नोट: यह पोस्ट जनवरी, २००७ की पुरानी पोस्ट है जो कि गल्ती से सुधार कार्य के चक्कर में फिर से पोस्ट हो गई है और पुरानी दिनाँक में पोस्ट कर पाना संभव नहीं हो पा रहा है. अतः आप सबको हुई असुविधा के लिये क्षमापार्थी हूँ.
अब कल फुरसतिया जी हमारे द्वार संदेश " एक आग का दरिया है और डूब के जाना है" पर हमें ऐसा लपेटे कि हमारी तो हवा ही खिसक गई. मगर, हम भी कम चिरकुट चक्रम नहीं हैं, जवाब में जरुर लिखेंगे, जो कुछ भी पूछा गया है. अपनी बात को और पुख्ता करने के लिये एक गीत का मल्लमा और चढ़ा देता हूँ फिर इक्कठे ही फोड़ेंगे. :)
तो सुनिये, हमारी नयी रचना, जो जी में आये, कहिये और जो जी में आये वो सोचिये, हम तो लिख गये. आगे खुलासा किया जायेगा, फुरसतिया जी के लेख को देख कर और आपकी टिप्पणियों के मद्दे नजर इस पोस्ट पर:
तन्हा रात
सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
महफिल आती रहीं सजाने, हर लम्हे बस तेरी याद
क्या बतलायें किससे किससे, हमने बाँटी सारी रात.
लिखी दास्ताने हिजरां भी जब, तुझको ही था याद किया
हर्फ़ हर्फ़ को लफ्ज़ बनाती , हमसे यूँ लिखवाती रात.
राहें वही चुनी है मैने, जिस पर हम तुम साथ रहें,
क्यूँ कर मुझको भटकाने को, आई यह भरमाती रात.
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान जमानें में,
किस किस के संग कैसे कैसे, खेल यहाँ खिलवाती रात.
-समीर लाल 'समीर'
शुक्रवार, सितंबर 14, 2007
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28 टिप्पणियां:
बहुत खूबसूरत रचना ।
चिर प्रतीक्षित पोस्ट भी जल्द लिख डालिये, इंतजार है।
आपके गीत का मुलम्मा तो ऐसा चढ़ गया है कि आँखें नम हो आई हैं। अब जो कुछ आप फोड़ने वाले हैं उसका बेसब्री से इंतजार है ताकि फिर से कुछ ठहाके लगा सकें।
समीर जी आपका हाले-दिल पढ़ा काफी भावपूर्ण था आपको बधाई:
समीर जी आपका हाले-दिल पढ़ा काफी भावपूर्ण था आपको बधाई:
वाह गुरूदेव, आपकी महिमा तो अपरमपार है!!!
काव्य में दर्द झलक रहा है, आप तन्हा-तन्हा लग रहें है और बधाईंयाँ (टिप्पणियों में) भी स्वीकार कर रहें है।
वाह!!! पहली बार देख रहा हूँ कोई किसी को तन्हा होने पर बधाई दे रहा है। :)
अब तो मैं भी अपनी तन्हाई चिट्ठे पर लाने वाला हूँ, शायद मुझे भी, बधाई के बहाने ही सही, ढ़ेर सारी टिप्पणियाँ मिल जायें :)
मेरी ओर से भी बहुत-बहुत बधाई!!!
कैसे कहते ,हो तुम तन्हा, जब कि तुम्हारे पहलू में आ
तुमसे गज़लें लिखवाती है, हो हो कर जज़्बाती रात
तन्हाई का कोई सबब नहीं होता ये तो
जुमलाएँ तभी सुनाती है, जब रात ही सो जाती है,
उठती कसक की ये सौगात और क्या गुल
खिलायेगी...तन्हा रात अपनी बाहो में नशा अवश्य
छोड़ जाएगी...।
धन्यवाद
बढ़िया है लालाजी !!! बधाई..
रीतेश गुप्ता
भावपूर्ण और बहुत उम्दा.
बधाई.
भावपूर्ण कविता के लिए बधाई. (तालियाँ बचा रहा हूँ)
कविता के वियोग में बिताई तन्हा रात के लिए हमारी संवेदनाएं. :(
इसबार हँसने-हँसाने वाला कोई पटाखा लाए. :)
जाने कशिश क्या थी तुममें,करते हर पल तुमको याद,
याद समंदर से नमी चुराने, घटा सजाती काली रात.
...क्या अंदाज़ है खूब तुम्हारा मंद 'समीर'संग बतियाती रात.):-
-रेणू आहूजा.
Sameer Lal Ji,
This is one of the nicest gazal of your's. I liked it.
R.D.Pachauri
लिखी दास्ताने हिजरां जब , तुझको ही था याद किया
हर्फ़ हर्फ़ को लफ्ज़ बनाती , हमसे यूँ लिखवाती रात.
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान जमानें में,
किस किस के संग कैसे कैसे, खेल यहाँ खिलवाती रात
क्या बात है हुजूर ! जबरदस्त भी कम पड़ रहा है !
