न जाने क्यूँ एक कुंडली टाईप कुछ दिमाग मे आ रहा है:
चलना मुश्किल हो गया, हमें सड़क पर आज
बिन पैसा कौडी दिये, क्यों मांग रहे हो ब्याज.
क्यों मांग रहे हो ब्याज, बंद क्या धंधा कर दें
या कि पढने वालों को ही, हम अंधा कर दें.
कहे समीर कविराय कि फिर हाथ न मलना
चिट्ठे बंद हो जायेंगे, तब जंगल मे चलना.
कल शाम को बैठा चिट्ठा चर्चा देख रहा था. पूरा बचपन से जवानी का समय दिमाग मे घूम गया. न जाने कितनी भूली बिसरी यादों की आंधियो ने आ कर घेर लिया.
१.पांचवीं कक्षा मे था शायद. उस वक्त तक पूरी तरह से निखरा हीरा नही बन पाया था जिसे बाद मे "होनहार बिरवान के, होत चिकने पात" कहावत के अपवाद स्वरुप नवाज़ा गया. निखरा तो क्या, बल्कि कोयला समतुल्य ही कह लें.
जब सारी कक्षा के बच्चे बैठ कर अपनी कॉपियों मे सही के चिन्ह, जो शिक्षक लगाते थे, को गिना करते थे कि किसको ज्यादा मिले. हम कुछ साथी अपनी कॉपी मे गोले गिना करते कि किसको कम मिले. जिसको जितना कम, वो उतना कम मूर्ख. बाकियों से, जो सही गिना करते थे, हम कोई खास वास्ता नही रखते थे.अब तो बहुत बरस बीते ऎसे गोले गिने हुये.
२.एक बार एक शादी मे गया था. लडकी के पिता को लडके वालों से कहते सुना:
" मै तो अपनी तरफ से भरसक इंतजाम कर रहा हूँ, अगर कोई गल्ती हो जाये तो बताईयेगा जरुर". लडके वाले भी अच्छे थे, जानते थे ऎसा शिष्टाचारवश कहा जाता है. किसी ने कोई शिकायत नही जताई. ऎसा नही था कि गल्तियां नहीं हुई होंगी, मगर इतने बडे कार्य मे वह स्वभाविक हैं. वो भी शिष्टाचारी थे सो चुप ही रहे और अच्छी बातें देख कर उन्हें सराहते रहे.
३. ऎसी ही एक शादी मे और गया, वहां भी यही.लडकी के पिता को लडके वालों से कहते सुना:
" मै तो अपनी तरफ से भरसक इंतजाम कर रहा हूँ, अगर कोई गल्ती हो जाये तो बताईयेगा जरुर".
अब बरात आई, सारे बराती नाच नाच कर नशे मे धुत. लडके का पिता को लडकी वालों से यह कहते पाया गया," बाकी तो सब बढियां था, वो बैंड वाले ने हीमेश के गाने की धुन ठीक से नही बजाई". अरे, यह भी खुब रहा, नाचे भी पूरा, पी भी खुब और फिर भी नाराज़गी दर्ज सिर्फ इसलिये कि लडकी वालों ने कहा था कि "बताईयेगा जरुर". अरे, शिष्टाचार भी तो कोई चीज है भाई.
४.अंतिम वाकया, और उसके बाद मुद्दे की बात.
हमारे एक मित्र हैं जिन्हें इस कहावत मे हमारी तरह पूर्ण विश्वास है:
"निन्दक नियरे राखिये......."
एक बार हमारे साथ एक दावत मे साथ गये और भरी भीड मे हमसे जोर से कहे, " भाई साहब, आपके पेंट की जिप खुली है, बंद कर लें". अब जिनकी नजर अब तक नही पडी थी, उनकी भी पड गई और हमने झेंपतें हुये बंद कर ली. और वो हमारे पास आये और धीरे से विजयी मुस्कान लिये कहने लगे, "निन्दक नियरे राखिये.......".
