज्यादा क्या देखना? जितना मिला है प्रभु कृपा जान ग्रहण करो.
दूसरे पक्ष ने भी उसी पान की दुकान के मंच से
अपनी बात कही कि आश्चर्य होता है कि कोई प्रश्न तक नहीं करता कि जिन तुगलकी फैसलों
के कारण यह गिरावट आई है कम से कम अब तो उस पर लीपा पोती करके उसे अच्छा बताना बंद
कर दो. गोरखपुर
से हरियाणा तक जहाँ बोलना चाहिये था, वहाँ चुप रह जाते हो और जहाँ गल्ती कर बैठो हो, वहाँ
चुप रह कर पाश्चाताप करने की बजाये नित अच्छाई गिना गिना कर और भद्द उतरवा ले रहे
हो.
आज इस लीपा पोती को सुनकर अगर शब्द चित्र बनाऊँ
तो ऐसा कहा जायेगा कि नोटबंदी की घोषणा के बाद लोग बोरों में रुपया बंद करके बैंक
में दे गये. बैंक
वालों ने उन बोरों पर खाता नम्बर का टैग लगाया और ट्रक में लाद कर रिजर्व बैंक भेज
दिया. जब
सारे देश भर से ट्रक लद लद कर रिजर्व बैंक पहुँचे, तब उनको एक गोदाम में बंद करके कुछ
बंदों की ड्यूटी लगाई गई कि चलो, यह रहा स्पंज और ये रहा पानी और ये रबर बैण्ड. एक
एक बोरा खींच कर लाओ. गिन गिन कर १००-१०० की गड्डियाँ बाँधों और रजिस्टर में
नोट करते जाओ और फिर टोटल लगा कर बताओ. अब कभी पानी खत्म तो कभी स्पंज घिस गया, कभी
रजिस्टर भर जाये तो कभी रबर बैण्ड चुक गये..करते कराते गिनते गिनाते ८ महिना में बेचारे
गिनती कर पाये तब जाकर पता चला कि चलो, सब वापस आ गये हैं.
कुछ बोरे गोदाम में संदिग्धा अवस्था में मिले, उन्हें
शक के दायरे में रखा गया है और बताया जा रहा है ऐसे २ करोड़ से ज्यादा कांड दर्ज
होने की तैयारी में है जिनकी गहराई से जांच की जायेगी. गिनने में लगे समय के अनुपात से देखें
तो गहराई से जांच के परिणाम २०३० तक आने की संभावना है. तब सब दूध का दूध और पानी का पानी हो
जायेगा. तब
जाकर लोगों को पता चलेगा नोटबंदी का असली फायदा.
आर बी आई के गिनकरों को शबाशी और हाथों में
गिनते गिनते उठ आये दर्द के लिए एक एक झंडु बाम की शीशी और इन निक्कमें बैंक मैनेजर और कर्मचारियों को ’कारण
बताओ नोटिस’ दिया
जाना चाहिये कि बिना गिने भेजते हो नोट..सब काम आर बी आई को करना पड़ता है.
पता नहीं पास बुक में क्या चढ़ाया होगा इनने, जब
लोगों नें रुपये जमा किये होंगे? ४ बोरा जमा. दो झोला जमा..ऐसा ही कुछ किया होगा और तो बिना गिने
क्या रास्ता है?
इससे अच्छा तो जितने नोट इश्यू किये थे, उस
कागज का वजन नोट कर लिए होते और वापसी हुए वालों के वजन से तौल कर कम ज्यादा बता
लेते. चूँगी
पर ही तौल हो जाती और फट से एक दिन में खुलासा हो लेता मगर हमसे कोई पूछे, तब
न बतायें!
पान की दुकान पर सिगरेट के धुँए से छल्ला बनाते हुए धुनकी रिक्शे वाला बोल रहा है.
