मैथली शरण गुप्त ने लिखा है कि राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है। इस पर आपातकाल के दौरान बंद नेताओं के छुटने पर उनकी काव्य प्रतिभा का देश को एकाएक ज्ञान हुआ जिसमें अटल बिहारी बाजपेयी के कवि होने पर हरि शंकर परसाई कहते हैं, कि कारागार निवास स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है। मेरा मानना है कि विदेश प्रवास स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है। तो बस उसी काव्य धारा में, प्रवासी पीड़ा को दर्शाती मेरी यह प्रस्तुति:
बहुत खुश हूँ फिर भी न जाने क्यूँ
ऑखों में एक नमीं सी लगे
मेरी हसरतों के महल के नीचे
खिसकती जमीं सी लगे
सब कुछ तो पा लिया मैने
फिर भी एक कमी सी लगे
मेरे दिल के आइने पर
यादों की कुछ धूल जमीं सी लगे
जिंदा हूँ यह एहसास तो है फिर भी
अपनी धडकन कुछ थमीं सी लगे
खुद से नाराज होता हूँ जब भी
जिंदगी मुझे अजनबी सी लगे
कुछ चिराग जलाने होंगे दिन मे
सूरज की रोशनी अब कुछ कम सी लगे
चलो उस पार चलते हैं
जहॉ की हवा कुछ अपनी सी लगे.
--समीर लाल 'समीर'
मंगलवार, नवंबर 28, 2006
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27 टिप्पणियां:
ये कविता पढ़कर यही लगता है कि प्रवासियों की पहली पीढ़ी की बात सूरदास जी ने बहुत पहले कही थी- मेरो मन अनत कहां सुख पावै, जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवै.आपकी कविता उसी का भाष्य है लगता है.
समीर जी,
बहुत सुन्दर कविता है। हृदय को छू गई।
"कुछ चिराग जलाने होंगे दिन मे
सूरज की रोशनी अब कुछ कम सी लगे"
बहुत खूब समीर जी!
हृदय से निकले सुन्दर-सहज भाव.
बहुत अच्छी कविता.
काश कोई अच्छी आवाज़ वाला इसे सुर में गाए। :)
ऐसा क्यों है जो आप कविता लिखते है,
वो हमें अच्छी सी लगे।
ऐसा क्यों है जो आप कविता लिखते है,
वो हमें अच्छी सी लगे है।
मन पर जब छाने लगती है अनजाने ही नहुत उदासी
अपनेपन की चाहत में जब हो जाती हैं सुधियाम प्यासी
तब अपनेपन को तलाशता दर्शन स्वयं बिखर जाता है
और शेष फिर रह जाता है केवल तन्हा मन वनवासी
आपकी कविता पढना मुझे भी कुछ अच्छा सा लगे
वाह! समीर
--मानोशी
प्रवासियों के ह्रदय को छू लेने वाली कविता,
ऊंची इमारतों से घर मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गये|
थारी कवीता म्हाने 'कूल' सी लगे।
समीर जी आपके इस कविता के भाव मुझे आपकी इन्ही पन्क्तियों की तरह लग रहे हैं-
"परछाई से अपनी घबरा गया हूँ, लगे है कि घर से दूर आ गया हूँ."
याद है? परिचर्चा पर 'हमारे घर' मे आपने ये बात कही थी!
वाह समीर भाई :
>बहुत खुश हूँ फिर भी न जाने क्यूँ
>ऑखों में एक नमीं सी लगे
>मेरी हसरतों के महल के नीचे
>खिसकती जमीं सी लगे
बहुत ही सुन्दर ....
वाह समीर भाई, मजा आ गया। फिर आपने पुराने जख्मों को हवा दे दी है। मैने भी इस पर एक लेख लिखा था, सारांश ये है:
हम उस डाल के पन्क्षी है जो चाह कर भी वापस अपने ठिकाने पर नही पहुँच सकते या दूसरी तरह से कहे तो हम पेड़ से गिरे पत्ते की तरह है जिसे हवा अपने साथ उड़ाकर दूसरे चमन मे ले गयी है,हमे भले ही अच्छे फूलो की सुगन्ध मिली हो, या नये पंक्षियो का साथ, लेकिन है तो हम पेड़ से गिरे हुए पत्ते ही, जो वापस अपने पेड़ से नही जुड़ सकता
बहुत सुंदर ढ़ंग से अपने भावों को व्यक्त किया है आपने !
क्या बात है समीर जी ! पंकज जी ने ठीक कहा है काश कोई अच्छी आवाज़ वाला इसे सुर में गाए। पढ़ते हुए गाने का मन हो आया (काश कि मुझे संगीत में उतनी विद्वत्ता होती !)
सरल शब्दों में गहरे भाव ... बहुत अच्छा लगा ।
MashaAllah! Sameer sahab bahut hee zabardast baat aapne kahi,...aur apni baat kehane se pehale jo aapne Maithili Sharan Gupt ji ke baare mein kaha waqai sone pe suhaga! Humne bhi ek baar parha tha lekin jo aapne videsh pravas ke baare mein kaha hai waqai....videsh yaatri hee iss baat ko samajh sakte hein
Meri janib se dheron daad kabool farmayein ...bahut khoob
fiza
वाह समीर जी वाह ! अपने वतन से दूर होने का जो गम बहादुरशाह जफर ने अपने अंतिम समय में बयान किया वो सुनिए (अंग्रेजों द्वारा कैद करके बर्मा ले जाए गए थे):
कितना बदनसीब है जफ़र दफन के लिए दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 17 -05-2012 को यहाँ भी है
.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....ज़िंदगी मासूम ही सही .
क्या करें, जो चीज़ जितनी ही दूर होती है, उतना ही खुद की और खींचती है!! :)
बहुत खूबसूरत भाव ……कोई ना कोई कमी ही कवि बनाती है यूँ ही नही भावो की रेखा उतर आती है
चलो उस पार चलते हैं
जहॉ की हवा कुछ अपनी सी लगे.
...बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...आभार
मेरी हसरतों के महल के नीचे
खिसकती जमीं सी लगे...
सुन्दर भाव भरी रचना...
सादर.
सब कुछ तो पा लिया मैने
फिर भी एक कमी सी लगे
मेरे दिल के आइने पर
यादों की कुछ धूल जमीं सी लगे...........बहुत अच्छा लिखा है
बेहतरीन अभिवयक्ति.....
बात तो आपने अपने दिल कि कही है
न जाने क्योँ मगर ये बात अपनी सी लगे ....... बहुत खूब लिखा है समीर जी आपने
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