कादम्बिनी के सितम्बर, २०११ में प्रकाशित मेरी कहानी:
मधु और आरती- दो जिस्म मगर एक जान हैं हम, को चरितार्थ करती बचपन की सहेलियाँ.
शायद ही सिटी इंजीनियरिंग कॉलेज के केम्पस में कभी किसी ने दोनों को अलग अलग देखा हो. हॉस्टल से साथ निकलना, क्लास, लायब्रेरी में दिन भर साथ रहना, बाजार भी साथ-साथ और शाम को हॉस्टल भी साथ ही लौटना. डबल शेयरिंग वाले कमरे में रह्ती भी दोनों साथ साथ. सहेलियाँ उन्हें जब भी खोजती या उनके बारे में बात भी करतीं, तो एक का नाम न लेतीं- हमेशा पूछा करतीं कि-- मधु-आरती नहीं दिख रहीं?
इंजीनियरिंग के अंतिम साल में हॉस्टल की बजाय कैम्पस के बाहर कमरा लेकर रहना होता था, तब भी दोनों ने मिल कर किराये पर एक कमरा लिया. ऐसा नही कि उनमे या उनके स्वभाव में समानता ही थी दोनों में अंतर भी बहुत था. मधु घरेलु स्वभाव की लड़की थी. पढ़ाई के अलावा कमरा सजाना, साफ सफाई करना, मशीन में कपड़े धोना, इस्त्री करना, तरह-तरह का खाना बनाना आदि उसके शौक थे और वो यह सब बिना किसी शिकन के दोनों के लिए किया करती थी. वहीं आरती को पढ़ाई, किताबें, तरह-तरह की नई टेक्नालॉजी की बाते सीखते रहने की धुन थी. कैरियर ही उसके लिए सब कुछ था. मगर फिर भी दोनों में गाढ़ी दोस्ती थी.
इंजीनियरिंग खत्म हुई. कैम्पस इन्टरव्यू में ही आरती का सेलेक्शन एक मल्टी नेशनल के लिए हो गया था तो वह दिल्ली चली आई. मधु अपने शहर लौट गई और अपने घर पर रह कर ही उसी शहर में एक नौकरी करने लगी. शुर-शुरु में वादे के मुताबिक हर हफ्ते एक दूसरे को लम्बे लम्बे पत्र लिखती रहीं . दिन-दिन भर की गतिविधियों की जानकारी देती रहीं . धीरे-धीरे पत्रों की लम्बाई घटती गई और आवृति भी.
दोनों अपनी-अपनी जिन्दगियों में व्यस्त होती गई. मधु के घर वालों ने उसकी शादी तय कर दी. लड़का मुम्बई में मल्टी नेशनल में काम करता था. आरती को खबर की. उसे उसी दौरान कम्पनी की मीटिंग में सिंगापुर जाना था, तो वह शादी में नहीं आ पाई.
मधु शादी के बाद पति के साथ मुम्बई आ बसी. नई दुनिया,नए लोगो के बीच समय उड़ता गया. दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी हो गये.
उधर आरती अपना कैरियर आगे बढ़ाती रही. घर वालों ने अनेक रिश्ते दिखाये मगर उसे तो बस कैरियर की चिन्ता थी. सब ठुकराती चली गई. हर बार अम्मा उसे रिश्ता बताती तो यही कहती कि अभी उम्र ही क्या हुई है? अभी इन सब झंझटों मे मुझे नहीं पड़ना. अभी मुझे अपने कैरियर पर कन्सन्ट्रेट करने दो. माँ-बाप भी आखिर क्या कर सकते हैं? हार कर और मन मार कर चुप हो गये.
अपनी अपनी दुनिया की बसाहट. मधु अपने बच्चों को बड़ा करने में भूल भी गई कि वो भी इंजीनियर है. अब वो और उसकी दुनिया बस उसका पति और उसके बच्चे हैं. समय के साथ बच्चे अच्छे स्कूलों में जाने लगे और मधु घर परिवार में बेहद संतुष्ट और खुशमय जीवन बिताने लगी. इन्हीं सब में आरती से संपर्क भी नहीं रहा.
