बुधवार, नवंबर 04, 2009

आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं..

आज शाम से ही तेज आँधी चल रही थी. वह अपने कमरे की खिड़की से बैठा सामने लगे ऊँचे ऊँचे देवदार के पेड़ों को हवा के साथ बार बार झुकता और हवा कम हो जाने पर सीधा ख़ड़े होते देख रोमांचित हो रहा था. वह देख रहा था कि तेज अंधड़ न जाने कितने वृक्षों को जड़ से उखाड़ फैंका और अपने साथ ले उड़ा. हवा की सांय सांय की आवाज में उन वृक्षों की चरमराहट, टूटने की आवाजें सब दब कर रह जा रही थीं.

एकाएक उसे याद आया कि ऐसी ही एक आँधी, पलायन की आँधी, विकल्पहीनता के गर्भ से उठी बेहतर विकल्प की दिशा में बहती आँधी, जिसका मुकाबला करते जाने कितनी बार झुक कर वह सीधा खड़ा हो गया था किन्तु एक तेज झोके के साथ वह जड़ से उखड़ आ पड़ा था सात समुन्दर पार अमरीका में.

नये माहौल का उत्साह, बेहतर सुविधाओं की चमक दमक, अंतहीन विकल्प और जल्द ही वह आदी हो गया इन सब का. जड़ों से छूट जाने क दर्द यहाँ की तड़क भड़क की तेज रफ्तार भागती जिन्दगी में गुम होकर रह गया ठीक वैसे ही जैसे उसकी अपनी पहचान.

कभी खाली वक्त में वह जड़ों को याद भी करता, फोन लगता उनसे संपर्क स्थापित करने की कोशिश में ध्वनि तरंगों के माध्यम से किन्तु ध्वनि तरंगो में वह जुड़ाव कहाँ कि कुछ भी जुड़ सके. न स्पर्श और न गंध. शीघ्र ही वायुमंडल में वह विलुप्त हो जाती और जीवन फिर अपने उसी ढ़र्रे पर चल निकलता.

samsam

शादी हुई, बच्चे हुए. व्यस्तताऐं ऐसी कि सुरसा सा मूँह बाये बढ़ती ही गईं. माँ नहीं रहीं. हफ्ते भर को जड़ों तक जा अपना कर्तव्य पूरा कर फिर लौट आया. जल्द ही खबर आई कि पिता जी भी नहीं रहे. एक बार फिर वही कर्तव्य निर्वहन और वापसी. अब तो कोई और वजह भी न बची कि वह लौट सके.

समय गतिमान है और उसकी अपनी गति होती है. न तो वह आपका इन्तजार करता है और न ही वापस लौटता है. विजयी वह जो उसकी गति से अपनी गति मिला ले. न मिला पाये तो पराजित. माँ ने बताई थी कभी बचपन में यह बात उसे.

आज जब वह घर से निकल कर हाईवे में अपनी गाड़ी उतारता है तो हाई वे मिलाने वाली सड़क पर उसे अपनी गाड़ी की गति बढ़ाते बढ़ाते १०० के आसपास ले जाना होती है, तभी हाईवे पर तेज रफ्तार कारों के काफिले में वो शामिल हो पाता है. जब भी वह ऐसा करता है उसे माँ का बताया मंत्र समय का याद हो उठता है और माँ की याद जहन में आ जाती है. उस याद को सर झटक कर अलग करने का गुर भी वह इसी समय के साथ साथ सीख गया है और चल पड़ता है दफ्तर की ओर, एक नये दिन की नई शुरुवात करने.

बच्चे बड़े हुए. अपने अपने काम काजों से लग गये और एक बार फिर वही, अब बच्चे घर से दूर अपने लिए बेहतर विकल्प तलाशते. आश्चर्य होता है सदियों से ऐसा देख कर कि बेहतर विकल्प घर से दूर ही होते हैं अक्सर, न जाने क्यूँ. किस बात के लिए बेहतर विकल्प- क्या रोजगार के लिए, स्वतंत्र जिन्दगी के लिए, नया कुछ जानने के लिए कि बस, एक नया रोमांच.

अब वह खाली रहने लगा, न पहले की तरह काम करने की आवश्यक्ता रही और न ही तन में उतनी शक्ति. खाली मन स्वभावतः यादों की वादियों में टहलने का आदी होता है..तब वह कोई अजूबा नहीं. एक साधरण मानव ही तो है.

आज इस आँधी ने उसे बचपन के उस गाँव पहुँचा दिया, जहाँ उसने माँ की ऊँगली पकड़ कर चलना सीखा था. अपने पिता के विशाल व्यक्तित्व को अपना नायक माना था. पिता जी स्कूल में मास्टर थे और हृदय से कोमल होने के बावजूद अनुशासन के मामले में बेहद सख्त. पूरे गाँव के बच्चे उनसे डरा करते थे.

पिछले बरस, जब वह रिटायर हुआ तो उसके विभाग ने उसके इतने वर्षों के सेवाकाल के प्रसन्न हो उसे एक विदाई समारोह में प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया. आज वह प्रशस्ति पत्र ठीक इसी खि़ड़की के उपर फ्रेम में जड़ा टंगा है मगर अब जब वह याद करता है कि बचपन में उसे स्कूल की वाद विवाद प्रतियोगिता में जीत के लिए सरपंच महोदय के हाथों एक कप प्रदान कर सम्मानित किया गया था तो यह खुशी उस खुशी के सामने एकदम फीकी नजर आती है. पिताजी कितने खुश थे और स्टेज पर उठकर उन्होंने उससे हाथ मिला कर गले लगाया था. फिर शाम चन्दु हलवाई के यहाँ से रबड़ी लेकर आ गये थे.

