बुधवार, अगस्त 08, 2007
और फिर रात गुजर गई
'जागे हो अभी तक, संजू के बाबू' लेटे लेटे कांति पूछ रही है.
'हूँ, नींद नहीं आ रही. तुम भी तो जागी हो?' अंधेरे में ही बिस्तर पर करवट बदलते शिवदत्त जी बोले.
'हाँ, नींद नहीं आ रही. पता नहीं क्यूँ. दिन में भी नहीं सोई थी, तब पर भी.'
'कोशिश करो, आ जायेगी नींद. वरना सुबह उठने में देरी होयेगी.'
'अब करना भी क्या है जल्दी उठकर. कहीं जाना आना भी तो नहीं रहता.'
''फिर भी, देर तक सोते रहने से तबियत खराब होती है.'
फिर कुछ देर चुप्पी. सन्नाटा अपने पाँव पसारे है.
'क्यों जी, सो गये क्या?'
'नहीं'
'अभी अमरीका में क्या बजा होगा?'
'अभी घड़ी कितना बजा रही है?'
'यहाँ तो १ बजा है रात का.'
'हाँ, तो वहाँ दोपहर का १ बजा होगा.समय १२ घंटे पीछे कर लिया करो.'
'अच्छा, संजू दफ्तर में होगा अभी तो'
'हाँ, बहु साक्षी भी दफ्तर गई होगी.'
'ह्म्म!! पिछली बार फोन पर कह रहा था कि क्रिस को किसी आया के पास छोड़ कर जाते हैं.'
'हाँ, बहुत दिन हुये, संजू का फोन नहीं आया.'
'शायद व्यस्त होगा. अमरीका में सब लोग बहुत व्यस्त रहते हैं, ऐसा सुना है.'
'देखिये न, चार साल बीत गये संजू को देखे. पिछली बार भी आया था तो भी सिर्फ हफ्ते भर के लिये. हड़बड़ी में शादी की. न कोई नाते रिश्तेदार आ पाये, न दोस्त अहबाब और साक्षी को लेकर चला गया था.'
'कहते हैं अमरीका में ज्यादा छुट्टी नहीं मिलती. फिर आने जाने में भी कितना समय लगता है और कितने पैसे.'
'हाँ, सो तो है. तीन बरस पहले किसी तरह मौका निकाल कर बहु को यूरोप घूमा लाया था. फिर दो बरस पहले तो क्रिस ही हो गये.उसी में व्यस्त हो गये होंगे दोनों. पता नहीं कैसा दिखता होगा. उसे तो हिन्दी भी नहीं आती. कैसे बात कर पायेगा हमसे जब आयेगा तो.'
'संजू तो होगा ही न साथ. वो ही बता देगा कि क्रिस क्या बोल रहा है.'
दोनों अंधेरे में मुस्करा देते हैं.
'पिछली बार कब आया था उसका फोन?'
'दो महिने पहले आया था.कह रहा था कि १०-१५ दिन में फिर करेगा. और फिर कहने लगा कि अपना ख्याल रखियेगा, बहुत चिन्ता होती है. कहीं जा रहा था तो कार में से फोन कर रहा था. बहुत जल्दी में था.'
'हाँ, बेचारा अपने भरसक तो ख्याल रखता है.'
'आज फोन उठा कर देखा था, चालू तो है.'
'हाँ, शायद लगाने का समय न मिल पा रहा हो.'
'कल जरा शर्मा जी के यहाँ से फोन करवा कर देखियेगा कि घंटी तो ठीक है कि नहीं.'
'ठीक है, कल शर्मा जी साथ ही जाऊँगा पेंशन लेने. तभी कहूँगा उनसे कि फोन करके टेस्ट करवा दें.'
'कह रहा था फोन पर पिछली बार कि कोई बड़ा काम किया है कम्पनी में. तब सालाना जलसे में सबसे अच्छे कर्मचारी का पुरुस्कार मिला है. जलसे में उनके कम्पनी के सबसे बड़े साहब अपने हाथ से इनाम दिये हैं और एक हफ्ते कहीं समुन्द्र के किनारे होटल में पूरे परिवार के साथ घूमने भी भेज रहे हैं.'
'हाँ, वहाँ सब कहे होंगे कि शिव दत्त जी का बेटा बड़ा नाम किये है. तुम्हारा नाम भी हुआ होगा अमरीका में.'
'हूँ, अब बेटवा ही नाम करेगा न! हम तो हो गये बुढ़ पुरनिया. जरा चार कदम चले शाम को, तो अब तक घुटना पिरा रहा है. हें हें.' वो अंधेरे में ही हँस देते हैं.
