रविवार, फ़रवरी 05, 2012

आलस्य का साम्राज्य और उसके बाशिन्दे

शनिवार की अलसाई सुबह.

सोचा था आज सुबह उठकर कुछ लिखूँगा. ऐसा लिखूँगा, वैसा लिखूँगा. जाने क्या क्या विचार आते रहे थे रात सोने से पूर्व. शायद पूरी सोच को कागज पर उतारने लग जाऊँ तो एक रोचक उपन्यास से कम तो क्या वृतांत होगा.

मगर इधर कुछ समय से वक्त की कमी ने ऐसा हाथ थामा है कि मौका ही नहीं लगता कुछ लिखने के लिए. सोच, भाव, विचार सब भीतर ही ठहरे रह जाते हैं, शब्द रुप लेने को तड़पते. इसी तड़पन में न जाने कितने विचार दम तोड़ देते हैं और न जाने कितने खो जाते हैं इस उमड़ती घुमड़ती भीड़ में.

किसी ने प्रश्न उठाया था तो बताना भी फर्ज समझता हूँ कि ऐसा नहीं है कि विचार या भाव चुक गये हों. उनका तो व्यस्तता के संग चोली दामन का साथ है. लबलबा कर भावों का समुन्द्र भरा है मगर उन्हें सहेज कर करीने से शब्दों का जामा पहनाना- एकांत मांगता है. एक स्थिरता मांगता है. समय मांगता है. एकाग्रता मांगता है. इनमें से एक की भी कमी बर्दाश्त नहीं कर पाता एक सधा आलेख या कहानी या फिर कविता.

लेटे लेटे गाना सुन रहा हूँ. फरीदा गा रही है:

सारी दुनिया के रंज और गम देकर

मुस्कराने की बात करते हो...

दिल जलाने की बात करते हो

आशियाने की बात करते हो!!!

और ईमेल में पत्रों का अंबार लगा याद आता है- चाहने वाले, यार, दोस्त पूछ रहे है नित- क्या बात है आजकल कुछ नया नहीं लिख रहे हो? सब ठीक तो है?

pen-paper

क्या जबाब दूँ?

समय की कमी का बहाना कब तक दोहराऊँ?

खाना खाना, नहाना, सोना तो बंद नहीं हुआ. सांस लेना और छोड़ना भी पूर्ववत जारी है तो क्या वक्त की कमी की मार खाने को सिर्फ लेखन ही मिला. वक्त की कमी या फिर इसे आलस्य कहूँ. मौसमी आलस्य. बदली बन कर बीच बीच में छाता रहता है. कभी भावों का अंधड़ आयेगा. आलस्य के बादल छटेंगे और शायद तब लेखन उतर आये कागज पर सज संवर कर.

यानि एक अनुरुप मौसम का इन्तजार कलम उठाने से पहले. मानो इन्तजार हो कि एक टेबल लग जाये, एक टेबल लैम्प जल जाये, कुछ खाली सफेद पन्ने जमा दिये जायें तो लेखन शुरु हो. बस सब कुछ स्वतः हो जाये और स्वयं कोई प्रयास न करना पड़े. स्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए. यह तो एक लेखक का धर्म न हुआ. यह अनुचित है.

निश्चित ही खुद को व्यवस्थित करना होगा. समय का प्रबंधन नये परिवेश में पुनः एक नये ढांचे के अनुरुप करना होगा. कुछ सप्रयास बदलना होगा खुद को. एक धर्म अपनाया है तो उसका पालन करना होगा. यूँ ही अव्यवथित, बिना किसी मनोयोग के, बिना किसी उचित प्रयोजन के कब तक चला जा सकता है.

यूँ तो पठन कार्य भी टला हुआ था किन्तु इधर कुछ विश्व प्रसिद्ध लेखकों की किताबें उठा ली हैं बहुत उम्मीद से. शायद उनका पठन पुनः कुछ उकसाये नया रच डालने को. यूँ भी लेखन के पठन की अनिवार्यता को मैं शुरु से अहम दर्जा देता रहा हूँ.

