सुबह सुबह अभी आफिस मे आकर बैठा ही था कि एक पुरानी परिचिता भाभी जी का फोन घनघना उठा. जैसे ही फोन उठाया, वो लगभग चहकते हुये बोलीं:
" भाई साहब, भाभी बोल रही हूँ, हैप्पी हिन्दी डे...हम तो कल रात ही सोच कर सोये थे कि सुबह सुबह आपको विश करेंगे" और वो हें हें करके हंसने लगीं. हें हें शायद इसलिये कि आजकल इस तरह के दिनों की बधाई इत्यादि तो उपहास के तौर पर ही दी जाती है.
उनकी बात सुन कर मुँह का जायका बिल्कुल वैसा ही हो गया जैसा कि यहां के समोसे पर केचअप डाल कर खाने पर हो जाता है और हम भी मजबूरीवश समोसा खा लेते हैं. केचअप का स्वाद नज़रअंदाज करते हुये बस समोसे का लुत्फ उठाने की कोशिश करते हैं. ठीक उसी तर्ज पर हमने उनकी बात सुनी...और अंग्रेजी रुपी केचअप मे दबे उनकी भावना रुपी समोसे का लुत्फ उठाते हुये उनका धन्यवाद ज्ञापन किया:
"आपको भी हिन्दी दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाऎं एवं बधाई और इस शुभ अवसर पर हमें याद करने के लिये आपका बहुत साधुवाद."
भाभी जी तो जोर जोर से हंसने लगीं.."साधुवाद...हा हा हा...आप भी न भाई साहब..कितने फनी शब्द खोज कोज कर लाते हो...टीचर्स डे पर भी आपकी वो शिक्षक वाली पोयेम पढी थी...क्या फनी लिखते हैं, खुब हंसी आई. गज़ब लिखते हैं आप...कैसे लिख लेते है यह सब..द्रोणाचार्य और उनका वो स्टूडेंट....अरे वो अंगूठे वाला... जैसे पुराने स्टफ...हम तो उनके नाम भी याद नही रह पाते.."
हम सोचने लगे, इतने गंभीर वातावरण मे रची गई वो शिक्षक दिवस वाली रचना पर इनको हंसी आ रही है और वो इन्हे फनी लग रही है सिर्फ़ इसलिये कि वो हिन्दी मे है...क्या हो रहा है यह सब...कहां जा रहे हैं हम...खैर औपचारिकता का निर्वहन तो संस्कारवश करना ही था, सो हम उवाचे:
"चलिये, अच्छा लगा कि आपको रचना पसंद आई. बस दिल मे भाव आ जाते हैं तो कलम चल निकलती है."
" अरे भाई साहब, आपके पास अब तक कलम है?...मेरे दादाजी के पास भी थी एक..आजकल तो पेन का जमाना आ गया है, अब कलम कहां.." उन्होने फैशनवश नये जमाने और पुरानी संस्कृति के अवमूल्यन पर अपने विचार धरे.
हमसे भी रहा न गया और हमने इस फैशनेबल चर्चा मे कुछ और इजाफा करते हुये जोड़ा:
"भाभी जी, आप तो फिर भी कलम और पेन मे भेद कर पा रही हैं..आने वाली पीढी तो कलम क्या होती है, यह जानेगी भी नही."
उन्होंने इसे अपनी तारीफ समझ कर, अपनी आवाज को गंभीरता का लबादा ऊठाते हुये तुरंत जबाब दिया: " जी, सो तो है, समय बदल रहा है बहुत तेजी से.."
फिर अन्य वार्तालाप के बाद फोन रखने के पहले उन्होंने एक धमाकेदार खुलासा किया:
"भाई साहब, आपको तो मालूम है कि हम तो जितना बन पड़ता है, चिंटू (उनका ८ वर्षिय सुपुत्र) को अपने कल्चर और लेंग्वेज के बारे मे सिखाते रह्ते हैं और उसे भी हिन्दी मे काफी मजा आता है. अभी पिछली बार इंडिया गये थे तो वो रोज दादी के साथ टेंपल जाता था..मुझे तो बहुत अच्छा लगता था. वहीं उसने वो वाला सोंग भी सिखा था....क्या नाम है...हम्म्म्म....ओह या, वो वाला...' ओम भूत भविष्य....आगे भी इसी टाईप का कुछ...याद नही आ रहा.."