एक बार दीवाली पर दादा जी ने उसे बाजार से सफेद धोती कुरता दिलवाया था. तब वह तैयार होकर हाथ में छड़ी ल्रेकर पिता जी बन गया था. पिता जी ने फोटोग्राफर मोहन चाचा को बुलवाकर अपनी गोद में बैठाकर उसकी तस्वीर खिंचवाई थी. अब न जाने वह तस्वीर भी कहाँ होगी. होती तो आज एक बार उसे फिर जरुर देखता. शायद गाँव में हो मगर कहाँ.

कहते हैं कि गाँव में कोई देखने वाला बचा नहीं. मकान ढह गया और फिर वहाँ कुछ दुकानें खुल गई. उस जमाने में तो कोई कागज पत्तर भी नहीं होते थे. होते तो भी अब तक कौन सहेजता जब वह खुद ही कभी वापस नहीं गया. शायद उसी मकान के मलबे के साथ फैक दी गई होंगी वह तस्वीरें भी और वह कप भी.

याद आते हैं वह खेत जहाँ अपने दादा के कँधों पर बैठकर वह रोज जाया करता था और वह दोस्त किश्नु और जगतारा, जिनके साथ वह स्कूल में पढ़ा और दोपहर भर खेला करता था. उसे याद आया कि एक बार किश्नु और जगतारा के साथ वह बिना किसी को बताये तालाब पर तैरने चला गया था और किश्नु डूबने लग गया था. तब उसने कितनी जोर जोर से हल्ला मचा कर सबको इक्कठा किया था और किश्नु को सबने बचा कर निकाल लिया था.

उस शाम तीनों को अपने अपने घर में खूब मार पड़ी थी. तब वह सुबकता हुआ अम्मा के पास दुबक गया था. अम्मा ने गरम दूध करके उसमें रोटी शक्कर डाल कर अपने हाथ से खिलाया था और फिर गरम पानी से उसकी सिकाई करती रही और वह सुबकते सुबकते सो गया था.

आज याद करते करते एकाएक उसका हाथ कंधे पर चला गया जहाँ उस रात सबसे ज्यादा दर्द था. एकाएक माँ का सिंकाई करना याद आया. आँखें नम हो गईं. मगर अब क्या, अब तो बस वह यादें ही शेष हैं और उन्हीं यादों की वादियों में माँ के स्पर्श का एहसास. कितनी देर कर दी उसने. अब गणित लगाने से भी क्या फायदा देर जल्दी का, क्या पाया क्या खोया का.

सोचता है तो लगता है क्या यही बेहतर विकल्प होता है जिसको पाने के लिए इन्सान अपना सर्वस्व खोता है.नहीं, शायद नहीं. यह तो शायद उम्र की उमंग होती है जो दूरदृष्टि के आभाव में यह समझ ही नहीं पाती कि क्या होता है वाकई बेहतर विकल्प और जब तक यह बात समझ आ पाती है, वापसी के सारे द्वार बंद हो चुके होते हैं और बच रहता है बस एक और एक मात्र विकल्प!! खिड़की पर बैठे नम आँखों से यादों की वादियों में विचरण!!!

आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं..
बारिश यूँ ही बेवजह नहीं होती...

-आज फिर मेरी आँख बरसी है.

-समीर लाल ’समीर’

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90 टिप्‍पणियां:

रंजन ने कहा…

सिरियस लगता है.. शाम को आकर पढ़ता हुँ.. वैसे हेडर को क्या हो गया..

Arvind Mishra ने कहा…

बेहतर विकल्प घर से दूर ही होते हैं अक्सर, न जाने क्यूँ.

हाँ यह एक अनुत्तरित प्रश्न रहा है मेरे लिए भी -लेकिन तभी शायद हरिऔध की वह कविता
याद आ जाती है न जो वर्षा के एक बूँद के मोती बन जाने की इसी उधेड़बुन को बयाँ करती है.
बिखरे मोती की भी कुछ ऐसी ही मार्मिक किन्तु सुखान्त कथा है !

अजय कुमार झा ने कहा…

आज आपको पढ कर ठिठोली करने का मन नहीं कर रहा...कर नहीं पा रहा हूं ....देश से अपनो से बिछडने का जो दर्द आप महसूस कर रहे हैं ...वो तो अब यहां भी महसूस किया जा रहा है ...गांव में आजकल बस कुछ बूढी आंखें ही तो रहती हैं ..और उनके सब ...उसी कम्बख्त बेहतर विकल्प की तलाश में नगर महानगरों की तलाश में निकल गया है । आपकी दूरी थोडी सी ज्यादा बन गई है और ....बहाने वापस लौटने के ...या लौट आने के भी नहीं मिल रहे ...इसलिये आप खुद को ज्यादा एकाकी मान रहे हैं । आप हमारे बीच रहें ...सुख दुख में भी ..यही कामना है ।
आज इससे ज्यादा कुछ नहीं

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

यादो की बरसात . यादें ही तो रह जाती है .

RAJ SINH ने कहा…

प्रिय समीरजी ,
हम आप जैसे बहुतों ने यह दर्द झेला होगा .भूले रहें तो ठीक. या आप जैसा कोई याद दिला दे तो ? विकल्प ?
या जमीन से खुद को ही उखाड़ कर खुद ही को गमले में रोप देने का का दर्द .यह भी एक विकल्प .
भाई आपके साथ हंसी बांटने की आदत है . आँख नम न किया करो.

विवेक रस्तोगी ने कहा…

जिंदगी के सारे दर्द उँडे़ल दिये हैं...
मन की गहराई में जाकर..
दिल में उतर गई सारी बातें..
सोचता हूँ शायद ये मेरे वाक्य हैं...
पर कभी लिख नहीं पाया..

Urmi ने कहा…

मैं आपके इस शानदार पोस्ट को पढ़कर निशब्द हो गई! हर इंसान की ज़िन्दगी में कुछ ऐसे पल होते हैं जो वो सिर्फ़ यादें बनकर रह जाती हैं! आपकी लेखनी को सलाम!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

समीरलाल जी!
आपकी आत्म-कथा का यह पृष्ठ स्मरणीय है।
अतीत के झरोखों से निकली यह "सदा"
सदा ही गूँजती रहेगी। यही तो जीवन का सिलसिला है।
जो अबाध गति से चलता जाता है.....
और चलता जाता है.....!

