हर बात में किसी की निन्दा करना कहाँ तक उचित है.
जो भी काम करे, उसकी निन्दा.
समरथ को नहीं दोष गुसांई तो सुना था मगर फकीर की
तो हर बात में दोष निकालो, ऐसा कहाँ लिखा है?.
सूट बूट पहने तो बुराई कि इत्ता महँगा पहन लिया
और कुर्ता पायजामा पहने तो बुराई कि दिन भर में तीन तीन बार बदलता है. ये तो देखते
ही नहीं ये बंदा एक दिन में कर भी तो तीन दिन का काम रहा है, तो तीन बार नये
कुर्ते पायजामें पहन लिए तो क्या बुरा कर दिया? पहले हर मंत्री अपना अपना काम किया
करता था और उसे उसका पूरा श्रेय भी मिल जाता था. आज जब बेचारे अकेले पर सब कुछ आन
पड़ा है और बस दो तीन साथी थोड़ा बहुत हाथ बटा देते हैं तो कपड़े बदलने पर आप चले आये
बुराई करने. बताओ, उन तीन चार, बहुत ज्यादा गिनोगे तो पाँच मंत्रियों के सिवाय अभी
बाकी मंत्रियों के नाम भी ९० प्रतिशत देश न बता पायेगा, काम क्या कर रहे हैं इसका
तो पूछना भी मत.
पुराने नोट बंद करता है तो चिल्लाते हो कि ये
क्या कर डाला? नये नोट लाता है तो फिर चिल्लाते हो कि ये कैसा चूरन वाला नोट निकाल
डाला? कभी कोई बुराई तो कभी कोई बुराई..कभी कहते हो कि नोट रंग छोड़ता है तो कभी
कहते हो कि नोट में चिप लगी है? कभी सिद्ध करने लगते हो कि नोट में सोलर एनर्जी
वाले सेल हैं, एक ने तो बल्ब जला कर भी दिखा दिया ... ये तो अच्छा ही है न!! बिजली
नहीं आती है तो भी तुम चिल्लाते हो..अब बिजली नोट से चल जायेगी तो भी परेशानी.
५६ इंच का सीना बता दिया तो लोग नापने लग गये कि
५६ नहीं ५४ ही है...भले खुद का ४० इंच ही क्यूं न हो..उनका ५६ नहीं होना चाहिये.
हद हो गई बुराई करने की.
देशाटन हो या विदेशाटन, दोनों ही को जीवंत
ज्ञानार्जन का सर्वश्रेष्ट गुरु माना गया है. अब देश का प्रधान मूर्ख हो ये तो तुम
कभी बर्दाशत करोगे नहीं और अगला ज्ञानार्जन के लिए लगभग ९०% समय विदेशाटन में
गुजार रहा है तब भी तुम हल्ला मचा रहे हो..कि एन आर आई प्रधान हैं. विदेश घूमते
रहते हैं. वो करें तो क्या करें? घर बैठ जायें तो कहते हो निकलते नहीं और निकल
जायें तो कहते हो कि घर बैठते नहीं.
पहले चिल्लाते रहे कि अपनी माँ, पत्नी को छोड़
दिया..हाल ही में योगा छोड़ कर माँ से मिलने जाने का ट्वीट किया तो उसका बखेड़ा खड़ा
कर दिया कि हर बात का माइलेज लेते हैं.
अभी कुछ दिन पहले बैंक से नोट निकालने की कतार
में माँ के खड़ा कर देने की खबर का बवाल मचा कि कैसा बेटा है? इतनी बुजुर्ग माँ को
बैंक की कतार में खड़ा कर दिया..मात्र ४५०० रुपये निकालने के लिए.. धिक्कार है...
और आज जब खुद के ही नहीं बल्कि समूचे राष्ट्र के
पिता, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का पद भार ग्रहण करते हुए उनको आराम देने की मंशा
दिल में सजाये उनका चरखा हाथ में थाम सूत कातते हुए अपनी तस्वीर खादी ग्रामोध्योग
के कलेंडर और डायरी पर छपवा दी, तो फिर बवाल कि ऐसा कैसा कर सकते हैं? क्या खुद को
गाँधी समझने लगे हैं? क्या कल से खुद के काते सूत के कपड़े बनवा कर पहनेंगे?
कितने नादान हो..खुद के काते सूत के कपड़े? हद
करते हो...जब आप पनचक्की से बिजली बनाते हैं तो क्या खुद उसका उपभोग करते हो? नहीं
न, आप उसे मेन ग्रीड में डालकर उसका क्रेडिट ले लेते हैं बस...
अगर मेरे प्रधान ने सूत काता है, भले ही फोटो
में, तो इतना क्रेडिट बनता है कि नहीं? फिर कपड़ा किसी और के काते सूत का भी पहना
तो कहलायेगा तो इसी का क्रेडिट..मगर मुदा है कि काता कितना है..वो तुमको कभी भी
पता न चलेगा..आर टी आई में ये इन्फार्मेशन लेना मना है थीक वैसे ही..जैसे कि आर बी
आई में कितने नोट छपे या जमा हुए..
काहे बवाल मचाते हो..अभी तो अनेक ऐसे मौके
मिलेंगे जब बवाल मचाने के बदले कलेजा ही मूँह मे आ जायेगा और कुछ बोल भी न पाओगे..
बस!! एक काम करो..यूपी और पंजाब का चुनाव जिता कर
तो देखों..२ अक्टूबर को भूल जाओगे और फिर १७ सितम्बर मनाया करोगे..अब मुझसे मत
पूछना कि १७ सितम्बर को क्या है..कुछ खुद भी तो गुगल करो!!
आज न जाने क्यूँ फिर वो कविता याद आई जो बचपन में
बाल भारती में पढ़ते थे:
माँ, खादी का कुर्ता दे दे, मैं गाँधी बन जाऊँ,
सब मित्रों के
बीच बैठ फिर रघुपति राघव गाऊँ!
निकर नहीं धोती
पहनूँगा, खादी की चादर ओढूँगा,
घड़ी कमर में
लटकाऊँगा, सैर सवेरे कर आऊँगा!
मैं बकरी का दूध
पिऊँगा, जूता अपना आप सिऊँगा!
आज्ञा तेरी मैं
मानूँगा, सेवा का प्रण मैं
ठानूँगा!
मुझे रुई की पूरी
दे दे, चर्खा खूब चलाऊँ,
माँ, खादी की चादर दे दे, मैं गाँधी बन जाऊँ!
-साभार: बालगीत
साहित्य (इतिहास एवं समीक्षा), निरंकारदेव ‘सेवक’
-समीर लाल ’समीर’
3 टिप्पणियां:
माँ, खादी का कुर्ता दे दे, मैं भी नेता बन जाऊँ,
नेता बनकर मैं भी रघुपति राघव गाऊँ!
...बहुत सुन्दर प्रस्तुति
मकर संक्रांति की शुभकामनाएं
बहुत सारी कविताएं याद आना शुरु हो गई हैं । कौन सुनेगा ?
बढ़िया ।
बहुत सुंदर संदेश दिया है
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