बचपन में जब शहर में मेला भरा करता था तो उसमें
ब़ए उत्साह से जाया करते थे. तरह तरह के झूले, नाच गाना, खूब सारी दुकाने मसलन
चुड़ियाँ, बिंदी, टिकली, गमझा, कुर्ता, खूब खाने पीने की दुकान, बरफ के गोले, शरबत,
गुब्बारे, चरखी, ताजमहल के सामने मोटर साइकिल पर बैठ कर फोटो खिंचवाने की दुकान,
मौत का कुँआ, जानवरों के करतब, रस्सी पर चल कर करतब दिखाते नट नटनियाँ, भालू का
नाच- बड़े लम्बे चौड़े मैदान में मेला भरता था. बच्चों के गुम होने और मिल जाने के
लाऊड स्पीकर पर एनाउन्समेन्ट होते रहते थे.
जब बड़े हुए तो पता चला कि उधर कोने
वाले स्टालों में जो चारों तरफ से घिरे होते थे, जहाँ बचपन में कभी हमें नहीं ले जाया
गया, वहाँ बम्बई से आई नृत्यांगनाओं का फिल्मी नाच होता है. बैन्च पर बैठ कर खूब
लोग सीटियाँ बजाते और नाचने वाली की अदाओं पर नोट और सिक्के भी उठाये जाते थे.
मेले से लौटते तो गुब्बारे, पूँगी और चकरी तो जरुर ही साथ लाते थे. हमारे जेहन में
तो यही चित्र उभरता है आज भी
जब कभी मेले की बात उठती है. उस
वक्त मेले पर निबंध की किताब आती है और उसमें भी ऐसा ही कुछ मेले का विवरण होता
था.
बढ़ती उम्र के साथ बाल गिरने, दाँत
गिरने आदि के साथ एक और घटना अनजाने में घटित होती है कि न जाने कितनी ही
महत्वपूर्ण चीजों का इतिहास हमसे छोटा हो जाता है और हम बैठे डंडा पीटते रहते हैं
कि यह भी कोई बात हुई, हमारे जमाने में ऐसा होता था.
आज जब विश्व पुस्तक मेला की धूम मची है
तब हम इस मात्र ४१ साल के इतिहास वाले मेले को, अपने जमाने के मेले की तस्वीर के
फ्रेम में बैठालने की नाकाम कोशिश में लगे झुंझला रहे हैं.
कोई पूछता है तो बस वही घिसा पिटा टेप
शुरु, ये मेला भी कोई मेला है भला..दुकानों के नाम पर बस किताबों के प्रकाशकों की
दुकानें..मेले में अधिकांशातः आने वाले भी लेखक, जिनकी किताब उन्होंने उन्हीं में
से किसी प्रकाशक से, आधुनिक प्रकाशन प्रक्रिया (इसका विवरण वैसे तो आपको पता है
क्यूँकि हमें पढ़ने वाले भी तो अधिकतर लेखक ही हैं- इसे अलग से आलेख में बतायेंगे
कभी) के तहत, छपवाई होती है, खरीदने वाले भी लेखक, पुस्तक का प्रचार प्रसार कर
बिकवाते भी लेखक, विमोचन करने वाले भी लेखक, विमोचन में आने वाले भी लेखक, फोटो
खींचने वाले भी लेखक, फोटो छापने वाले भी लेखक, समीक्षा करने वाले भी लेखक,
समीक्षा छापने वाले भी लेखक, समीक्षा पर टिप्पणी करने वाले भी लेखक. एक लेखक दस
स्टालों में घूम घूम कर पुस्तकें खरीद रहा है, जिसकी पुस्तक खरीद रहा है, वो भी
वहीं स्टाल के आसपास कलम थामे हस्ताक्षर करने को बेताब घूम रहा है और उससे अधिक
बेताबी हस्ताक्षर करते हुए खरीददार लेखक के साथ सेल्फी खिंचवाने की है. खरीददार भी
किताब खरीदते, फोटो खिंचवाते बार बार लेखक को अपने उस स्टाल पर आने का निमंत्रण दे
रहा है, जहाँ उसकी पुस्तक है.
लेखक को भी यह कर्ज उतारु प्रक्रिया में जाकर उस
लेखक की किताब खरीदना जरुरी है, इस बार दस्तखत करने वाला और सेल्फी लेने वाले आपस
में बदल जाते हैं. अगर किताब की तस्वीर साथ न हो, तो दोनों तस्वीरें एक सी लगें.