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

ये तो जन-जन की कहानी है भाई! इतना गंभीर न लिखा करें.
माँ नहीं रही, पिता नहीं रहे..................बापसी के रस्ते बंद या समाप्त....
चिंतन पूरी जिंदगी का है, आदमी समझे तो वो तो बस खिड़की के ऊपर टंगा प्रशस्ति पत्र देख रहा है.
इसे रचना नहीं कहेंगे......................

वाणी गीत ने कहा…

दर्द ही दर्द बिखरा पड़ा है ...प्रवासी होने का....माँ को खोने का...पिता के जाने का ...समझ नहीं पा रहे ..किस दर्द को ज्यादा गहरा माने...कल दूरदर्शन पर तरुण सागर जी का प्रोग्राम देखा ...अपनी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक कड़वे वचन का एक दृष्टान्त पेश कर रहे थे ..." बचपन में मां, युवास्था में पत्नी , बुढापे में पोता और मृत्यु के समय भगवान प्रिय होता है .." ऐसा क्यों होता है ...!!

बेनामी ने कहा…

आज फिर मेरी आँख बरसी है.
मन रह रह के किसी अपने के स्नेह को तरसा हैं

माँ हमेशा कहती हैं मेरे निकम्मे बच्चे अच्छे हैं बुढापे मे मेरे साथ तो हैं । ऐसी भी काबलियत क्या जो माँ बाप देश से ही दूर ले जाये

Mithilesh dubey ने कहा…

क्या कहूँ, आपने दिल को छु लिया। लाजवाब लगा पढ़कर....

Khushdeep Sehgal ने कहा…

सदियों से ऐसा देख कर कि बेहतर विकल्प घर से दूर ही होते हैं अक्सर, न जाने क्यूँ...

गुरुदेव, मेरी ज़िंदगी का भी यही सच है...

वैसे आज आप की ये कलम न जाने कितनी आंखों को छमछम बरसाएंगी...

जय हिंद...

Murari Pareek ने कहा…

सही है हम घर से दूर ही विकल्प ढूंढ़ते है और वो हमारी उम्र की उमंग और दूरदर्शिता का अभाव ही है ! वरना जो आनंद अपने गांव में हैं वो गांव से दूर कहाँ ! पर एक बात ये भी है की जो गाँव से दूर वतन से दूर रहते हैं उनका प्यार गांव वतन के प्रति अधिक होता है !

Murari Pareek ने कहा…

आपके इस गंभीर लेखन से आपके अन्दर की मिलती देता है ! यही कारन है की आप हमेशां हंसते मुस्कुराते रहते हो| बिलकुल इस ग़ज़ल की तरह : तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो| क्या गम है जिसको छुपा रहे हो ||

Unknown ने कहा…

"जब पल भर का हैं मिलना,
फिर चिर वियोग में झिलना,
एक ही प्राप्त हैं खिलना,
फिर सूख धूल में मिलना,

तब क्यों चटकीला सुमन रंग?
जलता यह जीवन पतंग"

जयशंकर प्रसाद

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

सुन्दर आत्मकथा समीर जी , आत्मकथा ही कहूंगा भले ही माध्यम किसी और को चुना हो ! और आपकी यह आत्मकथा मुझे भी एक कविता लिखने को मजबूर कर रही है, देखते है बन पाती है या नहीं !

Satish Saxena ने कहा…

संवेदनशील समीर काफी नज़र आते हैं आजकल ...बहुत बढ़िया !

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

विकल्प कितने ही बेहतर क्यों न हों जड़ों के पोषण का मुकाबला नहीं कर सकते। फिर भी इन विकल्पों ने ही दुनिया का विस्तार किया है। यह होमोसेपियन अफ्रिका से निकल कर सारी दुनिया में फैल गया। दोनों का अपना अपना महत्व है।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

क्या यही बेहतर विकल्प होता है जिसको पाने के लिए इन्सान अपना सर्वस्व खोता है.नहीं, शायद नहीं. यह तो शायद उम्र की उमंग होती है जो दूरदृष्टि के आभाव में यह समझ ही नहीं पाती कि क्या होता है वाकई बेहतर विकल्प और जब तक यह बात समझ आ पाती है, वापसी के सारे द्वार बंद हो चुके होते हैं और बच रहता है बस एक और एक मात्र विकल्प!!


यादों की वादियों में उदासी कलकल बहती है.
आँखे बूढी हो जाये तो हर पल बहती है.

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

समीर जी, क्‍या लिखे टिप्‍पणी? मैं अक्‍सर सभी को यही बात कहती हूँ कि माना कि बच्‍चे बेहतर विकल्‍प के लिए विदेश चले गए और ह‍म य‍हाँ अकेले रह गए। लेकिन आज भी हमारे पास रिश्‍तेदार हैं, हम जैसे अनेक अकेले परिवार हैं। हम अपना जीवन मिलजुलकर काट ही लेंगे लेकिन जब तुम्‍हारे बच्‍चे बड़े होकर, तुमसे दूर चले जाएंगे तब तुम्‍हारे पास तो रिश्‍तेदार भी नहीं होंगे। फिर तुम्‍हारा अकेलापन वो भी कम उम्र में ही प्रारम्‍भ हो जाएगा, तब तुम क्‍या करोगे? भारत में भी जब तक तुम्‍हारे लिए कुछ नहीं बचा होगा। आज आपने मेरे मन की बात लिख दी, मैं जब कहती हूँ तो एकतरफा लगता था लेकिन आज आप ने लिखा है तो यह एकतरफा नहीं रहा।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बहुत बढिया....वो गीत याद आ गया

कोई लौटा दे मेरे बिते हुए दिन.....