Yah to rah hi gayi thi padhane se...par aap aur yah virah.
समीरजी ग़ज़ल का मतला बेहतरीन है.
मक्ते का शेर
हुआ समीर आज फिर तन्हा इस अनजान जमाने में
को वजन में करने के लिए स तरह करें-
आज समीर हुआ फिर तनहा इस अनजान जमाने में
ये गूरू 2 2 के अपरान हैं.
उर्दू में इसे फेलुन फेलुन के नाम से जानते हैं.
हुआ में पहली रस्व फिर दीर्घ आ रही है.या तो दोनो लघु या गुरु से शुरूआत होती है.
इसी तरह
लिखी दास्ताने हिज्रा में वही गड़बड़ 12 वाली जब कि 11 2 होना चाहिए.आप गा के जरा देखे फर्क पता चलेगा.
फिर हर्फ हर्फ को लफ्ज़ बनाती का मतलब क्या-
पूरा शेर भर्ती का है.
आप छन्द पकड़ लोगे तो कमाल करोगे.
शुरूआत हो चुकी है.
आपके मतले की पंक्तियों ने जायसी की विरही नायिका नागमती की याद दिलादी.आप जल्द बाजी न करें पकने दें.ग़ज़ल एक सिटिंग की नहीं होती इस के शेरों को इत्मीनान से कहा जा सकता है.
आज आपके दर्द की कशिश ने मुझे फिर रोक लिया.
sameer
bahut hi achi lagi yeh prastuti
सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
kafia radeef ke saath khoob acha lag raha hai.
daad ke saath
Devi
जब हम ने चाहा,लग गया मेला
लोग हो कितने ,पर दिल अकेला
गम जब सताये,हस कर दिखाना
पर ये आसू बाहर ना लाना
बढ़िया है. . .
गजल बढ़िया है। नयी हो या पुरानी. बात में दम है। वैसे मेरे लिए तो नयी है।
समीर जी मुआफ कीजियेगा आपका मतला पूरी ग़ज़ल से अलग चल रहा है । आपका मतला सुंदर है सिसक सिसक और टपक टपक का प्रयोग अच्छा है । मगर आप निर्वाह नहीं कर पाए हैं और ये मेरे लिये दुख की बात है । इस बार में मज़ाक नहीं कर रहा हूं पर मैं सचमुच दुखी हू ।
गुरुदेव आपके चिट्ठे का काव्यरूपांतरण किया था सच मानिये तो बहुत ही मन था...और अच्छा भी लगा...आपका आशीर्वाद तो वैसे ही मिल जाता है...अभी आपका लिन्क भी लगा दिया है...ताकी सनद रहे की यह आप है...:)
आप से नित नई बातें सीखने को मिलती है...
सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
बेहतरीन है यह पक्तियाँ...मगर मैने आजकल गज़ल लिखना ही छोड दिया...भजन लिखती हूँ...:)
शानू
पोस्ट चाहे पुरानी हो नयी, पर आपकी गजल वाकई लाजवाब है। बहुत-बहुत बधाई।
समीर भाई,
अच्छा किया आपने, भूल से ही सही , प्रकाशित कर दिया, आपका आभार!
महफिल आती रहीं सजाने, हर लम्हे बस तेरी याद
क्या बतलायें किससे किससे, हमने बाँटी सारी रात.
अच्छी पंक्तियाँ है, वैसे हर शेर वज़नी है, पढ़कर अच्छा लगा, कई बार पढ़ा इस ग़ज़ल को, बार - बार पढ़ा.इस ग़ज़ल को पढ़ते- पढ़ते मुझे मेरी अपनी एक पसंदीदा ग़ज़ल अचानक ज़ेहन में आ गयी और मैं पुरानी यादों में खो गया अचानक , उस ग़ज़ल का एक शेर देखिए- '' ये तन्हा सा सफ़र है और तुम हो, मेरा ज़ख़्मे ज़ीगर है और तुम हो!''
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान जमानें में,
किस किस के संग कैसे कैसे, खेल यहाँ खिलवाती रात।
बहुत ख़ूब ..गुरू जी आपके बिना तो चिटठा जगत कि कल्पना ही नही हो सकती ...बहुत अच्छा .....आपके अगली पोस्ट का बहुत बेसब्री से इंतज़ार है !!!!
अच्छी संवेदना है। बधाई
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति…………।
...सन्नाटे के शोर में लिपटी... डसती ये सर्पीली रात!... ये रात !
पूरी गज़ल ही खूबसूरत मैं किसको quote करूँ
सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
लिखी दास्ताने हिजरां भी जब, तुझको ही था याद किया
हर्फ़ हर्फ़ को लफ्ज़ बनाती , हमसे यूँ लिखवाती रात.
राहें वही चुनी है मैने, जिस पर हम तुम साथ रहें,
क्यूँ कर मुझको भटकाने को, आई यह भरमाती रात.
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान जमानें में,
किस किस के संग कैसे कैसे, खेल यहाँ खिलवाती रात.
बहुत खूब
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