अरे भाई, थोडा और नियरे रहते तो ठीक था, कान मे कह देते, तो कम से कम जिन्होंने अब तक नही देखा, उनसे तो नज़रें नहीं चुराना पडती.
अब आते है, मुद्दे पर, जो इन विचारों से पैदा हुये:
१. चिट्ठा चर्चा का नाम बदल कर उपरोक्त क्रं २ को मद्देनज़र रखते हुये "डा. अंबेडकर स्मृति चिट्ठा चर्चा" कर दिया जाये. अन्य भाषाओं के चिट्ठों के सामने अल्पसंख्यक तो है ही और इसके और इस पर लिखी गई विषय वस्तु के उत्थान के लिये ढेरों सार्वजनिक संस्थान कार्यरत भी है. यहां भी हर रोज नये लोग लिखते रहेंगे, हर रोज नये कारण बनेंगे, पूर्ण उत्थान तो कभी संभव नही है तो सबको अपने विचारोत्तेजक विचारों को व्यक्त करने का भी पूर्ण मौका अनवरत जारी रह सकता है.
२. गल्तियां जानने की सभी को आवश्यकता है और यही एक बहुत ही स्वस्थ परंपरा है मगर कृपया उपर दिया विचार क्रं. ४ पर विचार करें. ईमेल के द्वार हमेशा स्वागत मे पलक पावडे बिछाये खुलें हैं.
सोच रहा था कि क्या कोई वर्तनी सुधारक यंत्र पर कार्य चल रहा है? शायद भविष्य उज्जवल हो.
और एक मुक्तक टाईप भी ख्याल मे आया:
हम तो घबराये से हैं, हर सुबह शाम
कहीं हिसाब मांगने न आता हो पठान.
और
हम तो गड्डों से बच कर उछले
निकल गये वो, जो पीकर निकले.
हमने भी बडे बडे दिग्गजो के देखा देखी गलत गलत अभ्यास से पर दिलेरी दिखाई और लिख आये कि बताईयेगा बिल्कुल उपरोक्त क्रं. २ को मद्देनजर रखते हुये. अभी पलक झपकी भी नही थी कि उपरोक्त क्रं. ३ वाली बात हो गई और हम क्रं. १ की तर्ज पर गोले गिनने लग गये.
बच्चों की नजर अब तक जिस बात पर नही गई थी वो भी जान गये कि पिता जी फुस्सी बम हैं हिन्दी के. अब उन्हें कैसे समझाऊँ कि बेटा ये सब उपरोक्त क्रं ३ के बराती हैं जो नाचे भी खुब, पिये भी खुब और अब शिष्टाचार भी नही निभा रहे हैं.
भाई, कान मे कहने के लिये मेरा ईमेल पता है sameer dot lal AT gmail dot com. बहुते अच्छा फुसफुसाता है.थोडा तो क्रमांक ४ का ध्यान धरो, हे ज्ञानी.
हमें मालूम है बहुत से अभी हमे अभी सीख देंगे कि इस तरह ही सीखा जाता है और यह स्वस्थ परंपरा है. अरे भई, हमे मालूम है लेकिन क्या मजे भी ना लें इतने बडे आयोजन के. है तो बडा स्वादिष्ट.
हमें भी पूर्ण विश्वास है:
"निंदक नियरे राखिये........"
मगर अब सोचते है, इसे बदल दिया जाये
"निंदक अति नियरे राखिये, कान मे फुसफुसाये,
काम भी बनता रहे, औउर कौनों जान ना पाये."
टीप:
इस पोस्ट का आधार सिर्फ मौज मस्ती है. कृप्या इसे किसी भी गौरवशाली अभियान की राह मे रोड़ा न माना जाये और न ही किसी तरह के नये अभियान का शंखनाद. यह किसी व्यक्ति विशेष को नजर मे रख कर नही लिखी गई बल्कि स्व-विचारों की आंधी को नियंत्रित करने का प्रयास मात्र है.