" किन्तु ध्वनि तरंगो में वह जुड़ाव कहाँ कि कुछ भी जुड़ सके. न स्पर्श और न गंध."

संजय बेंगाणी ने कहा…

हाजरी लगा लें.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

इन्ही सब यादों के झमेले से उबारने के लिये भगवान ने डिमेंशिया (Dementia) का आविष्कार किया होगा! :(

BAD FAITH ने कहा…

आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं..
बारिश यूँ ही बेवजह नहीं होती...
भावुक कर गये जनाब.

Pawan Kumar ने कहा…

दिल को छु लिया आपकी पोस्ट ने

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

एकाएक माँ का सिंकाई करना याद आया. आँखें नम हो गईं. मगर अब क्या, अब तो बस वह यादें ही शेष हैं और उन्हीं यादों की वादियों में माँ के स्पर्श का एहसास. कितनी देर कर दी उसने. अब गणित लगाने से भी क्या फायदा देर जल्दी का, क्या पाया क्या खोया का.

बहुत ही मार्मिक लिखा आपने. शुभकामनाएं.

रामराम

Neelesh K. Jain ने कहा…

Samir bhai
Aapke is post ke liye liye apni kitaab 'Sarokar' se kuch panktiyan:
Chunauti dete aadmi ke sankalp ko
Chaurahe khade hain lekar vikalp ko
Neelesh Jain, Mumbai

ePandit ने कहा…

गुरु जी आप की भावनाएँ समझ सकता हूँ. इसीलिए कहा गया है - "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी".
मैं 6-7 सात साल की उम्र में ही उत्तराँचल अपने गाँव से हरियाणा आ गया था, कई बार यादें सताती हैं. आने की वजह वही बेहतर विकल्प की तलाश. सोचता हूँ काश अपने गाँव में स्वजनोँ के पास होता.

फिर भी खुशकिस्मत हूँ कि प्रियजन पास हैं, अपने देश में हूँ, जब दिल करे किसी से मिलने जा सकते हैं, ब्लॉगर मीट कर सकते हैं :-)

नीरज गोस्वामी ने कहा…

हम कुछ पाने के लिए कितना कुछ खो देते हैं...जब इस बात का पता चलता है तब तक देर हो चुकी होती है...बहुत अच्छी और सच्ची पोस्ट समीर जी...
नीरज

Ancore ने कहा…

वैसे हेडर को क्या हो गया..

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

Aadarniya Sameer ji............

Saadar Namaskar........


Aapki is post ne dil ko chhoo liya.... nishabd hoon.........

Jai HInd....

रंजू भाटिया ने कहा…

सच में इसको पढ़ कर आँख बरसी है ..यादे यूँ ही रह जाती है ..जो गए वो कब वापस आये ..जो हैं उनसे निभाना मुश्किल होता जा रहा है ..

शिवम् मिश्रा ने कहा…

२९ को दिल्ली में था और वहाँ भी एक एसा बन्दा मिला जो कुछ बेहतर विकल्प की तलाश में अपने घर से काफी दूर था और शायद फ़िर भी उसको वह नहीं मिला !
आप ने सच में आज काफी भावुक कर दिया ! यादें एक बार वापस आ जाये तो वापस लौटने में समय तो लगाती ही है !

Satyendra PS ने कहा…

बढ़िया लिखा है आपने। हालांकि यह भी हकीकत है कि विस्थापन में ही ख्याति है, सुख है, समृद्धि है। अगर नई चीजें सीखने, जिंदगी में आगे बढ़ने की चाह हो तो विस्थापन हो ही जाता है। और अपनी जमीन से जुड़े रहने, एक ही जगह पड़े रहने से जिंदगी थम सी जाती है। दुनिया में क्या हो रहा है, आदमी सोच भी नहीं सकता। आदिम समाज में ही जीता रहता है ऐसा व्यक्ति।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बस यादे ही तो हैं जो रह जाती हैं...जीवन जीने के बाद भी आदमी यह नहि पाता कि यह जीवन उसने जीया या जीवन ने उसको जीया.....
बहुत गहरी संवेदनाओ मे डूबी पोस्ट लगी यह....

Satyendra PS ने कहा…

कहानी तक तो सही है, लेकिन जमीनी हकीकत से दूर। मैं एक लिंक भेज रहा हूं, जिसमें पलायन के बारे में लिखा गया है।

http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/57-62-76005.html

IMAGE PHOTOGRAPHY ने कहा…

यादों को समेट्ने पर आदमी टुट जाता , रिस्तो कि क्या बिसात ।

सदा ने कहा…

जैसे-जैसे पढ़ती गई, हर शब्‍द निरूत्‍तर सा करता जा रहा था, मन जब व्‍यथित होता है, परदेस में अपनों से बिछड़ने की पीड़ा को कलम कुछ इन्‍हीं लफ्जों से बयां करती है, आप हम सब को यूं ही मार्गदर्शित करते रहें, इन्‍हीं शुभकामनाओं के साथ, आभार

अजय कुमार ने कहा…

बहुत ही भावुक , और यथार्थपरक लेख
और आपके अंदाज का तो क्या कहना

अजय कुमार ने कहा…

अभी अभी जबलपुर से लौटा हूँ | घूमने गया था |
वहां की कुछ तस्वीरें मेरे ब्लॉग पर हैं | आप जरूर देखें

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बेहतर विकल्प घर से दूर ही होते हैं अक्सर, जाने क्यूं
सच है. यही बेहतर विकल्प तो पीढियों के बीच दूरियां बढा रहे हैं. लेकिन युवापीढी और कर भी क्या सकती है? गम्भीर कथा.

Priyambara ने कहा…

आप ऐसे पोस्ट लिखकर अपने साथ साथ हमें भी दुखी कर जाते हैं। बिल्कुल ऐसा लगा जैसे हमारी भावनाओं को आपने शब्द दे दिया हो। चाहे विदेश हो या अपना देश अपने घर को छोड़ने का दुःख हमेशा होता है।

दर्शन ने कहा…

काफी दिनों से आपकी लेखनी का पीछा कर रहा था !!