मेरा सदा ही मानना रहा है कि एक पंक्ति लेखन की पात्रता ही तब हासिल होती है, जब आप १०० पढ़ चुके हों. वरना तो हमेशा एकरस और उथला सा ही लेखन शेष रहेगा. कोई सार न होगा उस लेखन का.

व्यस्त जीवन शैली के बीच वृहद पठन, संवेदनशीलता, खुली मानसिकता, जागरुक नजरें और सचेत कान- ये ही आवश्यक अंग हैं बेहतर लेखन के. शैली तो आपकी खुद की ही होती है और भाषा- सभी भाषाओं की अपनी अहमियत है. तो पठन को भी संकीर्णता से परे विभिन्न भाषाओं के लेखकों के पास तक ले जाना होगा.

एक निर्देशन है खुद को स्वयं के लिए- सप्रयास इसमें ढलना होगा. देखें, कहाँ तक पहुँचते हैं.

फरीदा का गायन अब भी जारी है:

हमको अपनी खबर नहीं यारों

तुम जमाने की बात करते हो...

दिल जलाने की बात करते हो

आशियाने की बात करते हो!!!

-समीर लाल ’समीर’

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69 टिप्‍पणियां:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

रचनात्मकता बिजली की तरह कौधती है उसे बांधे रखना कहां हो पाता है... इसकी अपनी सीमा भी होती है

vijay kumar sappatti ने कहा…

समीर जी,
नमस्कार
कल ही आपको याद किये थे . देखा जाए तो आजकल हर दिन आपको याद किया जा रहा है , कभी किसलय जी की बातो के दौरान , कभी बवाल जी की बातो के दौरान और कभी गिरीश जी की बातो के दौरान.
आपने बहुत ही निश्चल मन से अपनी बात को कह दिया है , यही होता है आजकल , समय की कमी का बहाना ,सिर्फ और सिर्फ creativity पर ही पढता है. आपने ये पठान वाली बात बहुत अच्छी कही ., मन को छु गयी , लगता है , अब कुछ किताबे और खरीदना होंगा. और हाँ , आपने के किताब भिजवानी की बात कही थी . उसका इन्तजार है . और जल्दी से कोई कविता पढवा दीजिये .
प्रणाम
आपका
विजय

नुक्‍कड़ ने कहा…

लिखने के लिए पढ़ना जरूरी होता है।
यह बिल्‍कुल सच सच है।
हम यूं ही तो बीमार रहते हुए भी
12 से 15 अखबार
और औसतन एक पत्रिका रोज
यूं ही तो नहीं पढ़ते हैं
हमें आंखें अपनी फोड़ने का भी शौक इसलिए नहीं है
क्‍योंकि पहले ही उन पर चश्‍मा चढ़ा हुआ है
वह भी तो आंखों का फूटना और
विचारों का फूटना ही हुआ जी।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

एक एक शब्द धीरे धीरे मेरे मन को व्यक्त करता गया, मेरे आलस्य के साम्राज्य पर अट्टाहस करता गया...अब और लिखना है...जमकर..

राजेन्द्र अलस्थी ने कहा…

आदरणिय, यही तो मेरी भी समस्या है कि, किसी से ना बात करते हैं, बस काम दिन रात करते है, समय निकलता जाता है, फिर असमय समय की बात करते है,....
बहुत बढ़िया लेख.....पढ़ के कुछ लिखने की प्रेरणा मिलती है, मैं इसका लाभ उठाना चाहुंगा.......

राजेन्द्र अवस्थी ने कहा…

आदरणिय, यही तो मेरी भी समस्या है कि, किसी से ना बात करते हैं, बस काम दिन रात करते है, समय निकलता जाता है, फिर असमय समय की बात करते है,....
बहुत बढ़िया लेख.....पढ़ के कुछ लिखने की प्रेरणा मिलती है, मैं इसका लाभ उठाना चाहुंगा.......