-सभी से क्षमापार्थी---समीर लाल 'समीर'
शनिवार, सितंबर 30, 2006
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8 टिप्पणियां:
समीर भाई ,
बहुत बढ़िया। आप हंसी-हंसी में इतने अच्छे से अपनी बात कहते है कि हम सोचते रह जाते है कि तारीफ किन शब्दों में करें। अब केवल बहुत बढ़िया कहेगें तो आप सोचेंगें कि पेस्ट कर दिया।
आनन्द रस में डुबे ज्ञानगुल्ले का रसास्वादन किया.
...
"निंदक अति नियरे राखिये, कान मे फुसफुसाये,
काम भी बनता रहे, औउर कौनों जान ना पाये."..
जबरदस्त !
मै शायद इस पोस्ट को देखने वाला प्रथम व्यक्ति था क्योकि जब मैने प्रात: काल इस लेख को देखा था तो इस पर एक भी टिप्पणी नही थी, सोचा था ओपनिग करने उतरूगां किन्तु किन्ही कारणों से मुझे सेकेड डाउन आना पड रहा है। मेरे पहले मे बल्लेबाज अच्छी बैटिग किये पर चैपल-द्रविड की आगे तेजी से रन बनाने के चक्कर मे अपना विकेट गवां दिया। मै तो गांगुली का समर्थक हुं अपना सवाभाविक खेल खेलूगा पारी भी टेस्ट की लारा से बढ कर होगी। अब मै मुद्दे पर आता हूं-
'नियरे निन्दक राखिऐ' सही है पर मै उसे कहूंगां कि उसे नियरे ही रहने दे अति नियरे लाने का काम न करे अन्यथ अति नियरे लाने पर आत्मघाती बम का काम करेगा।
समीर जी के इस बात का मै पुरजोर समर्थन करता हूं कि लेखक पर व्यक्तिगत टिप्पणी को सर्वजिनिक नही करना चाहिऐ। मै तो साफ कहना चाहूगां व्लाग पर टिप्पणी का टिप्पणी का मंच केवल लेख के लिये होना चाहिऐ न कि लेखक की कमियों के लिय, लेख की अच्छाई तथा कमी के लिये ही ब्लाग टिप्पणी का उत्तम मंच है। लेखक तथा अन्य बातो के लिये वो क्या जुमला को क्या कहते है हां याद आ गया- ' एक ईमेल की दूरी पर' हां लेखक की कमियो को बताने वाला सर्वोत्तम माध्यम ईमेल है। मै किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप के लिये सर्वजनिक मंच को कद्दापि उचित नही मानता हूं। मेरे साथ भी कुछ इस प्रकार का वाक्या घटा तब मेरा इतना ही कहना था-
1. व्यक्तिगत शिकायत या किसी अन्य बात के लिये ईमेल ही सर्वश्रेष्ठ माध्यम है न कि किसी प्रकार का सर्वजनिक मंच।
2. गूगल व याहू समूह तथा परिचर्चा कोई कोतवाली नही न वहां के मठाधीश कोतवाल की जो हर बात की रिर्पाट लिखाने पहुत जाते है कि मेरा लेख चोरी हो गया है और शुरू हो जाना अर्नगल प्रलाप जैसे औरतो की पंचाइत होती किनती भी चले कोई हल नही निकलता है।
3. किसी खुले मंच पर आप किसी को नंगा करोगे तो निश्चित है कि अगर सामने वाले कि नाक उची है तो आपकी ऐसी तैसी करने मे कही कमी नही छोडेगा। फिर यह न कहना कि नंगा नहायेगा क्या निचोड़ेगा क्या। किसी की भद्द करने से पहले कुछ सोचना चाहिये।
4. मैने छद्म नाम अथवा बगैर नाम के टिप्पणी करने का विरोध किया था, सबके सब मुझ पर ही पिल पडे, कैसे आ गया? क्यो आ गया? इसको भगाओ? ये तो अपनी बिरादरी का है ही नही? क्या करे सब के सब अपनी आदत से मजबूर किसी महा ब्लागर को यह जानने की जस्रत नही हुयी कि इसने ऐसा लिखा क्यो?
