बताने के तरीके से ही हम समझ गये यह गोपनियता सरकारी विभाग की गोपनीय फाईल वाली है, जिसके बारे मे सबको पता होता है. हम इनकी अगली पंक्ति का इंतजार करने लगे जो वो टाइप करते नज़र आ रहे थे. हमे मालूम था कि गुप्तता का जीवनकाल इनकी अगली लाईन तक ही सीमित है. और क्या बात है, अनुभव कितना काम आता है. जैसा हमने सोचा था वो ही हुआ.
"अभी किसी को बताईयेगा नही, तरकश नये रुप मे आ रहा है, ये देखिये" औपचारिकतावश हमने देखा, औपचारिकतावश काफी सराहा भी, तारिफों के पुल बाँध दिये. पंकज जी अति प्रभावित हुये और लजाते हुये हमे भी तीरंदाज बनने का आमंत्रण दे बैठे. अब हमने तरकश फिर से वाकई मे देखा क्योंकि हम भी इसी मैदान मे खेलने के लिये आमंत्रित थे. लगा कि जो तारिफ हम औपचारिकतावश ब्लाग की टिप्प्णियों की तरह कर गये थे वो बिल्कुल सही निकली. मन को बड़ा संतोष मिला, क्योंकि नेताओं की तरह अपने बयान बदलने मे अभी तक सिद्धहस्त नही हो पाया हूँ. हांलाकि प्रयास जारी है.
हमारे आमंत्रण स्विकार करते ही, पंकज जी की टोन मे थोड़ा स्वभाविक सा फरक आया. निवेदन की जगह आदेशात्मक संदेश आया: " तुरंत बिना पूर्व प्रकाशित रचना( थोडी ठीक ठाक साईज की), एक अच्छी खुद की तस्वीर ( अब ये खुद की तस्वीर और अच्छी, दो विरोधाभाषी आदेश का पालन तो टेड़ी खीर थी, मगर जैसा कि हर वरिष्ट अधिकारी के आदेश मे विरोधाभाषी बातें होती हैं, जिसे मातहत को अपनी समझ से भरसक पूरा करना होता है, हमने भी किया) जल्दी भेजें. हमने घिघियाते हुये और बडी हिम्मत जुटाते हुये पूछा कि जल्दी! मतलब कब तक? और फिर जैसा कि सोचा था अगली पंक्ति: परसों तरकश को पब्लिक कर देंगे, तो कल तक आप दोनों चीजें भेज दें.
अब आप ही बताये कि कब मै ठीक ठाक साईज का लेख लिखूँगा, कब अच्छी और वो भी खुद की तस्वीर खिचवाऊँगा. उस पर से हिदायत कि अभी इसकी गोपनियता भंग नही होनी चाहिये. अरे भईये, गोपनियता भंग करने के लिये भी किसी से बात करनी पड़ेगी और तुमने इतना टाईम ही कहां रख छोड़ा है.
खैर, हम सारा दिन शब्दों के साथ कुश्ती लड़ते रहे. फिर फोटो की खोज. इस बीच ईमेल के जरिये अवतरित हो कर "साईट टेस्ट कर लिजियेगा और जो भी सुधार हो, वो ईमेल कर दिजियेगा.". लो अब और लो. जब तीरंदाजी का शौक आया है, तो झेलो. फिर सारी कुछ चीजें, गोपनीय का चस्पा लगा कर पंकज भाई को भेज दी गई, जो अब सार्वजनिक है. हमने तो इसे पूर्णतः गोपनीय रखा, सिर्फ़ अपनी पत्नी को गोपनियता का वादा लेते हुये बताया और उसने ऎसा ही वादा लेते हुये, अपने भाई को और मात्र तीन सहेलियों को, और उन्होंने भी ' किसी को बताना नही ' की तर्ज पर आगे ....मुझे इससे क्या, मैने तो जो वायदा किया था उसे लगभग निभा दिया, अब इससे ज्यादा क्या कर सकता हूँ. अपनी कमीज पर धब्बे ना आयें फिर भले ही आपके संरक्षण मे पूरा तंत्र भृष्टाचार मे लिप्त हो, तो आप क्या कर सकते हैं सिवाय किले पर चढकर भाषण देने के.
घर वालों और मित्रों को बताया गया कि अब हम अर्जुन हो गये हैं. सबने नाक भौं सिकोड़ ली. तब हमे अपनी गल्ती का अहसास हुआ. फिर से समझाया कि अरे भाई, अर्जुन, अर्जुन सिंग आरक्षण वाले नही बल्कि महाभारत वाले जो तीरंदाजी के लिये जाने जाते थे. तब सबके चेहरे थोडे ठीक हुये. लोगों ने पूछना शुरु किया कि पहले तो कवि सम्मेलनों मे जाते थे, अब फेंसी ड्रेस मे भी जाने लगे क्या? बडा मुश्किल है भाई, इन सबको समझाना.
