गुरुवार, जुलाई 12, 2007

मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ



कार अपनी गति से भाग रही है. माईलोमीटर पर नजर जाती है. १२० किमी प्रति घंटा. ठीक ही तो है. मैं आगे हूँ. रियर मिरर में देखता हूँ. वो पीली कार बहुत देर से मेरे पीछे पीछे चली आ रही है. दूरी उतनी ही बनी है. शायद वो भी १२० किमी प्रति घंटे पर ही चल रही है. मैं आगे हूँ, वो पीछे है. शायद वो जीतने की कोशिश ही नहीं कर रहा. अगर वो अपनी रफ्तार १२५ किमी प्रति घंटा कर ले, तो तुरंत जीत जायेगा. मगर उसे नहीं जीतना. वो खुश है अपनी स्थितियों से. मुझसे हार रहा है, यह मेरी सोच है शायद. उसके पीछे आ रही सफेद कार से वो जीत रहा है, यह उसकी सोच होगी. ऐसे मैं सोचता हूँ. पता नहीं, वो क्या सोचता होगा?

अभी तो घर आने में बहुत समय है. अभी मैं जहाँ हूँ, हमेशा वहाँ से घर उतनी ही दूर रहता है रोज. कभी पास नहीं होता. कभी दूर नहीं होता. मैं भी रोज एक ही रफ्तार से गाड़ी चलाता हूँ. आदत ही नहीं कि रफ्तार बदलूँ. क्या जरुरत है? सब ठीक तो चल रहा है. कभी किसी से जीत जाता हूँ. हारने वाले को पता ही नहीं चलता कि मैने उसे हरा दिया है. वो शायद अपने पीछे वाली कार वाले को हराने के जश्न में मगन होगा. ऐसा मैं सोचता हूँ. पता नहीं वो क्या सोचता होगा?

रोज अमूमन यंत्रवत यही होता है. मैं तो खेल में हूँ. यह मेरी दिनचर्या का हिस्सा है. रोज किसी से हारता हूँ, उस पर मैं ध्यान नहीं देता. मैं उसका बुरा नहीं मानता. मैं चाहूँ तो रफ्तार बढ़ाकर १२५ किमी प्रति घंटा कर लूँ. मैं जिससे हार रहा हूँ, उससे जीत जाऊँगा. मगर क्या, सच में जीतूँगा? तब मैं किसी और से हारुँगा. या फिर अगर मेरे आगे वाला भी उस समय मेरे जैसा ही सोचने लगे तो वो अपनी रफ्तार बढ़ा कर १३० किमी प्रति घंटा कर देगा. कोई अंत नहीं ऐसी सोच का और फायदा भी क्या? हासिल क्या होगा सिवाय अफरा तफरी के. फिर मैं अपना शांत स्वभाव क्यूँ बदलूँ? क्यूँ करुँ उसकी परवाह? क्यूँ मचलूँ? मुझे १२० किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलना अच्छा लगता है. मैं सुरक्षित महसूस करता हूँ. कार मेरे नियंत्रण में रहती है. मुझे मेरी स्वतः होती जीत पसंद है. मैं संतुष्ट हो जाता हूँ. रोज किसी से जीत जाता हूँ वो मुझे अच्छा लगता है.

अब मैने हाईवे छोड़ दिया है. घर ८०० मीटर की दूरी पर है. हमेशा यहाँ से घर इतनी ही दूर रहता है रोज. कभी पास नहीं होता. कभी दूर नहीं होता. आज मैं पीली कार वाले से जीता हूँ. वो हारा है. क्या वो दुखी होगा? शायद नहीं, वो भी तो सफेद कार से जीता होगा, जो उसके पीछे आ रही थी. वो भी अपनी जीत से खुश होगा. ऐसी दुनिया मुझे अच्छी लगती है. सब जीत रहे हैं. सब खुश हैं. ऐसा मैं सोचता हूँ. पता नहीं, वो पीली कार वाला क्या सोच रहा होगा?

कल तारीख बदलेगी. दौड़ फिर होगी. फिर नया लेकिन ऐसा ही खेल होगा. फिर सब जीतेंगे. शायद प्रतिभागी कुछ बदल जायें मगर खेल तो यही रहेगा.

क्या यह मेरी आभासी दुनिया कहलायेगी और वह आभासी जीत? लेकिन मैं तो सच में जीता हूँ, उस पीली कार वाले से.

