चलो, यह "तुम" शब्द बहुत व्यापक है, फिर आत्मिय भी. और सच में तुम तो तुम हो और तुम्हारे लिये यह गीत:
तुम....
आज फिर जब दो घड़ी को, साथ तेरा मिल गया
क्या वजह थी कौन आकर, ओंठ मेरे सिल गया
बात मेरे मन की मेरे मन में घुट कर रह गई
तू उठा चल कर तो तेरे, साथ मेरा दिल गया.
बाग से आती है खुशबू, उड़ पवन के साथ में,
मैंने समझा तुम खड़ी हो, आज मेरे पास में,
रात भर खिड़की से आ के, चाँदनी छूती रही
यों लगा तुम घुल रही हो,एक उस अहसास में.
मेरे ख्वाबों मे जो बसती, एक वही तस्वीर हो तुम
मेरे जीवन की राहों की, बन गई तकदीर हो तुम
मैं तुम्हें पाऊँ, लिये ख्वाइश सदा जलता रहा हूँ
डूब पाऊँ त्राण जिसमें, उस नदी का नीर हो तुम.
छंद सब चुन कर तुम्हारे,गीत अब यह गा रहा हूँ
खुद उऋण होने को तुमसे,प्रीत करता जा रहा हूँ
आज का यह दौर कैसा, प्रेम भी कर्ज़ा हुआ अब
प्यार टुकड़े, किश्त में करके तुम्हें लौटा रहा हूँ
--समीर लाल 'समीर'
रविवार, मई 27, 2007
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32 टिप्पणियां:
समीर भाइ कितनी किश्ते रह गई,कौन से हिसाब से लौटा रहे हो,ब्याज कितना है सारी बाते पूरी पूरी बताओ
कविता बढिया पर अधूरी है
जानकारी पूरी दो
:)
बड़ा प्लान्ड प्यार है। अच्छा है। :)
आज का यह दौर कैसा, प्रेम भी कर्ज़ा हुआ अब...
अच्छी लाईन है।
समीर जी कविता बहुत ही बढिया लगी..सुन्दर भाव-अभिव्य्क्ति है..
बधाई.:-)
क्या "तुम" है जी. :)
समीरजी तबीयत वबीयत ठीक है ना। प्यार-व्यार के लपेटे में कैसे आ गये। हम तो आपको समझदार मानते थे।
आलोक पुराणिक
छंद सब चुन कर तुम्हारे,गीत अब यह गा रहा हूँ
खुद उऋण होने को तुमसे,प्रीत करता जा रहा हूँ
आज का यह दौर कैसा, प्रेम भी कर्ज़ा हुआ अब
प्यार टुकड़े, किश्त में करके तुम्हें लौटा रहा हूँ
खूबसूरत अहसास और अच्छी पंक्तियां...छा गये कवि महोदय....
कोई टिप्पणी नहीं!!
मुझे जो कहना था मैने निजि मेल में कहा.. अब शब्द नही है.. :)
भाया ,क्या खूब लिखते हो!
छंद सब चुन कर तुम्हारे,गीत अब यह गा रहा हूँ
खुद उऋण होने को तुमसे,प्रीत करता जा रहा हूँ
आज का यह दौर कैसा, प्रेम भी कर्ज़ा हुआ अब
प्यार टुकड़े, किश्त में करके तुम्हें लौटा रहा हूँ
समीर जी,
कितनी किश्ते चुका दी और कितनी बाकी है, इसका पक्का हिसाब कितान रखा है कि नहीं,, प्यार में अक्सर घाटा जो हो जाता है
समीर जी,बढिया रचना है-
मेरे ख्वाबों मे जो बसती, एक वही तस्वीर हो तुम
मेरे जीवन की राहों की, बन गई तकदीर हो तुम
मैं तुम्हें पाऊँ, लिये ख्वाइश सदा जलता रहा हूँ
डूब पाऊँ त्राण जिसमें, उस नदी का नीर हो तुम.
समीर भैय्या को सलाह दी गयी है कि हास्य लेखन बंद कर दें क्योंकि हंसी स्वास्थ्य के लिये ज्यादा ही लाभदायक है. (जैसे कभी दिलीप कुमार को ट्रेजेडी फिल्में न करने की सलाह दी गय़ीं थीं)
इसीलिये पिछला लेख और ये कविता लिखी गयी है.
क्या बात है, बडे रोमांटिक हो गए हैं आप ?
"रात भर खिड़की से आ के, चाँदनी छूती रही
यों लगा तुम घुल रही हो,एक उस अहसास में"
उम्दा कविता है। पढ़ कर मन बाग़-बाग़ हो गया।
बहुत ख़ूब समीर जी ......बहुत ही गंभीरता से आपने यह रचना लिखी है ..कुछ यूँ ही सूझ गया आपकी यह रचना पढ़ के :)
आज का यह दौर कैसा, प्रेम भी कर्ज़ा हुआ अब
प्यार टुकड़े, किश्त में करके तुम्हें लौटा रहा हूँ
:)
प्यार है दिल का जज़्बा
इसको दिल से निभाना
कर्ज़ा नही है यह कोई
जो पढ़े किश्तो में चुकाना
है यह दिल का सच्चा सोदा
नज़रो की बात नज़रो से समझ जाना !!