खरीदते हुए और बेचते हुए. संस्कारवान देश है..आप नमस्ते करो तो हम जरुर मनस्ते
करेंगे आपको. कई बार सोचता हूँ कि एक सीढी और सब मिल कर चढ़ें तो वो दिन भी दूर
नहीं जब प्रकाशक भी लेखक ही हो लेगा. आखिर प्रकाशन के इतने टूल आ ही गये हैं अन्तर्जाल
पर. लोग छाप ही रहे हैं अपनी खुद की किताबे अब. तब सोचिये मेले के अंत में पूरे
जमा खर्च का हिसाब लगाया जायेगा, तो पता चलेगा कि ५० किताब घूम घूम कर मैने खरीदी
और वो ५० लेखक जिनकी किताब मैने खरीदी वो मेरे आमंत्रण को स्वीकारते हुए आ आ कर
मेरी किताब खरीद ले गये. जुबानी जमा खर्च निल बटे सन्नाटा. मेला केश लेस बनाया जा
सकता है तब...किताब के बदले किताब...कैश कैसा?
हमारे साहेब तो इस मेले के ब्राँण्ड
एम्बेसेडर बन जायेंगे तुरंत..विश्व पुस्तक मेले के झंड़े पर समीर लाल ’समीर’ की
किताब पढ़ते उनकी तस्वीर होगी..
किस्सा सुनने वाले मुझसे पूछ रहे हैं
कि पशु मेले में भी तो सिर्फ पशु ही बिकने आते हैं. मैं समझा नहीं पा रहा हूँ कि
सिर्फ पशु ही बिकने आते हैं मगर बेचने वाले बेच कर नगद घर ले जाते हैं न कि अच्छी
नसल का घोड़ा बेच कर मजबूरी में बेनसली गधा खरीद कर, सेल्फी सांटे घर चले जा रहे
हैं मेले की रिपोर्ट फेसबुक पर चढ़ाने.
वैसे आप किसी भी तरह से इसे मेरे विश्व
पुस्तक मेले में न पहुँच पाने की मजबूरी में बिल्ली द्वारा खंभा नोंचने जैसी बात
कतई न समझियेगा. बहुत मन होता है आने का. किताब छपे भी समय गुजर गया..तब भी नहीं आ
पाये थे. अगले बरस कोशिश करेंगे आने की मगर इससे यह अंदाजा भी मत लगाईयेगा कि इस
बरस मेरी कोई किताब आने वाली है और इसलिए भूमिका बाँध रहा हूँ.
एक सोच है कि मेले में सब कुछ तो है बस
पूरी भीड़ में से जो गायब है वो है विशुद्ध पाठक. मन करता है कि एक पुस्तक मेला ऐसा
लगे जिसमें सिर्फ विशुद्ध पाठक आयें और लेखकों के आने पर पूर्ण पाबंदी हो.. पाबंदी
जैसा बड़ा कदम..बड़ा है तो क्या हुआ, उठाया तो जा ही सकता है. भले ही सफल न हो तो न
हो..देख ही रहें हैं आजक्ल बड़े बड़े पाबंदी वाले कदमों के अंजाम.
डिसक्लेमर: कोई बुरा न माने प्लीज..महज
हास्य व्यंग्य हेतु बातचीत है...पता चला कि हम लेखक समुदाय से ही निकाल दिये गये. वैसे
मैने शुरु में ही कहा था कि अधिकांशतः..फिर आप तो अपवाद हैं जी!! लिखते रहें.
-समीर लाल ’समीर’
#jugalbandi #जुगलबंदी
#jugalbandi #जुगलबंदी
8 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर :)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "ब्लॉग बुलेटिन - ये है दिल्ली मेरी जान “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
एक कहावत सुनी थी -"पीर,बर्बची भिश्ती खर"{ वाली (सारे रोल एक में आ जायें जब),और सुझाव बढ़िया है .
ज़ोरदार व्यंग्य धीरे से उतार दिया यहाँ 🙂 !!
डिस्क्लेमर के बहाने कितनों को लपेट लिया समीर भाई ... मज़ा आ गया इस व्यंग का ...
हमेशा की तरह शानदार
और डिस्क्लेमर तो जबरजस्त........."आप तो अपवाद हैं जी" :-)
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शानदार..सटीक हमेशा की तरह
और डिस्क्लेमर........."आप तो अपवाद हैं जी" .......जबरजस्त
प्रणाम स्वीकार करें
हास्य-व्यंग्य के बहाने मर्म की बात निकाली है आपने .
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