आज जैसे आपकी लेखनी सीधे दिल पर दस्तक करते हुए कई सवालों को अनुत्तर छोड़ के चली गयी !

सच और गहरा है ये तो !!
"आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं.. ,बारिश यूँ ही बेवजह नहीं होती.... "

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

oh sameerji, aapne kya likh diya..aankhe nam hue bager rah hi nahi saki..ek ek shbd mano....
bahut maarmik..../sach he aasmani rishte bhi toot jaate he../

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं..
बारिश यूँ ही बेवजह नहीं होती...

आज फिर मेरी आँख बरसी है....

समीर भाई ......... अक्सर विदेश में बैठे मन उदासी की चादर ओद लेता है और यादों के जंगल में निकल जाता है ........ दिल को छूती हुयी पोस्ट है ... निःशब्द हूँ इस पोस्ट पर ......... दिल के दर्द को दिल से समझने की कोशिश कर रहा हूँ बस .........

कमलेश वर्मा 'कमलेश'🌹 ने कहा…

समीर जी आप परदेश में जा कर जिस शिद्दत के साथ ,अपने देश की यादों को बयाँ कर आपका मन द्रवित हो रहा है उसके विपरीत ज्यादा तर लोग विदेश जाने की ललक मन में लिए बैठे ...आपका मर्म समझा जा सकता है ...क्या कहूँ .....

बेनामी ने कहा…

निशब्द .... क्या कहें... घर से दूर होने का गम हमें भी सालता हैं...

समयचक्र ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण पोस्ट..... आभार

बेनामी ने कहा…

कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो निश्चित है; चाहे विदेश हो या अपना देश अपने घर को छोड़ने का दुःख हमेशा होता है और इसे बेटियों/ लड़कियों से बेहतर कौन समझ सकता है; परन्तु/किन्तु ये बात तो तय है की अगर आप अच्छे विकल्प की तलाश में स्वदेश छोड़ परदेश ना जाते तो हम इतनी प्यारी भावत्मक रचना से वंचित ना रह जाते????.

अनिल कान्त ने कहा…

kabhi rachna ji ki baat sochta hoon to kabhi aapka likha man mein kahin gahre dard ka ehsaas karata hai...

Abhishek Ojha ने कहा…

क्या कहूं इस पर ! :(

kshama ने कहा…

Aapke aalekh yaa eachna pe tippanee karun ye auqaat hee nahee...yahee sach hai! Itna kah laut jaatee hun..

राज भाटिय़ा ने कहा…

आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं..
बारिश यूँ ही बेवजह नहीं होती...

-आज फिर मेरी आँख बरसी है.
इस बार जब भारत से वापिस आया तो लगा कि मेरी जड अब नही रही, फ़िर सब को तेयार किया कि क्रिस्मिस पर भारत चलते है, लेकिन किस के पास, कोन कर रहा है हमारा इंतजार.... ओर फ़ेंसला बदल गया.....आप के आज के लेख की सारी बाते पिछले कई दिनो स्रे मेरे दिमाग मे घुमती है.... आज आप ने रुला दिया

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

हम तो इसी दर्द को लेकर जीते हैं इसी दर्द को लेकर मरते हैं....
कहने को कुछ है नहीं...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मन से लिखा है --
माँ की याद ,
दादा जी और
पिताजी की पावन स्मृतियों को
मेरे भी नमन
स स्नेह,
- लावण्या

अनूप् शुक्ल ने कहा…

अनूप भार्गव की टिप्पणी जो दो साढ़े तीन साल पहले उन्होंने की थी मानसी की पोस्ट पर
ज़िन्दगी में अधिकांश चीज़ें A La Carte नहीं 'पैकेज़ डील' की तरह मिलती हैं । विदेश में रहने का निर्णय भी कुछ इसी तरह की बात है । इस 'पैकेज़ डील' में कई बातें साथ साथ आती हैं , कुछ अच्छी - कुछ बुरी । अब क्यों कि उन बातों का मूल्य हम सब अलग-अलग, अपनें आप लगाते हैं इसलिये हम सब का 'सच' भी अलग होता है । जो मेरे लिये बेह्तर विकल्प है , वो ज़रूरी नहीं कि आप के लिये भी बेहतर हो ।

यह कुछ अपनें निज़ी विचार रख रहा हूँ :

१. हम यहां रह कर जिन भौतिक सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं , उन की एक कीमत भी दे रहे हैं । परिवार , मित्र और सब से बड़ी बात अपनी माटी से दूर होना । अपनें बच्चों को उन के दादा-दादी , नाना-नानी से दूर रखना एक कीमत ही तो है । अपनी मिट्टी से दूर रह कर अपनी एक नई पहचान बनानें के लिये संघर्ष करना भी एक कीमत ही है ।
२. यदि मुझे कोई यह कहता है कि वो यहां पर इसलिये है कि इस तरह का काम भारत में सम्भव नहीं है , Blah Blah Blah तो माननें की इच्छा नहीं होती । हम क्यों नहीं इमानदारी से मान लेते कि हम में से अधिक से अधिक ५-१० % को छोड़ कर हम यहां इसलिये हैं कि हमें यहां की सुविधाएं प्यारी हैं ? क्यों Guilty Feeling सी होती है , हमें यह कहते हुए ?
३. मुझे तब भी चिढ होती है जब कोई मुझे सीधे या अप्रयक्ष तरीके से यह कहनें की कोशिश करता है कि हम नें विदेश आ कर देश के साथ अन्याय किया है । देश में रह कर सरकारी अफ़सर बन कर घूस लेनें से बेह्तर है कि मैं यहां रह कर इमानदारी से अपना काम करूँ और अपनें देश के लिये कुछ विदेशी मुदा जुटाऊँ । आज भारत में जो इतना आउटसोर्सिंग का काम बढ रहा है उस का कुछ तो श्रेय विदेश में रहनें वाले भारतीयों द्वारा स्थापित की गई 'इमेज' को जाता है ।
४. भारत में हाल में हुई प्रगति के बाद शायद 'भौतिक सुविधाओं' में अन्तर घट गया है , शायद अब 'बैलेन्स' पश्चिम की तरफ़ इतना अधिक नहीं हो जितना आज से २० वर्ष पहले था।
५. विदेश में रहना 'दलदल' की तरह है , जितना ज़्यादा समय यहां रहेंगे , उतना ही निकलना कठिन होगा । एक समय के बाद यदि आप जाना भी चाहें तो 'बच्चों' तथा अन्य जिम्मेवारियों के कारण नहीं जा पायेंगे।

संक्षेप में कहूँ तो यही कि ....