कांति भी हँसती है फिर कहती है,' कल कड़वा तेल गरम करके घुटना में लगा दूँगी, आराम लग जायेगा. और आप जरा चना और एकाध गुड़ की भेली रोज खा लिया करिये. हड्डी को ताकत मिलती है.'
'ठीक है' फिर कुछ देर चुप्पी.
'इस साल भी तो नहीं आ पायेगा. दफ्तर की इनाम वाली छुट्टी के वहीं से क्रिस को लेकर पहली बार दो हफ्ते को कहीं जाने वाले हैं.'
'हाँ, शायद आस्ट्रेलिया बता रहा था क्रिस की मौसी के घर. कह रहे थे कि आधे रस्ते तो पहुंच ही जायेंगे तो साथ ही वो भी निपटा देंगे. शायद थोड़ी किफायत हो जायेगी.'
'देखो, शायद अगले बरस भारत आये.'
'तब उसके आने के पहले ही घर की सफेदी करवा लेंगे, इस साल भी रहने ही देते हैं.'
'हूँ'
'काफी समय हो गया. अब कोशिश करो शायद नींद आ जाये.'
'हाँ, तुम भी सो जाओ.'
सुबह का सूरज निकलने की तैयारी कर रहा है. आज एक रात फिर गुजर गई.
न जाने कितने घरों में यही कहानी कल रात अलग अलग नामों से दोहराई गई होगी और न जाने कब तक दोहराई जाती रहेगी.
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36 टिप्पणियां:
इतना सेंटिया गये। हम तो अपने बाहर गये दोस्तों के लिये कहते हैं -बेचारा गया, काम से। :) अच्छा है।
आह !
“आरंभ” संजीव का हिन्दी चिट्ठा
Sabere-sabere dukhi kar gaye...Haay re America kahein, ya haay re Canada...
Sanju ko uske babu kee yaad aai hogi tabhi to babu ko Sanju kee yaad aai...
Roya main pardeah mein, bheega maa ka pyaar,
Dil ne dil se baat kee, bin chitthi bin taar
समीर ज़ी आज कल आप हमे सेंटी करने लगे हैं ....:)पर एक सच को उजागर करती है आपकी रचना ..शुभकामनाएँ
बहुत मर्मस्पर्शी.
आजकल ट्रेन मे बैठे बैठे आप दूर की सोचने लगे हैं. ;)
बड़ी संवेदनशीलता से बुजुर्ग दम्पत्ति की मनःस्थिति का आकलन किया हैं आपने। और क्या कहूँ बस पढ़ कर आँखें नम हो गईं।
आपके सोच को नमन...
सच में ना जाने कितने दीपक अपने घरों में अन्धेरा फ़ैला कर दुनिया को रोशनी दिखा रहे हैं.. न जाने क्या साबित करना चाहते हैं... कौन जाने
बूढ़े लोगों का पक्ष लेने का मन करता है. लेकिन जो बाहर गया है उसका भी कोई पक्ष होगा? पता नहीं. मानव सम्बन्ध झमेले वाले हैं.
यह पोस्ट याद रहेगी.
बहुत भावुक भावुक लिख दिया. मार्मिक.
क्या कहें, सब जगह एक ही कहानी दोहराई जा रही है. सबकी मजबुरीयाँ भी है.
बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति रही.बहुत पहले एक नाटक देखा था "संध्या छाया" उसकी याद ताजा हो गयी और आंखें नम हो गयी.
एक-एक करके रातें गुजरती रहती हैं और एक दिन पता चलता है जिंदगी गुजर गयी.
हम सब जिंदगी का निर्वासन झेल रहे हैं. कोई गांव छोड़ शहर में है तो कोई शहर छोड़ विदेश में. यह निर्वासन क्यों? हम लौट क्यों नहीं पाते?
पता नहीं.
वाह भाइ लगा की प्रेमचंद युग लौट आया..:)
बहुत ही संवेदनशील लेख है। सच्ची ये कहानी तो हर घर की हो गयी है ।
बस माँ-बाप के अलावा हर किसी के लिए समय होता है।
समीरजी,
पढते पढते मन भारी हो गया है, बस साधुवाद के अलावा और कुछ लिखना नहीं हो पायेगा ।
नीरज
साधारण तरीके से असाधारण बात, बहुत अच्छा
अच्छी लगी पर लगा जज़्बात के ऊपर ऊपर से गुजर गये। थोड़ी और ढील दी होती तो इससे बहुत बेहतर लिखते।
गुरुदेव! आपसे सेंटियत्व कि उम्मीद नही थी। मैं तो हँसने आया था। लेकिन अब हर विधा मे आपकी गुरुता देखकर गुरू-गम्भीर होकर जा रहा हूँ।
मार्मिक सच .
