होगा क्या अब लगा गुहारें, कुछ करके दिखला दो न
उजड़े बाग चमन करने को, कुछ नव पुष्प लगा दो न.
खून खराबे से क्या हासिल है, क्यूँ मारो नादानों को
राह अहिंसा की चलने के, कुछ अब गुर सिखला दो न.
अपना मकसद सबको प्यारा, तुझ पर भी यह बात सही
मंजिल की है राह सही क्या,कुछ इनको भी बतला दो न.
इक धरती के इक टुकडे़ पर, क्यों मचता कोहराम यहाँ
किसकी खेती कौन है जोते, कुछ तो हिसाब समझा दो न.
कल की ही तो बात रहे थे, हम प्याला हम भी तुम भी
फिर क्यूँ हुये खून के प्यासे, कुछ प्रेमसुरा छलका दो न.
कुछ समीर ने समझा है, कुछ तुम समझो तब बात बनें
अगर भेद हो कहीं समझ में, उसे भी आज मिटवा दो न.
--समीर लाल ‘समीर’
शुक्रवार, अक्तूबर 06, 2006
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4 टिप्पणियां:
अच्छी रचना लगी !
बहुत अच्छे. मेरी पसन्द_
"कल की ही तो बात रहे थे, हम प्याला हम भी तुम भी
फिर क्यूँ हुये खून के प्यासे, कुछ प्रेमसुरा छलका दो ना"
इसी के सम्मान में_
प्रेम के प्यासे हैं तुम भी, हम भी.
फिर बेवजह खड़ी इन दीवारों को ढ़हा दो ना.
सीधे साधे शब्दों में तुम बातें गहरी कह जाते हो
कुछ ऐसी अंदाज़े-बयानी हमको भी सिखला दो न
सुन्दर रचना है, समीर जी।
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