सच यह है कि हम सब अपनें अपनें सच को जी रहे हैं

Udan Tashtari ने कहा…

अनूप भाई

आप तो पूरा सार कह गये अपनी बात में..एकदम सहमत!!

दलदल में गहरे फंस चुका हूँ और ज्यादा फंसता जा रहा हूँ...निकल न पाने की तड़पन है यह पोस्ट...आप जान गये.

आभरी हूँ.

अर्कजेश ने कहा…

"अनुभव वह कंघी है जो हमें गंजा होने के बाद मिलती है ।"

आंखें नम करने वाली पोस्ट !

रचना दीक्षित ने कहा…

समीर जी मेरे ब्लॉग पर आप का अभिवादन है सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार.आगे भी आप के साथ की अपेक्षा रहेगी.आपके लेख की आंधी ने तो हमे भी झकझोड़ दिया अपनी कविता की कुछ लाइनें आपके लेख के साथ जोड़ कर देख रही हूँ
आज हवा में मिटटी की खुशबु सी है
जरुर किसी माँ का दिल पसीजा होगा
आज हवा में कुछ नमी सी है
वो भी अपनी माँ की याद में रोया होगा
rachana dixit

ghughutibasuti ने कहा…

सही विकल्प तो कोई भी नहीं जानता। विस्थापन की जिस पीड़ा को आप झेल रहे हैं वह लगभग हर स्त्री सदियों से झेलती आई है और आज भी वह इसका विकल्प ढूँढ ही रही है। शायद उसे कभी मिल जाए या न भी मिले। वैवाहिक जवन का सुख जो पुरुष को सहज ही बिना विस्थापित हुए, बिना स्वयं को अधिक बदले मिल जाता है वही सुख पाने के लिए स्त्री को विस्थापित होने का मूल्य चुकाना पड़ता है। वह न केवल मिट्टी से विस्थापित होती ही अपितु कुल, गोत्र, मान्यताओं, रीति रिवाज, खानपान और कभी कभी भाषा से भी विस्थापित कर दी जाती है।
खैर गमलों में जीना हमारी आदत है। हम जड़ के साथ थोड़ी मिट्टी भी जबरन चुरा छिपाकर संग ले आती हैं।
घुघूती बासूती

M VERMA ने कहा…

वापसी के सारे द्वार बंद हो चुके होते हैं और बच रहता है बस एक और एक मात्र विकल्प!! खिड़की पर बैठे नम आँखों से यादों की वादियों में विचरण!!!"
जाने क्यूँ छोड आया
मैं अपना गाँव
जिसमें था
माँ की आँचल का घना छाँव
अलसायी सुबह्
कौओ की काँव काँव
पिताजी के मूँछों का तेवर
कागज का नाव

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

मार्मिक! बचपन की यादों में मन भीग गया। पर शायद जीवन ऐसे ही आगे बढ़ता है। हरिऔध की कविता 'एक बूंद' तो याद होगी ही आपको।

पंकज ने कहा…

माइग्रेशन मनुष्य की पुरातन आदत है. यहाँ से वहाँ फिरते रहना. पास दूर अलग बात है पर हम में से अधिकांश उस स्थान पर नहीं रहते जहाँ माँ पिताजी रहते थे.

डॉ टी एस दराल ने कहा…

आज थोडा उदास लग रहे हैं, समीर जी.
ये जिंदगी भी एक बड़ी जटिल उलझन है.
कुछ पाने की चाह में हम आगे आगे दोड़ते रहते हैं.
जो पाना चाहते हैं, वो भी आगे आगे दोड़ता रहता है.
जिंदगी भी एक मर्ग मरीचिका है.
बहुत भावुक पोस्ट लिखी है आज.
एक दौरा भारत का हो जाये , तो सारी उदासी ख़त्म हो जायेगी.

दीपक 'मशाल' ने कहा…

aapke kahne se ab to sabne kayal hona bhi chhod diya fir main kaise houn, ek kaam karta hoon koyal ban ke aapke yashgeet gata hoon :), kya karoon likhte hi itna jhannatedaar hain.... ki raha nahin jata(control nahin hota...)
Jai Hind...

दीपक 'मशाल' ने कहा…

yakeen ke sath kah sakta hoon ki sirf aapki aankh nahi balki jo 64 padh chuake hain aur yah 65vaan path raha hai uski aankh bhi barsi hogi...

Smart Indian ने कहा…

क्यों इमोशनल करते हो भाई? बेहतर विकल्प का तो पता नहीं मगर हम मध्यवर्गीयों ने तो सामान्य विकल्प भी पीढियों से घर से दूर ही पाया है. यही जीवन है. टीसता भी है सालता भी है और दर्द में भी एक सुखद अहसास देता है. जो ठोकर लगे बिना संभल गए वे भाग्यशाली हैं. मगर जिनमें सँभालने की ताकत भी परदेस जाए बिना न आये वे मजबूर, मजदूर क्या करेंगे?

pratima ने कहा…

यादें बस यादें ही रह जाती हैं .........