एक सज्जन नाम न बताये जाने की गारंटी मिलने के
बात बोले कि इनसे कहो कि भरपाई न कर सको तो कम से कम माफी ही मांग लो. कुछ
तसल्ली ही दे दो कि आगे से सोच समझ कर फैसले लोगे.
मने हालत यह हैं कि इनकी तकलीफ भी हम कहें और
इनका नाम भी न बताया जाये? लेखकों से आज भी यह उम्मीद कि कलम नहीं तलवार
पकड़े हो..जानकर
मन प्रफुल्लित हो उठा. मगर सही मायने में हिन्दी मे लिख रहे हम जैसे
प्लास्टिक की तलवार उठाये योद्धाओं को न तो कोई गंभीरता से लेता है और न ही बहुत
ज्यादा तव्वजो देता है. अधिकतर धारदार तलवारबाज उन्हीं के चरण वन्दन
में लगे हैं जिनके खिलाफ तलवार भांजने की उनसे उम्मीद थी. वह तो बस सम्मान और पद बटोरने में चाह
लिए आरती गा रहे हैं और बाकी के बच रहे अपना अखाड़ा चमका रहे हैं.
पान खाने से दाँत भले खराब होते हैं मगर
सामान्य ज्ञान के चक्षु पूर्ण रुप से जागृत हो जाते हैं. इसी कड़ी में जाना कि जनता भोली जरुर
होती है, पागल
नहीं है (पागल
मैने लिख दिया है उनके बोले शब्द का प्रर्यायवाची). जनता सब धीरे धीरे समझ जायेगी. बिल्ली
बन कर देश नहीं चलाया जाता कि बिल्ली की तरह दूध मलाई चट करते समय आँख मींच लो और
सोचो कि कोइ देख नहीं पा रहा.
वह ज्ञान प्रसारण आगे बढ़ाते हुए बोले सकारात्मक
सोच रखना अच्छी बात है. बातों का उजला पक्ष जरुर देखा जाना चाहिये मगर
उजला दिखाने के चक्कर में इतना भी उजला न बना डालो कि देखने वालों की आँखे चौंधिया
जायें और उन्हें कुछ और दिखना ही बंद हो जाये.चौंधियाई आँखे भी कुछ समय में अभस्त
होकर सामान्य देखने लग जाती हैं. नकली चौधियाहट क्षण भंगुर है. जिसे
देखो हाई वोल्टेज टार्च लिए घूम रहा है, किसी ने सच्चाई बोलने के लिए मूँह खोलने की
कोशिश भी की तो आँख में रोशनी मार देता है. जनता आँख मल रही है.
सारे अर्थशास्त्री मुंबई में डिब्बी डिब्बी
पानी भर के वापस समुन्दर में डाल कर शहर को सामान्य हालत में लाने में व्यस्त लग
रहे हैं और ये दिल्ली में बैठे अर्थशास्त्र की नई परिभाषायें गढ़ने में लगे हैं.
कल की ताजा परिभाषा है कि अर्थशास्त्र में
नुकसान जैसी कोई चीज ही नहीं होती, यह मूर्खों के दिमाग की उपज है सिर्फ हमें
बदनाम करने के लिए. अर्थशास्त्र में सिर्फ प्राफिट होता है. कभी
पॉजिटिव प्राफिट होता है तो कभी निगेटिव प्राफिट..
अतः आमजन निश्चिंत रहें हम आर्थिक विकास की राह
पर है और राह में कभी ढलान और कभी चढ़ाई तो लगी ही रहती है. विकास की राह किसी स्टेडियम का सपाट
ट्रैक नहीं होती. वैसे भी सपाट ट्रैक पर दौड़ कर हमने आज तक क्या
अर्जित किया है..ओलम्पिक के परिणाम गवाही देते हैं इस बात की.
सपाट राहें हमें रास नहीं आती.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे
के सितम्बर ०३,२०१७ में प्रकाशित
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1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-09-2017) को "आदमी की औकात" (चर्चा अंक 2717) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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