मनोज कुमार ने कहा…

एक सच्चे, ईमानदार रचनाकार के मनोभावों का वर्णन। बधाई।

केवल राम ने कहा…

खाना खाना, नहाना, सोना तो बंद नहीं हुआ. सांस लेना और छोड़ना भी पूर्ववत जारी है तो क्या वक्त की कमी की मार खाने को सिर्फ लेखन ही मिला.


एक सोचने पर मजबूर करती पंक्ति ...हमें भी विश्लेषण करना है खुद का ...!

रचना दीक्षित ने कहा…

यूँ सोचते सोचते ही तमाम उम्र निकल जाती है...

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

मस्त लिखा,प्रवाह में बहता ही चला गया।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

आराम बड़ी चीज है,मुंह ढंककर सोईये ..
:)

P.N. Subramanian ने कहा…

आपके पुराने पोस्ट पर जाकर मैंने भी कल आपका ध्यान आकर्षित करने की सोची थी, स्वर्थ्य वश. आप लिखते रहोगे तो टिपियाते भी रहोगे.
इस पोस्ट को देख हर्षित हुआ. शुभकामनाएं.

पश्यंती शुक्ला. ने कहा…

Same here with me...........after a long time i visited my blog n sw ur new post........
As always ur writing insisted me to say something....its nothing but to say VERY NICE

Arun sathi ने कहा…

दादा,
बस इसी तरह की संवेदना बची रहे व्यस्तता के बीच, की लगे सांस लेने जितना जरूरी लेखन है।
और यूं थम कर जब लिख जाता है
तभी तो उसे इतिहास दुहराता है,,

सादर.

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत बढ़िया आलेख गुरदेव ....हमे भी कुछ लिखने की प्रेरणा मिली है

संगीता पुरी ने कहा…

सालभर से मेरा भी यही हाल है .. आपका कहना सही है ..
खाना खाना, नहाना, सोना तो बंद नहीं हुआ. सांस लेना और छोड़ना भी पूर्ववत जारी है तो क्या वक्त की कमी की मार खाने को सिर्फ लेखन ही मिला
दैनिक कार्यक्रमों को सुव्‍यवस्थित करना ही एकमात्र उपाय है .. इसके बिना काम होना मुश्किल है !!

Satish Saxena ने कहा…

मैं भी आपको पत्र लिख कर पून्चाने वाला था कि शक्तिशाली लेखनी क्यों रख दी भाई जी ?
उम्मीद है शीघ्र मूड में आओगे !

दीपिका रानी ने कहा…

डायरी एक लेखक की:)

रश्मि प्रभा... ने कहा…

फरीदा का गायन प्रवाह दे ही गया ...

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

स्वीकारोक्ति अच्छी है .ऐसा हर एक के साथ होता है कभी-न-कभी!

vidha ने कहा…

जाने क्यों ऐसा होता है की प्राथमिकता में हो कर भी प्राथमिक कार्य भी नहीं हो पाता.

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

आपने बिलकुल सही बात कही है सर!

सादर

डॉ टी एस दराल ने कहा…

जिंदगी में सब कुछ ज़रूरी है . व्यवस्थित तो करना ही पड़ेगा .

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

javab nahi aapka badhne rakha pure vakt bahut 2 badhai ...

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

किसी ने प्रश्न उठाया था तो बताना भी फर्ज समझता हूँ कि ऐसा नहीं है कि विचार या भाव चुक गये हों. उनका तो व्यस्तता के संग चोली दामन का साथ है. लबलबा कर भावों का समुन्द्र भरा है मगर उन्हें सहेज कर करीने से शब्दों का जामा पहनाना- एकांत मांगता है. एक स्थिरता मांगता है. समय मांगता है. एकाग्रता मांगता है. इनमें से एक की भी कमी बर्दाश्त नहीं कर पाता एक सधा आलेख या कहानी या फिर कविता.