अब आरती अपनी कम्पनी की नेशनल हेड हो गई थी. कैरियर के लिए जो सपने संजोये थे, वो पूरे होने लगे. माता जी दो बरस पहले बिटिया की शादी के सपने दिल में ही लिए गुजर गईं और फिर कुछ माह पूर्व पिता जी भी. मृत्यु के एक माह पूर्व पिता जी को दिल्ली बुलवा लिया था. इलाज कराया बड़े अस्पताल में किन्तु बुढ़ापे का क्या इलाज और कौन सी दवा. असल दवा, बेटी का परिवार देखना, तो मिली ही नहीं, बाकी दवा क्या असर करती.
अब आरती इस दुनिया में अकेली थी अपने जुनून के साथ. सोचा कि एक दिन अपने शहर जाकर पिता जी वाला मकान बेच आयेगी और यूँ भी दिल्ली में तो उसने मकान ले ही लिया है. हाल फिलहाल चाचाजी को कहकर उसे किराये पर चढ़वा दिया था.
वक्त की रफ्तार कब रुकती है. उम्र भी बढ़ चली. दिन भर दफ्तर में बीत जाता और शाम जब घर लौटती तो एक खालीपन, एकाकीपन आ घेरता. शीशे में खुद को निहारती तो घबरा जाती कि एकाएक कितनी उम्र निकल गई. अब जब शादी के लिए रिश्ता लेकर आने वाला, शादी की याद दिलाने वाला भी कोई नहीं बचा तब उसे एक साथी की कमी महसूस होना शुरु हुई.
सोचा करती कि क्या इस कैरियर के पीछे भाग कर उसने जो पाया वही जिन्दगी है या मधु ने कैरियर दरकिनार कर जो पति, बच्चों के साथ जो सुख पाया, वो जिन्दगी है. या शायद कोई तीसरा विकल्प हो जिसमें कैरियर तो हो मगर उसके लिए वो दीवानापन नहीं और उस कैरियर के साथ ही सही वक्त पर शादी, परिवार, बच्चे और इस सबके बीच सहज सामन्जस्य बैठाता खुशमय जीवन.
अब उसे मधु भी याद आ जाती कभी-कभी.लेकिन मधु से कोई सम्पर्क नहीं रहा. न फोन नम्बर, न पता. वो अपनी ही दुनिया में खुश और मगन थी.
एक दिन दफ्तर की एक मीटिंग में दूसरी कम्पनी से कुछ लोगों का आना हुआ. अजय भी उस टीम का सदस्य था. मीटिंग में काफी बातचीत हुई और शाम को जब निकलने लगी तो अजय ने उसे कॉफी पर चलने का निमंत्रण दे डाला. घर जाकर भी कोई काम तो था नहीं तो उसने उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया.
उस शाम देर तक कॉफी हाऊस में दोनों की बातें होती रहीं. अजय दिल्ली में ही एक बड़ी मल्टी नेशनल का हेड था, फिर एक दो मीटिंग और कॉफ़ी का निमंत्रण. आरती जल्दी ही उससे खुल गई. अजय से पता चला कि अजय की पत्नी शादी के एक साल बाद ही गुजर गई और तबसे उसे समय ही नहीं मिला कि फिर से शादी के बारे में सोचता. मगर उसने बताया कि अब उम्र के इस पड़ाव में उसे एक सच्चे साथी की जरुरत महसूस होने लगी है. घर पर खालीपन खाने दौड़ता है.
दोनों का दुख एक ही. जल्द ही करीब आ गये. अक्सर ही कभी लंच, कभी डिनर से होते हुए कब दोनों साथ ही कुल्लु मनाली भी छुट्टियाँ मना आये, पता ही नहीं चला. वक्त फिर पंख लगा कर उड़ने लगा. आरती को लगता कि जल्द ही अजय उससे शादी की बात करे. यूँ भी बचा क्या था शादी के लिए, सिर्फ एक औपचारिकता और मुहर.
अजय दफ्तर के काम से दो माह के लिए अमेरीका चला गया. आरती इस बीच अपने शहर जाकर पिता जी का घर भी बेच आई. मधु भी उसी शहर से थी तो किसी के माध्यम से उसका मुम्बई का फोन नम्बर और पता लेते आई. मधु का घर भी इन्हीं कुछ परिस्थियों में मधु के भाई ने बेच कर खुद को किसी और शहर में बसा लिया था.