आप क्या सोच रहे हैं?

अपने मामा जी प्रशान्त 'वस्ल', जिनका लिखा सा रे गा मा का टाईटिल सांग पूरे भारत की जुबान पर है, की गजल के दो शेर सुनाता हूँ मेरी पसंद में:

अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.

मेरी चादर बढ़ सके मुमकिन नहीं
मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ तो ठीक. Indli - Hindi News, Blogs, Links

36 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

सेंटिया गये। बढ़िया है। हमने एक कविता लिखी थी। उसकी लाइनें हैं-

ये दुनिया बड़ी तेज चलती है
बस जीने के खातिर मरती है
पता नहीं कहां पहुंचेगी
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी!

रंजू भाटिया ने कहा…

मेरी चादर बढ़ सके मुमकिन नहीं
मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ तो ठीक.

एक सच को बताती है आपकी यह नयी रचना
आपने अपने सरल लफ़्ज़ो में ज़िंदगी का एक अनमोल सच कह दिया !!

बेनामी ने कहा…

समीर जी, बहुत खूब रफ्तार रफ्तार में बहुत कुछ कह गये।

Neeraj Rohilla ने कहा…

समीरजी,
बस ऐसी ही हाईवे पर थोडा सा आगे निकलने की कीमत मेहनत के $१५० देकर चुकाई थी । अब तो मौका देखते हैं कि कोई तेज चला रहा हो, बस उसके पीछे पीछे चलते रहो, कभी ट्रैफ़िक को लीड न करो । आपने इसमें भी एक बढिया पोस्ट बना डाली ।

साभार,

debashish ने कहा…

बहुत खूब, आज आपने अज़दक की कार को अभिव्यक्ति की रेस में सही चैलेंज दिया है।

पंकज बेंगाणी ने कहा…

अपने तो कभी 80 के उपर जाते ही नहीं. फ*ती है. :)

कभी देखता हुँ, कोई जूम्म्म्म्म्म्म करके निकल जाता है, फिर मुडकर युँ देखता है जैसे ग्रांड प्री फार्मुला 1 जीत गया है, अगले ही पल ठुका हुआ मिलता है.

क्या फायदा!! :)

पंकज बेंगाणी ने कहा…

"आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है. बहुत आभार."

आपको तो वैसे ही हौसले ही हौसले मिलते हैं, हमे तो कोई प्रोत्साहीत नही करता, हाये मैं डिप्रेशन का मारा !! :)

mamta ने कहा…

बहुत ही अच्छा लगा । हर कोई इसी जीत हार की जंग मे लगा है।

संजय बेंगाणी ने कहा…

बहुत खुब. अब और शब्द नहीं तो क्या लिखुं?

सही कहा आपने.

azdak ने कहा…

यह निकली बात की बात.. मीठी घात..

सुजाता ने कहा…

आज तो आप दार्शनिक रंग मे रंगे है ।बढिया सोच ।वैसे १२० कि.मी./घण्टा के बारे मे दिल्ली मे तो आप सोच ही नही सकते ।यहा क्लच ,ब्रेक दबा दबा कर ही घर पहुच जाते है‍।:)

Manish Kumar ने कहा…

मेरी चादर बढ़ सके मुमकिन नहीं
मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ तो ठीक.

वस्ल जी का ये शेर दिल के आर-पार हो गया ! पूरि ग़जल ही पढ़ने का मन हो गया।

Satyendra Prasad Srivastava ने कहा…

बहुत ही अच्छा लिखा है। पूरा दर्शन है। जिंदगी तो हार जीत का ही खेल है। मेरे एक पुराने मित्र की कविता की एक लाइन याद आ रही है। उमेश सर्राफ नाम है उनका। शौकिया कवि बने थे, अभी बिजनेसमैन हैं कोलकाता में। पता नहीं अभी लिखते हैं या नहीं-पंक्तियां हैं--
हां ये सच है कि
मैं हारा हूं
लेकिन क्या ये
सच नहीं कि मैं लड़ा हूं
हारा तो अभिमन्यु भी था
तो जिंदगी यही है। जीत का जश्न मनाइए, हार से हिम्मत जुटाइए अगली लड़ाई के लिए

Mohinder56 ने कहा…

लाला जी,

दिल खुश हो जाये जिससे वही ख्याल अच्छा है
चद्दर का क्या करूं छींक के लिये रूमाल अच्छा है

मैथिली गुप्त ने कहा…

समीर जी, 120 किमी प्रति घंटा!
हम तो दिल्ली में 40 भी नहीं चला पाते. बस नौयडा फ्लाइवे पुल पर 80 तक घिसट लेते हैं.