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

समीर भाई जी ... आपने इस कालजयी पोस्ट द्वारा उन लाखों-करोडों लोगों के दिल की बात कही है जो जड़ों से लगभग कट से गए हैं |

मैं आपकी ही उन पंग्तियों को उधृत कर रहा हूँ जो ... हमें अन्दर तक झकझोरती है, फिर सोचने को मजबूर करती है ...

"... पलायन की आँधी, विकल्पहीनता के गर्भ से उठी बेहतर विकल्प की दिशा में बहती आँधी, जिसका मुकाबला करते जाने कितनी बार झुक कर वह सीधा खड़ा हो गया था किन्तु एक तेज झोके के साथ वह जड़ से उखड़ आ पड़ा था ...."

"आश्चर्य होता है सदियों से ऐसा देख कर कि बेहतर विकल्प घर से दूर ही होते हैं अक्सर, न जाने क्यूँ. किस बात के लिए बेहतर विकल्प- क्या रोजगार के लिए, स्वतंत्र जिन्दगी के लिए, नया कुछ जानने के लिए कि बस, एक नया रोमांच."

मैं निःशब्द हूँ .... बस फिर से आपकी बात ही दुहराता हूँ :
"सोचता हूँ तो लगता है क्या यही बेहतर विकल्प होता है जिसको पाने के लिए इन्सान अपना सर्वस्व खोता है. नहीं, शायद नहीं. यह तो शायद उम्र की उमंग होती है जो दूरदृष्टि के आभाव में यह समझ ही नहीं पाती कि क्या होता है वाकई बेहतर विकल्प और जब तक यह बात समझ आ पाती है, वापसी के सारे द्वार बंद हो चुके होते हैं"

अपूर्व ने कहा…

यह क्या लिख दिया सर जी, और क्यों लिख दिया..हम सब जो अंदर ही अंदर से इसी सच के साक्षी हैं...मगर खुद को भरमाये रहते हैं..तरह-२ के ख्वाबों, उपलब्धियों की मृग-तृष्णा मे..मगर आप सब बेकार कर देते हैं..यह लिख कर..सच कहूं तो यह पोस्ट हिंदी-चिट्ठाकारी की अमूल्य निधि है..असर रात भर रहेगा अब...मगर सोम्वार को फिर वही तेज रफ़्तार...

उसे अपनी गाड़ी की गति बढ़ाते बढ़ाते १०० के आसपास ले जाना होती है, तभी हाईवे पर तेज रफ्तार कारों के काफिले में वो शामिल हो पाता है

RAJ ने कहा…

"If diamonds were a plentiful as pebles, nobody would stoop to pick them up".
Its the human nature,that we crave for things which we dont have.

I am absolutely certain a lot of people in india would love to swap places with you Sameerji.

You have a great medium to express your feelings,and you have readers who empathise with you.

Wishing peace and happiness to you always.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

जक्रव्यूह में फंसा जीवन
शेष बची
सिर्फ यादें....

आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं
बारिश यूँ बेवजह नहीं होती
--वाह !
आनंद आ गया समीर जी, आपका यह लेख पढ़कर।

प्रिया ने कहा…

Sameer sir,

ham hamesh aapko nahi padh paate kyonki aapki post badi hoti hai...but ye jo likha hai na aapne bahut touching hai.....but waqt ke saath chalna padta hai..

आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं..
बारिश यूँ ही बेवजह नहीं होती...

-आज फिर मेरी आँख बरसी है.

These lines are the brief of above story.

hamko lagta hai .....ki aap ek bahut achchey insaan hai.. God bless you!

गौतम राजऋषि ने कहा…

सरकार, ये तो सेंटी कर दिया आपने पूरी तरह।
आपके हिस्से के सच से पूरी तरह सहमत हूँ...क्या देश छोड़ना ही घर छोड़ना होता है? अपने ही मुल्क में भी तो लोग गांव छोड़ कर दूर-दराज के इलाके में जाते हैं।

जैसा कि फुरसतिया देव ने कहा है हमसब अपने-अपने सच को जी रहे हैं।

आपको इतना कमजोर पड़ते कभी नहीं देखा पहले। हौसला रखें....

Alpana Verma ने कहा…

'जड़ों से छूट जाने क दर्द यहाँ की तड़क भड़क की तेज रफ्तार भागती जिन्दगी में गुम होकर रह गया ठीक वैसे ही जैसे उसकी अपनी पहचान'

-दिल को छू गयी आप की यह पोस्ट ...इस दर्द को हम आप ही समझ सकते हैं.
-कोई अपनी मर्ज़ी से अपनी मिट्टी से दूर नहीं जाना चाहता ..कुछ न कुछ मजबूरी तो होती ही है.

लिखने को बहुत कुछ है..फिर कभी..

Rajeysha ने कहा…

उपस्‍थि‍त।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

हम्म..भौतिक परिवेश से हटकर भी सबकी एकाकी दुनिया होती है..

Asha Joglekar ने कहा…

समय बडा बलवान है । बेहतर विकल्प हमेशा घर से दूर क्यूं होते हैं, इस प्रश्न में ही छुपा है उत्तर । स्वतंत्रता का जबरदस्त मोह । आपका आखरी शेर बहुत पसंद आया ।

बवाल ने कहा…

रुला दिया ना! हाँ नहीं तो।

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं..
बारिश यूँ ही बेवजह नहीं होती...

-आज फिर मेरी आँख बरसी है.