दिल्ली लौटी, तब मधु को फोन लगाया. इतने साल बाद अपनी प्रिय सहेली की आवाज सुन कर मधु तो खुशी के मारे चीख ही पड़ी. बस, मधु की एक ही जिद्द कि तू जल्दी मुम्बई आ, तुझसे मिलना है. खूब बातें करनी हैं. बस, चली आ तुरंत.
अगले दिन ही ऑफिस के कार्य के सिलसिले में आरती को पूना जाना पड़ा. उसने तभी मन बना लिया कि हफ्ते भर की छुट्टी भी साथ ही ले लेती हूँ और पूना से ही मुम्बई जाकर मधु के साथ आराम से रहूँगी. खूब बात करुँगी और फिर वापस आऊँगी.
मधु को फोन पर सूचित कर दिया. पूना से काम खत्म कर शाम को ही टैक्सी से मधु के पास जाने के लिये निकल पड़ी. रास्ते में दो-दो बार मधु से बात हुई कि जल्दी आ, खाने पर हम सब तेरा इन्तजार कर रहे हैं.
दरवाजे पर मधु बाहर ही इन्तजार करते मिली. देखते ही लिपट गई. आसूँओं की अविरल धारा बह निकली. दोनों सहेलियाँ एक दूसरे से लिपटी देर तक रोती रही. टैक्सी वाले ने जब जाने के लिए आवाज दी तो तन्द्रा टूटी. दोनों मुस्कराईं टैक्सी वाले को विदा कर दोनों घर के भीतर आ गई. मधु ने दोनों बच्चों से मिलवाया.ये कहते हुए कि- बस, कालेज जाने वाले हैं इस साल से,छोटे साहबजादे भी.
तुम फ्रेश हो लो कहते हुए आरती को अन्दर बेडरूम में ले गई मधु. मेरे पति देव भी आते ही होंगे, तीन दिन से बैंगलोर में थे टूर पर, बस, फ्लाईट आ गई है. एयरपोर्ट से रास्ते में ही है, अभी बताना शुरु ही किया था मधु ने कि दरवाजे पर घंटी बजी और उसके पति आ गये. मधु ने आरती को ड्राईंगरुम से आवाज देकर बुलाया और मिलवाया- ये हैं मेरे प्यारे पति, अजय!!!
आरती के तो पैरों तले से जैसे जमीन ही खिसक गई. अजय मधु का पति?? यहाँ मुम्बई में? वो तो अमेरीका गया हुआ था दो महिने के लिए.
अजय भी अवाक खड़ा था. आरती दोनों हाथ जोड़े नमस्ते की मुद्रा में सन्न!!!! उसे लगा कि वो मूर्छित हो कर गिर जायेगी और मधु, वो तो बस अपने बोलने में ही मस्त थी कि आजकल अजय भी तो अधिकतर दिल्ली में ही रहते हैं. कम्पनी का दिल्ली ऑफिस सेट अप कर रहे हैं. उस दिन जब तेरा फोन आया तो सोचा कि तुझे बताऊँ लेकिन तब अजय बैंगलोर गये थे और मै तुझे सरप्राईज देना चाहती थी.
किसी तरह आरती ने अपने आपको संभाला. अजय यह कह कर अंदर चला गया कि ’बहुत ज्यादा थक गया है. स्नैक्स बैंगलोर में ही खा चुका है. कुछ हैवी लग रहा है. शॉवर लेकर सोयेगा. सुबह उठ कर आराम से बातें करते हैं, कल मेरी छुट्टी भी है.’
मधु आरती के साथ ड्राईंगरुम में आ बैठी. आरती की हालत देख मधु ने उससे पूछा भी कि क्या बात है, तबीयत ठीक नहीं लग रही है क्या?
आरती सर दर्द का बहाना बना कर टाल गई. कब खाना लगा, बेमन से कब खा लिया, आरती को कुछ पता ही नहीं लगा. एकाएक उसने मन ही मन कुछ तय किया और मधु से कहा कि यार, दफ्तर का एस एम एस आया है, मुझे तुरंत दिल्ली जाना होगा. कल सुबह सुबह कोई अर्जेन्ट मीटिंग आ गई है जिसे टाला नहीं जा सकता .मधु तो अजय की वजह से मल्टी नेशनल के सीनियर एक्जूकेटिव्स की कार्य प्रणाली से वाकिफ थी ही. उसने भी बहुत जिद नहीं की. टैक्सी को फोन कर दिया और देर रात की फ्लाईट ले आरती वापस दिल्ली आ गई.