आपका यह ललित निबन्ध बहुत पसन्द आया. आप जिस विधा में लिखते हैं, वही हिट.

ALOK PURANIK ने कहा…

ये सिमटान चौतरफा हो रहा है क्या।
क्या डाइटिंग वगैरह का सीन बन रहा है क्या।
शुभकामनाएं

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

समीर जी सच कहा आपने आगे बढ़ने की सोच (उन्नति करने की) सब में होनी चाहिये पर उसकी हदों को पार नहीं करना चाहिये कुछ लोग अन्धाधुन्ध बढ़े जाते हैं बिना सोचे, बिना विचारे, अखिर कहीं तो अन्त होना चाहिये।
शिक्षाप्रद आपका लेख बहुत पंसद आया उसमें छिपा यथार्थ उससे भी ज्यादा।

अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.

मेरी चादर बढ़ सके मुमकिन नहीं
मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ तो ठीक.

इन खूबसूरत पंक्तियों से काम नहीं चलने वाला हमें पूरी गज़ल पढ़ना है, जल्दी ही, इन्तज़ार में...

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

ये अज़दकी नहीं खालिस समीरियत है. आपाधापी से दूर. अपनी चाल से चलती और मुकाबले में चाहे खरगोश हो या चीता - अपनी चाल से अपनी शर्तों पर जीतती.
स्माइली लगाने की जरूरत या गुंजाइश नहीं.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

समीर जी, आप की रचना जो कहना चाहती है वही सभी की कहानी है। लेकिन ज्यादातर आगे निकलने की कोशिश करने वाले ही परेशान होते हैं।आप ने बहुत ही सुन्दर ढंग से एक बात को कह दिया। साथ ही उस से बचने का रास्ता भी सुझा दिया-
मेरी चादर बढ़ सके मुमकिन नहीं
मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ तो ठीक.

रचना बहुत पसंद आई।बहुत बढिया रचना है।बधाई।

अनुराग श्रीवास्तव ने कहा…

कभी कहते हैं कि मोटे हो जाओ, कभी कहते हैं कि सिमट जाओ. अब एक फाइनल पोस्ट लिखिये और बताइये कि क्या किया जये, फैल जायें या सिमट जायें? वाकई कनफ्यूजिया गये हैं!

Srijan Shilpi ने कहा…

होड़ से हट कर अपनी गति से अपनी राह पर चलते जाना ही राहगीर का फर्ज़ है, आप ऐसे ही सच्चे राही हैं, केवल ड्राइविंग में ही नहीं, लेखन में भी और जीवन में भी। बहुत अच्छा लगा।

कभी मैंने इस पर कुछ यूँ लिखा था:

तुम बढ़ जाओ आगे, जहाँ तक जाना चाहते हो
आख़िर कहाँ तक जाओगे
तुमसे पहले भी बहुत लोग आगे गए हैं
तुम्हारे बाद भी बहुत लोग जाएंगे
तुम कहाँ तक पहुँच जाओगे
कोई राह सीधी रेखा में नहीं है
सारी गतियाँ वर्तुलाकार हैं
लौट कर तुम फिर-फिर वही पहुँच जाओगे
जहाँ से चले थे
चाहे जीवन भर चलते रहो
और चलते-चलते थक-चूर कर
पस्त होकर मर जाओ।

Poonam Misra ने कहा…

हाँ ऐसा ही खेल मैं भी खेलती थी .दिल्ली से गुडगांव तक का रास्ता तय करने के लिये.जब कोई तेज़ रफ़्तार से आगे निकलता मैं सोचती ,निकल लो बच्चू ट्रैफिक लाइट पर तो मिलोगे ही और आगे लाल सिग़्नल पर उसको खडा देख मैं मन ही मन जीत जाती....अपनी ही रफ्तार से चलते हुए भी.

How do we know ने कहा…

अन्तिम पन्क्तिया बहुत प्यारी लगी।

विनय ओझा 'स्नेहिल' ने कहा…

khud ko sametna bhee achha nahin hota- itna uthao khudko ki asmaan rashk kare.