बस.....-सारी कथा इन तीन पंक्तियों में व्याप्त है ...."बारिश यूँ ही बेवजह नहीं होती... ".....आह....! तू जो मिल जाती कहीं ....न बहते कतरे लहू के ....न ये बारिशें होतीं ......!!

rashmi ravija ने कहा…

ये सारे भाव सारी यादें,तब नहीं आतीं,जब बेहतर विकल्प की तलाश में कदम बढ़ रहें होते हैं,जब थक कर दो पल सुस्ताने को बैठते हैं,तो घटाओं की तरह यादें उमड़ उमड़ कर बरसती हैं....पर यही जीवन का सत्य है...और सबको इसका सामना करना ही पड़ता है,कोई गाँव से शहर आया,कोई महानगर तो कोई परदेश...सबके साझे दर्द को शब्द दे दिए आपने

Renu Sharma ने कहा…

sameer ji ,
namaskar
behad samvedansheel rachana padhkar doori or ekant ka aabhas huaa,
jo hamare shahar , ghanv or desh se juda hota hai .
aapase parichit hone ka avasar mila hai.
ghar to abhi bhi aapaka hai .
hum sab aapake hi to apane hain .
renu...

शरद कोकास ने कहा…

अभी चार दिनों बाद मित्र के परिवार के एक दुखद हादसे से सामना कर् वापस लौटा हूँ ,एक पोस्ट लगाई और आपके ब्लॉग पर आकर यह रचना पढ़ी .. किश्नु और जगतारा तो बचकर आ गये लेकिन .. कितने ही बच्चे लौटकर नही आ पाते.. । हम इंसान ही तो हैं समीर भाई कितना दुख बर्दास्त करें ..। घर से निकलते हैं हम और किसीकी ज़िन्दगी से ही निकल जाते है ..फिर कभी लौट नही पाते ..। हाँ वह गाँव और घर भी हमारे साथ ही आता है और वह भी कभी नही लौटता ।
अभी आँसू पोछ ही रहा था कि आप की इस रचना ने फिर रुला दिया ।

devendraduniya ने कहा…

gaadi bulaa rahi hai,siti baja rahi hai,jindgi hai,chalti hai aur bas chalti jaa rahi hai.

Arshia Ali ने कहा…

यादें अक्सर दुखदायी ही क्यों होती हैं। यह बात समझ में क्यों नहीं आती?
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और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।

shikha varshney ने कहा…

आपकी ये रचना बहुत कुछ कह रही है....और मैं भी बहुत कुछ कहना चाह रही हूँ, पर कुछ भी नहीं कह पा रही हूँ.आप्रवासियों का दिल जैसे निकाल कर रख दिया है आपने यहाँ ...न जाने किस बेहतर विकल्प की तलाश में हम जिन्दगी की असली खुशियाँ गवां देते हैं......और अंत में रह जाते हैं कुछ प्रश्न और एक अतृप्त आत्मा....बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति ....बधाई स्वीकारें.

!!अक्षय-मन!! ने कहा…

मेरी कम उम्र मे ही मुझे पापा का साथ छोड़ना पड़ा वो हमें छोड़ कर चले गए ऊपर हमसे बहुत दूर जिन्हें मे सबसे ज्यादा प्यार करता हूं........
और हाँ लेकिन वो विरासत मे मुझे अपनी कलम दे गए वो एक अच्छे लेखक और पत्रकार थे......
उनकी याद मे मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं आपसे बतना चाहूंगा
ये पन्ने हैं जिंदगी के इनमे आपका पता तलाशता हूं
आप खो गए हैं मगर अब बस आपकी यादों का हिसाब
संभालता हूं

बस एक पन्ना खाली छुटा है मेरी इस किताब का
बात वो अधूरी छोड़ गए बोले,बेटा अभी बताता हूं

बस मेरे मे ही सीमित है आपके रूप का हर रंग
अपने जिस्म के हर हिस्से को आपमे ही बसाता हूं

गुजरते बचपन के साथ वक्त भी ये गुजर जाएगा मगर
गुजरे हुए कल की गलियों से मै अब भी गुजरता हूं

मेरा मुक़द्दर तो देखो ये मुझे छोड़ मेरे अपनों पर कहर ढाता है
इसलिए जिस्म छोड़ कभी-कभी आपके साथ निकल पड़ता हूं

अकसर बचपन मे आसमानों मे छिपे राज आप सुनाते थे मुझको
अब क्यूँ नही बरसते आसमां से आप,देखो तो जरा मे कितना गरजता हूं

सच आसमानी रिश्ते भी साथ छोड़ जाते हैं......



माफ़ी चाहूंगा स्वास्थ्य ठीक ना रहने के कारण काफी समय से आपसे अलग रहा

अक्षय-मन "मन दर्पण" से

बेनामी ने कहा…

''आसमानी रिश्ते भी टूट जाते हैं 'पढ़ा
एक नए समीर से परिचय हुआ, वैसे उम्र मे छोटे हैं आप मुझसे .
समुद्र की चंचल,शरारती लहरें ...लोग बाहर ही देखते हैं ...समुद्र की गहराई मे छिपा अंधकार ..असीम गंभीरता ....कोई झांके तो दिखे ....
एक दिन सागर ने खुद ही दिल खोल दिया .....
अब मालूम हुआ मेरे आर्टिकल 'पीछा नही छोड़ते ...ये यादों के साये' मे 'इलाहबाद प्लेटफोर्म' को पढ़कर इतनी सम्वेदनशील प्रतिक्रिया क्यों दी थी
आप मे भी वही सब जीता है ,जो मुझ मे भी ...
'आसमानी रिश्ते...'पढ़ा ,मेरे आंसू बहते गए ....फिर दोबारा पढ़ा ... और जिन्हें नही रुकना था ,वे नही रुके ...
इतना लम्बा खत सा लिखती जा रही हूँ
मालूम है आप जैसे ब्लोगर्स को बहुत सारे ब्लॉग पर जाके व्यूज़ भी देने होते हैं ,इसे पढने की न फुर्सत होगी न जरूरत ..फिर भी लिख रही हूँ
उम्र मे छोटे हो ,पर...
प्रणाम दादा !सौ बरसे जिए ..

राम त्यागी ने कहा…

ओ हंसाने वाले तुने रुला दिया आज
संवेदना की इससे भी ऊँची उड़ान होगी क्या ?
बहुत ही मार्मिक और अंतःकरण को छूने वाला अनमोल लेख !!