हमने कहा.."वो गायत्री मंत्र..ऊँ भूर्भुवः स्वः....."
"जी, जी बिल्कुल वही...पूरा तो अब उसे याद नही मगर एकआध लाईन अब भी बहुत अच्छी तरह गा लेता है इस सोंग को.."
अब देखें, जब भाभी जी को खुद ही गायत्री मंत्र याद नही है और उसे वो सांग समझती हैं तो चिंटू तो बच्चा है, वो जो भी गाता होगा उसके लिये तो हिन्दी वाकई " ओम भूत भविष्य..." ही है.
आगे उन्होंने बताया कि चिंटू के स्कूल मे करीब ४० हिन्दुस्तानी बच्चे हैं, जो आज हिन्दी डे सेलिबरेट करेंगे. चिंटू भी चार लाईन की पोयम लिख कर ले गया है, सुनाऊँ आपको..."
"जरुर, जरुर..." हमने कहा, यूँ भी हम महिलाओं को मना करने के आदी नही हैं....उन्होने तुरंत पोयम कहना शुरु की:
"आई एम फ़्रोम इंडिया,
ऎंड आई एम प्राउड.
आई लव माई हिन्दी,
आई से इट लाउड"
सिर्फ़ समझने के लिये:
'I am from India
And I am proud.
I love my Hindi..
I say it loud"
कविता के भाव वाकई सुंदर थे. हमने पुनः आदतन तारीफों के पुल बांधे, उन्हें इस शुभ कार्य के लिये बधाई दी और फोन पर विदा लेने की इजाजत मांगी.
विषय गंभीर था, मगर हर गंभीर विषय पर, एक आम हिदुस्तानी का धर्म निभाते हुये, सिर्फ़ विचार ही कर सकता हूँ और तो क्या करुँ.
कुछ पंक्तियों ने जनम ले लिया इस उहापोह मे:
हिन्दी
भाशा है अस्तित्व खो रही
सिसकी भर के आज रो रही
आओ मिल कर इसे उठायें
बस्ती हो बेजान सो रही.
कोशिश करें तभी होता है
बून्दों से ही घट भरता है
वक्त स्वयं है शीश झुकाता
जब आगे को पग बढ़ता है.
हिन्दी है पहचान हमारी
हिन्दी से सम्मान हमारा
युवजन, जागो! हिन्दी अपनी
मिलकर आज लगाओ नारा.
-समीर लाल 'समीर'
पुनश्चः: भाभी जी का अभी फिर फोन आया था. चिंटू को हिन्दी डे वाली पोयम के लिये प्रथम पुरुस्कार मिला है. बधाई, चिंटू और उसकी मम्मी को.
"हिन्दी दिवस आप सभी को बधाई."
बुधवार, सितंबर 13, 2006
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17 टिप्पणियां:
एकदम सजीव चित्रण किया आपने स्थिति का! ब्रिलियंट.. अरे... आइ मिन.. बहुत खूब.. अरे यार सॉरी... उप्स!!!
"ओम भूत भविष्य..."
इस पर रोऊँ या हँसु, करूँ मैं क्या करूँ.
वेल..हेप्पी हिन्दी डे.
खैर हिंदी प्रिमियों के लिए तो 365 दिन हिंदी दिवस है. भाभीजी जैसे भी हिंदी को याद कर लें शायद इसीलिए हिंदी डे की परिकल्पना का जन्म हुआ होगा.
बेहतर चित्रण किया आपने.