विनय ओझा 'स्नेहिल' ने कहा…

khud ko sametna bhee achha nahin hota- itna uthao khudko ki asmaan rashk kare.

Arun Arora ने कहा…

भाइ बात पसंद नही आई,हम यहा आपके फ़ैलने की दुआ कर रहे है. सिमटने की बात कहा से आ गई.
अरे आप इतना फ़ैलो (गुस्से वाला फ़ैलना के अर्थ मे ना ले)कि लोग ..
जमी से आसमा तक,आसमा से जमी तक,
हवा ही हवा है...:)की जगह ये कहे
नारद से चिट्ठा जगत तक,हिंदी ब्लोग से बलोगवाणी तक, समीर ही समीर है...:)

बेनामी ने कहा…

बहुत ही गहरे अर्थ लिये हुए लिखा है लेख। शानदार :)
आपके लेखन का एक अलग और नया रूप बधाई।

Dr Prabhat Tandon ने कहा…

ठीक से देख लेते सर जी , कोई सोढीं कुडि तो नही थी :) अगर तब जीते तो बेकार ही जीते :)

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

भाई समीर लाल जी
प्रशांत वस्ल जी के शेर अच्छे हैं. वह भावना जिसके तहत आपने यह पोस्ट लिखी है और भी अच्छी. इसका जवाब न मानें, पर एक और गजल का एक शेर पेश कर रहा हूँ :
मेरे क़द के साथ बढ़े जो
ऎसी चादर ढूँढ रहा हूँ
गजल विज्ञानव्रत की है.

Sanjay Tiwari ने कहा…

आप गहरे आदमी हैं, थाह पाना मुश्किल है.

Sanjeet Tripathi ने कहा…

अपने आप से बड़बड़ाने वाली यह आपकी शैली भी अच्छी लगी!!

Pankaj Oudhia ने कहा…

गहरे अर्थो वाली लेखनी है आपकी। बधाई।

बेनामी ने कहा…

शेर वाकई बेजोड हैं...
वैसे अगर आपके साथ चादर ’शेयर’ करनी हो..तो सिमटने में ही समझदारी है हम जैसो के लिये...

:)

बेनामी ने कहा…

क्या कहें, अपने को तो पल्ले ही नहीं पड़ी!! कहीं मेरे पर तो व्यंग्य नहीं कस रहे??!! ;) :P वैसे आप संतोष कीजिए करते हैं तो, अपने से नहीं होगा, वो लाल वाली स्विफ्ट फिर दिखी तो उसको अगली बार ज़रूर हराऊँगा!! ;)

अपने तो कभी 80 के उपर जाते ही नहीं. फ*ती है. :)

कभी देखता हुँ, कोई जूम्म्म्म्म्म्म करके निकल जाता है, फिर मुडकर युँ देखता है जैसे ग्रांड प्री फार्मुला 1 जीत गया है, अगले ही पल ठुका हुआ मिलता है.

क्या फायदा!! :)


ही ही ही!! :D

१२० कि.मी./घण्टा के बारे मे दिल्ली मे तो आप सोच ही नही सकते ।यहा क्लच ,ब्रेक दबा दबा कर ही घर पहुच जाते है‍।:)

अरे क्या कहती हैं डॉक्टर साहिबा, हम भी दिल्ली में ही रहते हैं और यहाँ 120 क्या 130 भी पहुँचती है। बात यूँ है कि समय-२ का, सड़क-२ का, चालक-२ का और वाहन-२ का भी फर्क होता है ना!! :)

Waterfox ने कहा…

मेरी गणित ज़रा कमजोर थी, सो गति और दूरी जैसे शब्द एक साथ कई बार देख कर लगा कि कहीं आप वो वाले प्रश्न तो नहीं कर रहे! :)
लेकिन हार जीत, गति-अवगति भी तो इस जीवन के अवयव हैं! यह संदेश बातों बातों में ही आ गया। अब तो आपकी तारीफ के लिए नए शब्द खोजने पड़ेंगे!! इस के लिए कोई क्लास लीजिये तो तार दीजियेगा।

Neelima ने कहा…

बहुत बढिया लिखा है !मध्यम मार्ग ही उत्तम है अतिवाद के इस दौर मॆं!