Ekdam sahi kaha..

shikha varshney ने कहा…

सच कहा ..बहाने बड़ी आसानी से बना लेते हैं हम लोग.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

व्यस्त होना भी जरूरी है समीर भाई ... कभी कभी चाहने वालों की गिनती भी हो जाती है ... हा हा ... पर चाहने वालों को आप निराश नहीं करोगे ये तो पता है ... विचार अंतिम समय तक आते रहते हैं ... दिमाग का सोचना शायद अंत के साथ ही खत्म होता है ...
वैसे फरीदा अब भी गा रही होगी ...

dr.mahendrag ने कहा…

Sachhaie ko baya karna bhi kitna kathin hota hai.Aapne yeh kar dikhaya,
AAchi rachna

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बहुत दिनों से एक विचार बार-बार मन में आ रहा था कि ब्लागिंग से मोह भंग तो नहीं हो रहा धीरे-धीरे सबका। आज आपका खुलासा पढा, कमोबेश ऐसा ही हाल बहुतेरे भाईयों का है। पर कामना यही है कि हम सब स्नेह के धागों से जुडे रहें।

मुकेश पाण्डेय चन्दन ने कहा…

sameer ji lagta hai , ki n likhne ka dour hi chal rha hai , ye mausam ka jadu hai mitwa ..........

Rahul Singh ने कहा…

आलस का एक परिणाम जैसा भी होता है लेखन कभी-कभी.

Mansoor ali Hashmi ने कहा…

जब 'उमड़'आये थे ख़याल तभी,
पेन सूखा, दवात थी खाली.

'दिल' जलाने की बात ख़ूब कही !
'चूल्हे' के पास ही है घरवाली.

मुस्कुराने की बात करते हो !
कैसे इक हाथ से बजे ताली?

'टिप्पणी' ख़ा रहा है अब 'spam',
किसने है ये बुरी नज़र डाली.

'भाव' से दिल अभी 'लबालब' है,
फिर 'उड़न तश्तरी' उड़ा डाली.

http://aatm-manthan.com

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

यह वक्त की कमी है या ब्लाग से ध्यान हटा कर फ़ेसबुक पर अपने फ़ेस देखने की ओर रुझान :)

Vaanbhatt ने कहा…

ठण्ड का मौसम था...और वो भी कनाडा की ठण्ड...सब कुछ सिकुड़ा-सिकुड़ा लगता है...दिल और दिमाग पर बर्फ जम जाती होगी...अब मौसम सुधर रहा है तो देखिये...अंकुर फूट पड़े...रजाई के बाहर बैठ कर कमेन्ट लिखने का भी मन नहीं होता...ब्लॉग तो दूर की बात है...

rashmi ravija ने कहा…

.चलिए हम इंतज़ार कर लेंगे....आप पुस्तकें पढ़िए....लाभ हमें ही मिलनेवाला है

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

ऐसा ही होता है समीर जी :) लोग मुझ पर बेकार ही न लिखने का इल्ज़ाम लगाते हैं :) :) वैसे फ़रीदा खानम की ये ग़ज़ल मुझे भी बहुत अच्छी लगती है.

PRAN SHARMA ने कहा…

Bakaul Sahir Ludhianvi -

TUMSE MILNAA KHUSHEE KEE BAAT SAHEE
TUMSE MIL KAR UDAAS RAHTAA HOON

विष्णु बैरागी ने कहा…

लिखनेवालों के लिए आपने पारम्‍परिक सूत्र दिया है - एक पंक्ति लेखन की पात्रता ही तब हासिल होती है, जब आप १०० पढ़ चुके हों।

आजकल तो एकदम उलट स्थिति है। लिखने के पहले तो नहीं ही पढते हैं, लिखने के बाद भी नहीं पढते भाई लोग।

बेनामी ने कहा…

एक अनुरुप मौसम का इन्तजार कलम उठाने से पहले... एकदम सही कहा अपने समीर जी .. ये बात तो सच है कि लेखन यूँ ही नहीं हो जाता ... विचारों के साथ शब्दों की अनुरूपता का भी अपना महत्त्व है... यूँ ही चलते फिरते साँस लेते.. कविता या रचना का जन्म तो हो सकता है लेकिन वो सँवरती नहीं. .