बहुत सही लिखा समीर भाई। आपका लेख देखकर एक पुराने लेख की याद आ गयी। अपने ठेलुआ जी का, आजकल लिखना बन्द करके, पता नही क्या कर रहे है। लेख जरुर पढिएगा:
इनविटेशन - आइये, अपनी नेशनल लैंगुएज को रिच बनायें
बहुत अच्छा लिखा है। उम्मीद है कि चिंटू हिंदी फिल्मों के गाने अच्छे से गा लेता होगा क्योंकि फिल्मों ने हिंदी को जितना दुनिया में फैलाया है शायद किसी और चीज ने नहीं।
समीर जी, हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ। आप ने भारतीय परिवारों में हिन्दी के वर्तमान का बिल्कुल वास्तविक चित्रण किया है। यह स्थिति केवल विदेश में बसे भारतीय परिवारों की नहीं है -- भारत में भी यही हाल है। चलिए लक्ष्य बना कर चलें कि भूत और वर्तमान जो भी हो, भविष्य हिन्दी का इस से बेहतर हो -- और तकनालोजी इस में हमारी मदद कर सकती है।
भाभी जी को यह नहीं मालूम कि कलम के बाद अब पेन भी पुराना हो गया है, और कीबोर्ड का ज़माना आ गया है। और कीबोर्ड ही हिन्दी को अपना अधिकार दिलाएगा।
समीर भाई- बहुत सुन्दर
हिन्दी के प्रति
अपने अटूट प्रेम को
हमने लम्हे लम्हे जिया है
इसीलिये
हिन्दी में एम ए
इंग्लिश मीडियम से किया है
चाँद सजा है ज्यों अंबर के माथे की बन बिन्दी
चलो आज संकल्प करें हम
अपनी हर कोशिश ऐसी हो
अखिल विश्व के भाल सजे यह अपनी भाषा हिन्दी
हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभ्कामाएँ।
भाषा संसकृति, व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन एक सच्ची झलक होती है।
वैसे आप तो हैं ही 'पवन पुत्र' (समीर 'के' लाल)। अपनी लेखनी से हिन्दी के स्वर विश्व के कोने-कोने में फैलाते रहिये।
वाह!! बहुत खूब!
समीर जी,
आपको भी हिन्दी दिवस की बधाई। भाभी जी का चित्रण बहुत सजीव है। भारतीय मध्यवर्ग में ऐसी भाभियाँ और भाई बहुत हैं। जब तक हिन्दी रोजी रोटी की भाष नहीं बनेगी, ऐसा ही रहेगा।
वाह क्या लिखा है ,ऐसे ही लिखते रहिये
किसी को अपने से अलग करना हो तो शायद उसके नाम का दिवस मनाने का रिवाज है देखिये ना अब अमेरिका जैसे विकसित देशों में ना माँ साथ रहती है ना बापू लेकिन दिवस दोनो के नाम का होता है साल में एक दिन - मदरस डे, फादरसडे। लगता है उसी तर्ज में इंडिया में शुरू किया गया है जोरशोर से हिंदी डे (दिवस)।
समीर जी आपकी रचना हम भारतीयों के अंदर भीतर तक घर कर चुकी हीन-भावना को दर्शाती है|हम लोगों को अंग्रेजी बोलने में गर्वानुभूति होती है|हमारे यहाँ बच्चों को A for Apple तो तब ही पता चल जाता है जब वो ठीक से चलना भी नही जानते पर क से कबूतर सीख्नने में मुश्किल होती है|मैं अभी दो महीने पहले ही विवाहोपरांत अमेरिका आ बसी हूँ| यहाँ आकर देखा कि हिन्दी बोलने मात्र से ही कई बार घर का सा आभास होता है|हिन्दी का निरादर करने वाले हिन्दी भाषियों पर आपका यह कटाक्ष बिल्कुल सटीक है |इस रचना के लिये मैं आपको नहीं सभी हिन्दी प्रेमियो को बधाई दूँगी|
मैं चिठ्ठा जगत में नया नया आया हूं, अपना पहला चिठ्ठा प्रकाशित करने के बाद मैंने ई-पत्र से अपने सारे मित्रों को सूचित किया कि भैया आओ मेरा हिन्दी चिठ्ठा पढ़ो।
पढ़ा शायद सबने हो, लेकिन 'जाहिलों और गंवारों' की भाषा में लिखा चिठ्ठा पढ़ने की बात किसी ने स्वीकारी नहीं। हाँ कुछ ई-पत्र आये यह बताने के लिये कि भैया क्या भेज दिये हो हमारे कम्प्यूटर पर तो खुल ही नहीं रहा है।
कुछ दिनों बाद एक पार्टी में सबसे मुलाकात हुई हमरे एक आंग्लभाषा प्रेमी मित्र (वैसे तो दिल्ली निवासी हैं और खासी हिन्दी भी बोल लेते हैं) ने हा हा करके ढ़िंढ़ोरा पीटा,"अबे यह पागल हो गया है, हिन्दी में लिखता है" फ़िर मेरी तरफ़ मुखातिब हो बोले, "Why dont you write in English?"
बड़ी पीड़ा हुई!
बहुत खूब! हिन्दी का दर्द उभार दिया आपने !
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