रोइये जार-जार क्या कीजिये हाय-हाय क्यूं
रोज नये सपने बुने जाते और रोज टुटे हुये सपनों की किरच उठायी जाती ।
फिर तस्सली से बिना शिकन लाये नया इन्तजार । कईयों की कहानी है ये ।
बहुत सही!!!!!
शब्द नही मिल रहे मुझे!!
डा. रमा द्विवेदी said..
आधुनिक युग में मां-बाप के दयनीय सच को बयान करती यह कहानी अच्छी बन पड़ी है...बधाई..
दिल को छू देने वाली ये कहानी सच्चाई को भी बयान करती है बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है...
समीर भाई,
आप की सँवेदना कथा के पात्रोँ से , पाठक के ह्रदय तक करुणा फैलाने मेँ सफल हुई है.
ऐसे ही लिखते रहिये ..चाहे हास्य हो, शृँगार रस या और कुछ !
स -स्नेह,
-लावण्या
मर्मस्पर्शी कथा, महावीर जी की कहानी वसीयत की याद आ गई।
sachmuch prem chnd ki yad aa gayi
prem chnd ki yad aa gayi.
sammeer ju aapne prem chand ki yad dila di.
कहानी के भीतर एक और नई कहनी क्या बात है… समीर भाई… हृदय विह्वल हो उठा…!!!
बहुत बढिया और हृदय स्पर्शी कहानी
दीपक भारतदीप
सबसे दिलफरेब हैं गम रोजगार के.
शब्द हां मुझे शब्द चाहिये
सारे शब्द लेख मेम तुमने लिख डाले न इतना सोचा
कुछ तो छोड़े होते जिनको हम टिप्पणी बना लिख पाते
अक्षर अक्षर विद्रोही हो हमसे दूर गया, जा बैठा
तब हम अपने उद्गारों को कैसे फिर चित्रित कर पाते
और लेख यह बार बार दुहराता है थपकी दे देकर
मित्र न चुप यों होकर बैठो
इस चिन्तन पर जरा गाईये
शब्द हाम मुझे शब्द चाहिये
इंसान कभी कभी किसी ऐसे पेड जैसा हो जाता है, जो अपने नवकोपलों में इतना खो जाता है कि जड को भूल ही जाता है………बहुत ही संवेदना के साथ लिखा है आपने एक एक शब्द्……अच्छा लगा|
सादर,
आशु
बहुत अच्छी तरह वर्णन किया है आपने इस सच्चाई का। एक और सच भी है अमेरिका जैसे प्रदेश का और उन में बसे प्रदेसीयों का. http://merakhayal.blogspot.com/2006/07/blog-post_06.html ज्ररा उस पर भी नज़र डाले।
समीर जी आपकी कहानी में माता पिता का दर्द देखा पढ़ा व महसूस किया । मेरे बच्चे भी दस साल से दूर हैं पर इस कहानी की तरह से नहीं, १ क्योंकि वे भारत में हैं , २ क्योंकि हम भी समय के साथ उनके अनुरूप स्वयं को बदल रहे हैं ।
यहाँ से ही प्रवीण परिहार की कविता http://merakhayal.blogspot.com/2006/07/blog-post_06.htmlपढ़ने गई । उनकी कविता व आपकी कहानी दोनों एक ही बात अलग अलग ढंग दे कह रहे हैं। उनकी कविता एक सच्चाई है तो यह दूसरी । दोनों में कोई विरोधाभास नहीं है। रिश्ते, समय, जीवन सब बदलते रहते हैं । चाहकर भी छूटे रिश्तों को हम वहाँ नहीं पहुँचा सकते जहाँ छोड़कर आए थे । बस वे यादें ही सहेज कर रख सकते हैं । और अपने जीवन को कुछ ऐसे जीने का प्रयास कर सकते हैं , कुछ उन लोगों से भर सकते हैं जिन्हें आज भी हमारी अवश्यकता हो , जिन्हें हम अपना समय दें तो वे उसे कीमती मानें ।
घुघूती बासूती
सभी मित्रों का हौसला बढ़ाने के लिये बहुत बहुत आभार.
इसी तरह स्नेह बनाये रखें. बहुत आभार.
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