सादर
मंजु

देवांशु निगम ने कहा…

काफी आलस में बीता शनिवार, अपना तो सोमवार भी आलस में बीतता है :)

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

"मेरा सदा ही मानना रहा है कि एक पंक्ति लेखन की पात्रता ही तब हासिल होती है, जब आप १०० पढ़ चुके हों. वरना तो हमेशा एकरस और उथला सा ही लेखन शेष रहेगा. कोई सार न होगा उस लेखन का."
Sahee kahaa aapne !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"फरीदा का गायन अब भी जारी है:
हमको अपनी खबर नहीं यारों
तुम जमाने की बात करते हो...
दिल जलाने की बात करते हो
आशियाने की बात करते हो!!!"
--
बहुत उम्दा!

Pratik Maheshwari ने कहा…

मुआ आलस्य जाने कहाँ से आड़े आ ही जाता है हर चीज़ में.. पर उस पर जीत हासिल करना ही जीवन की जीत है.. :)

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

'व्यस्त जीवन शैली के....... लेखकों के पास तक ले जाना होगा.'
-आप ने तो कुंजी थमा दी , बेहतर लेखन में इन्हीं सब का बड़ा रोल होता है .याद रखने योग्य - आभार!

सदा ने कहा…

बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति
कल 08/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्‍वागत है, !! स्‍वदेश के प्रति अनुराग !!

धन्यवाद!

पद्म सिंह ने कहा…

ऐसा होता है अक्सर... जब कोई बहाना भी बेमानी लगता है... बस यूं ही... नहीं लिख पाते...

Kailash Sharma ने कहा…

एक एक शब्द अपना लगता हुआ...बहुत सही कहा कि अधिक से अधिक पढना लेखन के लिये जरूरी है...बहुत रोचक आलेख...आभार

नीरज गोस्वामी ने कहा…

लेखन में बाँझ पण अक्सर आया करता है...तब जितना भी जोर लगा लो...एक पंक्ति दिमाग में नहीं आती...कुदरत का करिश्मा है साहब...लिखने में आनंद है तो कुछ न लिख पाने का भी अपना आनंद है...आप का लेखन इन दिनों कम हो रहा है कोई बात नहीं...अंग्रेजी में कहूँ तो ये "लल बिफोर स्ट्रोम" वाला सीन है...मस्त रहो बोंस, टेंशन न लो...थोड़े दिनों बाद फिर से पोस्ट पे पोस्ट दिया करोगे...पहले की तरह...दे दना दन...

नीरज

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!

Atul Shrivastava ने कहा…

मानव स्‍वभाव है यह।

बढिया लेखन।

ghughutibasuti ने कहा…

आपकी बातों से सहमत. मेरे पास तो व्यस्तता का बहाना भी नहीं है!:(
किन्तु आपकी ये पंक्तियाँ
'मेरा सदा ही मानना रहा है कि एक पंक्ति लेखन की पात्रता ही तब हासिल होती है, जब आप १०० पढ़ चुके हों. वरना तो हमेशा एकरस और उथला सा ही लेखन शेष रहेगा. कोई सार न होगा उस लेखन का.'
मुर्गी पहले आई की अंडा वाली समस्या पैदा करती हैं. आरम्भ के लेखकों ने किसे पढ़ा होगा?
घुघूतीबासूती

sheetal ने कहा…

Samir ji
namaskar..aapka lekhan mujhe hamesha hi prabhavit karta hain..aapke likhne ki shaili kamal ki hain..shabd saral aur bahut khubsurat hote hain...jisse aapki lekhni main char chand lag jaate hain.
yeh baat aapne ekdum sahi kahi hain,ki acche lekhan ke liye accha padhna bahut jaruri hota hain.

sheetal ने कहा…

samir ji
aap mere blog par aaye aur apni pratikriya vyakt ki iske liye main aapke tahe dil se aabhari hun.
kabhi waqt mile to meri kuch pehle se post ki hui rachnai jarur padhiyega.

Abhishek Ojha ने कहा…

अब हम क्या कहें. आप तो सब कुछ समझ कर भी नहीं लिख रहे. :)

Kunwar Kusumesh ने कहा…

मनोभाव जो लिखाते गए,आप लिखते गए,यही मौलिक लेखन है.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अभी पठन क्रिया में व्यस्त हैं .. लेखन भी शीघ्र होगा ..