अगली सुबह ही दफ्तर जाकर आरती ने इस्तीफा दिया और एक ब्रोकर से बात कर घर जिस भाव में बिका, बिकवा दिया और निकल पड़ी एक अनजान शहर की ओर एक अनजान जिन्दगी बिताने. मधु का फोन नम्बर, पता, अजय का फोन नम्बर- ना सिर्फ उसने अपने फोन से बल्कि जेहन से भी मिटा दिया हमेशा हमेशा के लिए.
आज वो कहाँ है, कोई नहीं जानता.
मधु के अनुसार- उसका फोन नम्बर कहता है- ’यह नम्बर अब सेवा में नहीं है.’
धुँध को चीरती रेल
धड़धड़ाती हुई
रुकती हैं प्लेटफॉर्म पर
उतरते हैं कुछ यात्री
चढ़ते हैं कुछ यात्री
मचती है अफरा तफरी
और फिर धीरे धीरे
चल पड़ती है रेल
अपने पीछे छोड़ कर
एक सन्नाटा
खो जाती है
उसी धुँध में...
-जीवन के कुछ और भेद जाने हैं मैने!!!!!!!
-समीर लाल ’समीर’
75 टिप्पणियां:
बहुत-बहुत बधाई आपको!
--
शिक्षक दिवस की शुभकामनाएँ और सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को नमन!
बेहतरीन कहानी, यही तो नहीं पता कि हम परिवार और रिश्तों को क्यों पीछे छोड़ते जा रहे हैं |
आधुनिक जीवन की एक सचाई को अभिव्यक्त करती सुंदर कहानी।
पर ये धोखे तो जीवन में किसी उम्र में और अरेंज मैरिज में भी हो रहे हैं।
कहानी सी नही कुछ हकीकत सी जान पडती है यह
एकदम सटीक कहानी हैं -- आजकल की भागम भाग जिन्दगी की ...कथानक और प्रस्तुति दोनो अनोखे हैं ..
यह कविता भी है क्या कादम्बिनी में ,जो ज्यादा प्रभावपूर्ण है !
दुनिया मुद्रित साहित्य के आकर्षण से निकल अंतर्जाल पर आ रही है (वैसे भी कुछ नहीं बचा है वहां )
और आपका प्रत्यावर्तन ?दुनिया रंग बिरंगी!
कहानी अच्छी है मगर एंड प्रेडिक्टेबल हो चला है .....
बधाई!
बेह्तरीन तारतम्य..और क्लाईमैक्स क्या कहने झकझोर दिया समीर जी आप ने..
Apko bahut-2 badhai...aisa bhi hota hai ab is samaj men dukh hua...
जीवन को पकड़ने के प्रयास में स्वयं को अनियन्त्रित करती जिन्दगियाँ।
बहुत अच्छी लगी कहानी। ....बधाई।
dardeelee dastan......
बधाई हो श्रीमान।
कहानी पढ़ कहावत याद आ गई...
कुत्ते की दुम चौदह साल नली में रखी, निकली फिर भी टेढ़ी की टेढ़ी...
टीचर्स डे पर गुरुदेव को नमन...
जय हिंद...
बहुत सुन्दर, प्रभावशाली कहानी...बधाई
तभी तो कहते हैं कि अति हर चीज की बुरी होती है। संदेश देती कहानी।
सचमुच,आदमी का कोई ठिकाना नहीं -रेल तो फिर भी पटरी पर चलती है !
ऐसे रिश्ते भी हैं ....??
क्या कहें ...?
शुभकामनायें !
बेहतरीन कहानी..बहुत अच्छी लगी!!
सरसरी सी निगाह डाली है साथ ही लोगो के कमेंट्स पढ़ कर लग रहा है कहानी बहुत ही ज़बरदस्त है... वैसे भी इस तरह की कहानियां मुझे बहुत ही पसंद हैं... अभी-अभी ऑफिस आया हूँ, शाम को पूरा पढूंगा..... उत्सुकता तो बहुत हो रही है, मगर लगता है कि व्यस्तता के कारण शायद शाम से पहले समय ही ना मिल पाए! :-(
जिंदगी का एक सच हम जिन रिश्तों को रिश्ते कहते हैं उनमे सब कुछ स्याह सफ़ेद नहीं हैं कुछ स्लेटी रंग भी हैं जीवन के इसी रंग को समेटती कहानी बढ़िया लगी
बेहतरीन कथा. परिवार तो छिन्न भिन्न होते जा ही रहे हैं. मुफ्त में कादम्बिनी की लेटेस्ट
इस्सू मिल गयी. भले दूसरी कहानियां आदि न पढ़ पायें.