...प्यार टुकड़े, किश्त में करके तुम्हें लौटा रहा हूँ
कर्ज ऐसा है कि जस का तस रहेगा!
"रात भर खिड़की से आ के, चाँदनी छूती रही
यों लगा तुम घुल रही हो,एक उस अहसास में"
सही लिखा है। क्या बात है समीर जी ये कनाडा में कौन सी हवा बह रही है।
सुंदर कविता!
पर गुरुवर, ये रोमांटिक होने की ज़िम्मेदारी हम जैसे शिष्यों के लिए छोड़ दो ना!!!
आज का यह दौर कैसा, प्रेम भी कर्ज़ा हुआ अब
प्यार टुकड़े, किश्त में करके तुम्हें लौटा रहा हूँ
किश्त में लौटाएँ या एकमुश्त, यह कर्ज़ा उतार नहीं पाएँगे।
हाँ ऐसी कविताएँ ज़रूर किश्तों में पेश कर दिया करें।
अति सुन्दर!
समीरजी,
आपकी कुंडलियों के बाद अब आपकी कविता के भी कायल हो गये हैं । बडी ही परिष्कॄत भाषा में लिखने के बाद भी कविता सहज सी मालूम हुयी है । तीन बार पढ गया और उसके बाद भी मन नहीं भरा ।
ईश्वर करे सरस्वती माँ आप पर ऐसे ही स्नेह उडेलती रहें और साथ में हमें भी प्रसाद मिलता रहे ।
साभार,
नीरज
समीर भाई आज टिप्पणी में देरी हो गई,मगर आपकी प्रेम-रस में डूबी कविता ने तो प्रेम से सराबोर कर दिया..ये तो आपका आज नया रंग देखा है हमने...आप तो इतने सीरियस कभी नही लगे,फ़िर आज क्या हुआ आपको? जब हम बहुत परेशान होते है और हँसना चाहते है तब स्वामी समीरानंद के पास आते है...मगर आज तो स्वामी जी खुद ही...
कैसा रोग लगाया,रे तुने(ये प्यारा और आत्मिय है;जैसा की आपने कहा)
हँसी को कहाँ भगाया...:)
सुनीता(शानू)
किश्तों की असलियत बताना भूल गये----
जिससे लड़ाया इश्क, वही बीबी बन गई
किश्तों में खुदकुशी का मजा हमसे पूछिये
ये तो थी मजाक की बात. अब सच कहूँ
रंग की रूप की, छाँह की धूप की, आपकी बात करने की अपनी अदा
जैसे शब्दों की भागीरथी हो बही, साथ गोदावरी, कॄष्णा और नर्मदा
काव्य का आप सौरभ लुटाते रहें, गुनगुनाते रहें, मुस्कुराते रहें
कामना है मेरी बस यही आपको, प्रार्थना शरदा से यही सर्वदा
समीर जी, मेरे विचार से
ऐसे कर्ज़े से सदा सरोकार रहे
ब्याज भरते रहे, मूल बरकरार रहे।
प्रवीण परिहार
समीरजी दिल को स्पर्श कर गयी आपकी कविता.
Simply Superb!
:)
समीर जी बहुत अच्छी रचना है। बधाई।
आपकी रचना को पढ़कर अपनी कुछ समय पहले लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं, जो मैंने कभी प्रगीत जी ( मेरे पतिदेव) के लिये लिखीं थीं-
लम्हा इक छोटा सा फिर उम्रे दराज़ाँ दे गया
दिल गया धड़कन गयी और जाने क्या-२ ले गया ।
पूरी गज़ल साहित्य कुंज़ में है।
समीर जी बहुत अच्छी रचना है। बधाई।
आपकी रचना को पढ़कर अपनी कुछ समय पहले लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं, जो मैंने कभी प्रगीत जी ( मेरे पतिदेव) के लिये लिखीं थीं-
लम्हा इक छोटा सा फिर उम्रे दराज़ाँ दे गया
दिल गया धड़कन गयी और जाने क्या-२ ले गया ।
पूरी गज़ल साहित्य कुंज़ में है।
thankyou for always finding time to post comments onmy blog . i can write but cant comment . i always enjoy reading all blogs of cobloggers who post gracious commnets on my blog
बहुत सुंदर!!
तुम.....सिर्फ तुम....
मैं...सिर्फ मैं...
यूं तो गुमसुम...
मैं ...और तुम...
छंद सब चुन कर तुम्हारे,गीत अब यह गा रहा हूँ
खुद उऋण होने को तुमसे,प्रीत करता जा रहा हूँ
आज का यह दौर कैसा, प्रेम भी कर्ज़ा हुआ अब
प्यार टुकड़े, किश्त में करके तुम्हें लौटा रहा हूँ
वाह,वाह क्या पंक्तियाँ दी हैं आपने बहुत खूब !
"बाग से आती है खुशबू, उड़ पवन के साथ में,
मैंने समझा तुम खड़ी हो, आज मेरे पास में,"
कमाल का लिखा है समीर भाई आपने।
बहुत अछा .
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