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

फरीदा को गाने दो। टिप्पणी तो करो!

Maheshwari kaneri ने कहा…

सच है.. सोचते-सोचते ही सोचते रह जाते हैं..

राजेश उत्‍साही ने कहा…

हम भी सोच रहे थे उड़न तश्‍तरी किसी दूसरे ग्रह पर उतर गई है शायद।

Sufi ने कहा…

सही कहा आपने...कितना भी मन हो वक्त अक्सर आड़े आ जाता है...पर यही सोचें गे तो लिखें गे कैसे..??? देखिये कम वक्त ने भी कुछ तो लिखवा ही दिया...है न...? अच्छा है... बधाई !
प्रिया

Murari Pareek ने कहा…

सचमुच इस आलस्य का कुछ करना पड़ेगा रोज सोचते हैं सुबह ४.३० पर उठेंगे, पर आलस्य ....के कर्ण ४ घंटे बाद उठना होता है... .और एकांत तो यहाँ काफी है समीर जी, और पहाड़ों के बिच मैं कहता हूँ आपके विचार चलेंगे नहीं दौड़ेंगे .. क्यूंकि रिमोट एरिया है सिर्फ दीमाग ही चलता है गाडी घोड़ा कभी कभार ही नजर आता है .. यहाँ तक की नेट भी सही ढंग से नहीं चलता ....वी सेट भी ठीक से नहीं चलता |उस स्थिति में सिर्फ दीमाग चलता है, पर बिस्तर पर ...ठण्ड के चलते उठने का दुस्साहस किया तो दुसरे दिन लोग उठाएंगे...., सचमुच ये आलस्य मैं तो समझा मुझे ही घेरे है... ये तो कनाडा तक पसरा पडा है...रोज ये सोचता हूँ कुछ अपने ऊपर नियम लागू किये जाए ..जल्दी उठना, रियाज़ करना, थोड़ी बहुत कुछ कसरत की हशरत भबी है, पर आलस्य जैसे ऊपर चढ़ के दबोच लेता हो....

प्रेम सरोवर ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति है । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

प्रेम सरोवर ने कहा…

समय के साथ संवाद करती हुई आपकी यह प्रस्तुति बहुत ही अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट "भीष्म साहनी" पर आपका बेशब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

love sms ने कहा…

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संगीता तोमर Sangeeta Tomar ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति.....

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

देखा, आपने लिखना शुरू किया तो आलस्य भी भाग गया. आपके लिखने का तो सभी को इंतजार रहता है.
_____________

'पाखी की दुनिया' में जरुर मिलिएगा 'अपूर्वा' से..

प्रेम सरोवर ने कहा…

हमें आंखें अपनी फोड़ने का भी शौक इसलिए नहीं है
क्‍योंकि पहले ही उन पर चश्‍मा चढ़ा हुआ है
वह भी तो आंखों का फूटना और
विचारों का फूटना ही हुआ जी।

बहुत सुंदर । मेरे पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।

पश्यंती शुक्ला. ने कहा…

रचनाएं अचानक होती हैं तो होती चली जाती हैं...और कभी कलम पर ऐसा ब्रेक लगता है जो महीनों कुछ लिखने नहीं देता...लेकिन समीर जी आप लिखते रहिए कुछ न कुछ ...क्योंकि उड़न तश्तरी में नए लेख का कईयों को बेसब्री से इंतज़ार रहता है

Rakesh Kumar ने कहा…

आलस्य से लड़ाई लड़ने के लिए
तप,यज्ञ और दान की आवश्यकता है.
'मेरी बात..'में मैंने इस सम्बन्ध में
कुछ कहने का प्रयास किया है.आपने इसे
पढ़ा मुझे अच्छा लगा.उस पर आपके
विचार(expert comment) भी जानने को
मिलते तो और भी अच्छा लगता.

आप मेरी पोस्ट 'हनुमान लीला भाग-३'
पर नहीं आ पाए,इसमें मैं अपनी ही कमी
मानता हूँ.