बहुत-बहुत बधाई...
bahut achchi kahani hai ek baar shuru ki to ant tak ruki nahi pravaah ukt hai achcha ant hai.aapko is achchi kahani aur shikshak divas ki badhaai.
itni acchi katha ke liye kya kahu.. jai ho gurudev keee.
vijay
आज के समाज का एक आइना है आपकी यह कहानी
बहुत सुन्दर कहानी...बधाई !!
happy teacher's day..nice story:)
बढ़िया कहानी आज के संदर्भ में सही लिखी गयी है ..बहुत बहुत बधाई समीर जी
करियर के पीछे भागते लोग कभी कभी बहुत कुछ खो देते है
एक बेहतरीन कहनी और कविता के लिए बधाई
ऐसी कहानी तो दिखती रहती है आजकल !
ACHCHHEE KAHANI KE LIYE AAPKO
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.
कहानी के पात्र हकिक़त हि लगते हैं.बधाई आपको.
बहुत अच्छी कहानी है सर।
सादर
एक ही साँस में पढ़ गयी पूरी कहानी की अब क्या होगा. मुझे लगता है आज के जीवन में ये काफी कुछ सच्चाई के समीप है.
एक अजय के कारण दोनों जिंदगियां जीवन भर धोखे की जिंदगी जियेंगी ... आरती का अपनी सहेली के प्रति प्रेम श्रद्धा से भर रहा है !
बधाई और शुभकामनायें!
करियर और पारिवारिक जीवन में ताल मेल होना तो बहुत ज़रूरी है । लेकिन आजकल का कॉर्पोरेट कल्चर ही ऐसा हो गया है कि महिलाएं विवाहित होकर भी परिवार को समय नहीं दे पाती ।
ऐसे में हानि भी अक्सर महिला की ही होती है ।
सुन्दर कहानी ।
बहुत सुन्दर , वर्तमान जीवन की सच्चाई बयां करती कहानी , कविता की पंक्तिया तो बस वाह ! बधाई
बहुत बढ़िया कहानी,आभार.
oh , ye dhokha to bahut takleef deh hai ...likha flow me hai ..badhaaee...
शिखा जी, की बात से पूरी तरह सहमत हूँ। सजीव लगते है कहानी के पात्र मगर हमेशा ऐसा ही क्यूँ होता है की दो best friends कभी एक दूसरे की शादी में शामिल ही नहीं हो पाते ....well बहतरीन कहानी मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है समय मिले तो आयेगा ज़रूर....
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
कहानी में जीवंतता और और पाठक को बांधे रखने की क्षमता अंत तक बनी हुई है
बधाई !!
bahut bahut badhaai ... bahut achhi kahani
मुबारक हो...कादम्बिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में आपकी कहानी पढ़ कर बहुत अच्छा लगा...आपकी सहज शैली सराहनीय है...
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता.....
एक को अपने कैरियर का होम करने भी गृहस्थी का पूरा सुख नहीं मिला...और कैरियर की परकाष्ठा पर पहुँच कर भी...दूसरे के दिल का एक कोना खाली ही रहा...
जिंदगी का एक सच यह भी है....
बहुत ही अच्छी कहानी..कादम्बनी में छपने की बधाई
वाह जी बल्ले बल्ले बधाइयां.
# कली फूल बन खूबसूरत हुई,
जो भंवरा मिला क्या से क्या बन गयी,
वो अपने ही रस से 'मधु' बन गयी.
# समझ ये रही थी कि 'ऊपर चढ़ी' !
मगर 'आरती' तो उतरती रही,
न जाने कहाँ फिर वो गुम हो गयी?
http://aatm-manthan.com
एक हकीक़त सी है यह कहानी ! ऐसी कलम और कलमकार को सलाम .
[] राकेश 'सोहम'
बहुत अच्छी लगी कहानी ...बहुत-बहुत बधाई आपको!
bahut achchi lagi......