बात यह थी- मैने परिचर्चा पर एक राष्ट्रीय ध्वज के अपमान से सम्बन्धित एक विषय रखा था और मुझे इस बात की जानकारी नही थी कि चित्र को कैसे वहां ले जाया जाये तो मुझे लगा कि मै लिख वहां दू, और चित्र आपने व्लाग पर दे दूं, और मैने ऐसा ही किया। उसी झण्डे के नीचे बिना नाम की टिप्पणी मे मुझे गाली दी गई थी। जिसका पता मुझे तीन चार दिन बाद चला क्योकि मेरा अधिकतर समय परिचर्चा पर ही बितता था। जब मैने देख तो मुझे बुरा लगा क्योकि मेरे साथ मेरे परिवार के लोग भी टिप्पणी का आनंद लेते है अत: मैने उसे हटा दिया। और मुझे अन्य लेखक के लेख ने अल्प ब्लाग जीवन के फटे में पैबँद लिखने के लिये प्रेरित किया। क्योकि गाली हिन्दी मे लिखी थी तब मुझे एक महाब्लागर की बात याद आई तब उनहोने कहा था कि हिन्दी मे लिखते ही कितने लोग है कुल 200 ही न, तो गाली देने वाला भी हिन्ही मे से एक था। जो नाम छिपा कर सफेद पोस मे बैठा है।
5. मैने एक अन्य मसले पर यहां भी कुछ कहा था http://groups.google.com/group/Chithakar/browse_thread/thread/7370ebf1484903d1/#
मै समीर जी के विषय से कहीं भी नही हटा हूं और अपने माध्यम से बात को रख रहा हूं। और मै पुन: समीर जी की बात पर आता हूं, मै आपकी प्रत्येक बात का अक्षरस: समर्थन करता हूं आप कही भी गलत नही है। लेखक की बात की काट सदैव लेखनी से होनी चाहिये जग पंचाइत से नही। वैसे तो मात्रिक व व्याकरण की गलती सभी से होती रहती है अगर गलतियो पर कमेण्ट किया जायेगा तो किसी को कमेन्ट की कमी नही होगी। एक स्वस्थ परम्परा होनी चाहिये चाटु परम्परा नही।
समीर जी आप एक लेखक एक लेखक को कभी क्षमा शब्द शोभा नही देता है अगर दिनकर भारतेन्दू जैसे लेखक लेखनी छोड कर क्षमा मागते तो हो चुका होता हिन्दी का विकास तथा सत्ता पर चोट। जिसको बुरा लगे लगता रहे वह आपनी लेखनी से उत्तर देगा। अन्यथा कही जाकर पचरा गयेगा।
समीर जी,
मैं भी आपकी बात का समर्थन करता हूँ। गलतियों को सार्वजनिक रूप से बता कर किसी को शर्मिन्दा क्यों किया जाए?
समीर जी,
हिन्दी चिट्ठे पढ़ना तथा लिखना शुरु किया तो बहुत सी बातें सीखीं। उनमे से एक है कि अपनी बात को कैसे कहना चाहिये। यह आप से सीखी।
आप बात को बहुत अच्छी तरह से रखते हैं, बस सीख पाया कि नहीं इसमें कुछ शक है।
पोस्ट के विषय के बारे मे तो कुछ नही कहना,लेकिन आपका निराला अन्दाज-ए-बयाँ (क्या ये सही है?)हमे पसन्द आता है!
बकौल चचा गालिब
हैं और भी दुनिया में ब्लागर बहुत अच्छे
पर उड़नतश्तरी का है अन्दाजे-बयां और
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