सच
कह न पायेंगे लब, आँखों
की जुबां पढ़ना
पढ़
पाओ खुद को जब तुम, औरों की जुबां पढ़ना...
जो
तुम में बस गया है किरदार अजनबी सा,
उसे
जानने की खातिर, गैरों की जुबां पढ़ना..
किस
प्यार से चमन को सींचा है बागबां ने...
जब
गंध कुछ न बोले, भौरों की जुबां पढ़ना..
है
सिलसिला-ए-ख्यवाहिश ये जिन्दगी मुसलसल
इक
दौर क्या मुनासिब, दौरों की जुबां पढ़ना..
जाना
समीर ने कब गम है किसी को कितना,
मुस्काते
गुल मिलेंगे, खारों की जुबां पढ़ना..
-समीर लाल ’समीर’










10 टिप्पणियां:
Behtreen
बहुत सुन्दर ... खारों की जुबां गर पढ़ पायें तो सब कुछ कितना सरल हो जाए .
आपकी तो बात ही क्या - कितने दिनों बाद कलम को मौका मिला ,आशा है ये क्रम चलता रहेगा !
बहुत सुन्दर लिखा है। "सिलसिला-ए-ख्यवाहिश ये जिन्दगी मुसलसल इक दौर क्या मुनासिब, दौरों की जुबां पढ़ना" बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति है। बधाई।
Behad umda sir
बहुत खूब !!!
जाना समीर ने कब गम है किसी को कितना,
मुस्काते गुल मिलेंगे, खारों की जुबां पढ़ना..
बहुत सुन्दर ...!?
अवश्य पढ़ेंगे दिल और नजर की जुबां .....
है सिलसिला-ए-ख्यवाहिश ये जिन्दगी मुसलसल
इक दौर क्या मुनासिब, दौरों की जुबां पढ़ना...
kya khoob keha sir
Gurdev बहुत खूब :))
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