बेहतरीन कहानी।
शुरू से लेकर आखिर तक कहानी के तार ऐसे लय में थे कि बंधा सा रह गया।
गजब की प्रस्तुति।
क्षमा करियेगा, यहाँ नहीं पढेंगे>>>आज ही कादम्बिनी लाकर उसी में पढेंगे>>>
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
शायद रिश्तों का भी व्यवसायीकरण होता जा रहा है (...
कविता नि:संदेह बहुत उत्कॄष्ट स्तर की है .....
बेहतरीन कहानी...
अच्छी कहानी!
बधाई!
समीर भाई ... सबसे पहले तो बधाई इस प्रकाशन पर ...
अब कहानी की बात ... आज की परिस्थिति और रिश्तों के बदलते ताने बाने को बाखूबी लिखा है ... जीवन का सच परोस दिया है इस लाजवाब कहानी में ...
बधाई समीर भाई॥
शायद कहानी नहीं...आज का सच है जो समाज के किसी कोने में सिसकता भटकता मिल ही जाएगा...कादम्बिनी में छपने की बधाई...
बहुत ही सुन्दर कथा /कहानी बधाई भाई समीर जी
बहुत ही सुन्दर कथा /कहानी बधाई भाई समीर जी
पहली बार सरसरी नज़र से पढ़ने के कारण टिप्पणी नहीं दी| इधर गणपति भी चल रहे हैं| हरिगीतिका कि शुरुआत भी करनी है| आज सुबह पूरी कहानी और फिर उस कहानी को विस्तार देती कविता पढ़ी| आज का सच है ये कहानी| और उस सच को भी उजागर करती है ये कहानी कि इंसानियत आज भी ज़िंदा है|
जय हो समीर भाई की .................
uf sach ke kathor dharatal pr likhi kahani bahut marmik
rachana
ऐसा लगा जैसे वर्तमान की कोई सत्य कहानी पढी हो, कितना सटीक चित्रण किया है आज की परिस्थितियों का, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम
कहानी के कादंबनी में प्रकाशन की हार्दिक बधाईयां.
रामराम.
आधुनिक जीवन की एक त्रासिदी दर्शाती है,आपकी यह कहानी,’यह नंबर----’.
आधुनिक जीवन की एक त्रासिदी दर्शाती है,आपकी यह कहानी,’यह नंबर----’.
aadarniy sir
bahut bahut hi hi bdhiya lagi aapki yah prastuti----
jo na jane kin -kin bhavnao me baha le gaiyah kahani dil ke bahut hi kareeb lagi
bahut hi behtreen-------
main bhi kafi dino se aswasthta ke karan bahut kam hi net par aa paati hun is liye sabke blogs par bahut hi kam pahunnch paati hun
plz-- aapse xhamaki aakaxhi hun.
sadar naman
poonam
होंठों पर बाँए हाथ की अँगुली रखे रखे ही पूरी कहानी एक साँस में पढ़ गया। लाल साहब, कुछ कहते ही नहीं बन रहा। ऐसा लग रहा मानो वह अँगुली अब भी मेरे होंठों पर ही रखी हुई है।
OH....
Mrigtrishna....
कहानी अच्छी है पर अंत तक पता चल ही जाता है कि अजय ही है जो मधु और आरती दोनों को बना रहा है ।
तब की कहानी आज का भी यथार्थ है ।
bahut bahut bdhaii .....
bahut bhahut badhai kahani prakashan ke liye,aaj ke jeevan ka ek naya roop aur kuch uljhe rishte,climax was great aur kahani ka end bhi pasand aaya.
बहुत ही सामयिक और शानदार . यहाँ भी पढ़ी और कादम्बिनी का तो मैं subscriber हूँ ! कहानी सारगर्भित है ,मौका मिले तो यहाँ भी पधारें !roop62 .blogspot .com
hardik shubhkamnaye....
regards
क्या लिखूं? सोच रही हूँ आदमी चालाक ज्यादा होते है या औरते मूर्ख ???? कहानी जैसे सुनी हुई सी कोई घटना जिसका प्रस्तुतीकरण प्रवाहमयी.पर... नफरत है मुझे 'इस' आरती जैसी लड़कियों से.
एक ऊंची पोस्ट वाले व्यक्ति के बारे में उस जैसी पढ़ी लिखी औरत के लिए आज के युग में पता लगाना कत्तई मुश्किल नही था.फिर?????
यहॉं बाद में पढी। कादमिबनी में पहले ही पढ ली थी। अच्छी है।
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