बहुत पहले खुद की लिखी एक भोजपुरी रचना की दो पंक्तियां याद आ गई:
"नज़रन के तुहरे तीर इहर दिलवा मा लगेला
धडकन मे भईल पीर बरत जियरा सा लगेला."
अब सोचता हूँ ये वाले तीर चला कर भी देखा जाये. तो हमारा पहला तीर चला हमारी शादी की सालगिरह सप्ताह मे: सजनिया बुढिया गईलीं हमार.
अब बाकी तीरंदाजों, जो कि सभी सधे हुये प्रमाणित तीरंदाज हैं, संजय भाई, पंकज भाई, रवि भाई, सागर भाई, निधी जी और लेटेस्ट तीरंदाज शुऎब भाई का क्या हाल रहा, वो तो वो ही जाने मगर हमें तो इन धुरंधरों की भीड़ मे खडे होकर तीर चलाने मे बहुत मजा आ रहा है . अब लोग इनकी तीरंदाजी देखने तो आयेंगे ही तो हम पर भी कुछ नजरें पड़ जायें. बड़े शापिंग माल मे दुकान खोलने का यही तो फायदा है. इसीलिये, आज फिर से एक तीर 'अपराध बोध-एक लघु कथा' चलाया है, देखो निशाने पर लगता है कि नही.
आप भी पधारें तरकश पर. देखिये, क्या धुंआधार तीरंदाजी चल रही है.
-समीर लाल 'समीर'
6 टिप्पणियां:
लालाजी,
पहले तो आप पंकजजी कहना बन्द करें! मुझे बुढा होने पर डर लगता है। कहना हो तो जितुजी, देबुजी, ईस्वामी जी कहिए ना.. वो लोग हैं तो सही। :-D
अभी तो मेरे खेलने कुदने के दिन हैं।
खैर... आपने इत्ती सारी तारीफ की। इत्ता सारा धन्यवाद। आपकी तस्वीर का तरकश पर होना हमारे लिए भाग्य की बात है, सचमुच।
उम्मिद है हमारे और आपके तीर सदैव निशाने पर लगते रहेंगे! :-)
समीर जी,
बढ़िया लिखा है आपने अपनी बेमिसाल स्टाइल में। तरकश को भी जा कर देखा। अच्छी सामग्री है, समय निकाल कर पढ़ुँगा।
जबड़े भींच कर पढ़ा पुरा लेख. हँसी थी की रोके ने रूक रही थी और ऑफिस में ठहाके मारना नहीं चाहता था. लिखने की कला थोड़ी सी उधार ही दे दे तो मजा आ जाए.
क्या लिखा है , मज़ा आ गया
हाँ पंकज
चलो अब खेलो, कूदो.
वैसे काम ही तारीफ लायक है तुम्हारा, इसीलिये कर दी थोडी बहुत.
बहुत धन्यवाद कि तुमने हमें इस लायक समझा और फोटओ टांग दी तरकश पर.
लक्ष्मी जी
जरुर मौक निकाल कर तरकश पढ़ें. बहुत बढ़िया बन पडा है.
तारीफ के लिये धन्यवाद.
संजय भाई
अब, पहली गल्ती कि आफिस मे आप ब्लाग पढ़ रहे हैं, कर ही ली तो ठहाके भी लगा ही लेते कम से कम जबडे तो ना दुखते.
आपके जबड़ों के प्रति पूर्ण सहानभूति है.
ऎसी सुंदर तारीफ कर रहे हैं और उधार…अरे आप तो अधिकार ले लो. :)
धन्यवाद
प्रत्यक्षा जी
“क्या लिखा है”
-लिखा तो लेख ही था !! :( .
“मज़ा आ गया”
चलिये सफल हुआ. बहुत धन्यवाद.
निधी जी
अब प्रेरणा मिल ही गई है, तो देर काहे की. इंतजार रहेगा आपके संस्मरण का.
बाकी तारीफ के लिये शुक्रिया है बहुत बहुत.
-समीर लाल
समीरजी मजेदार लिखा है और इस बात का तो कहना ही क्या बड़े शापिंग माल मे दुकान खोलने का यही तो फायदा है.....और सही भी है.
अपराध बोध नाम से एक कथा काफी पहले हमने भी बुनो कहानी में शुरू की थी उसको लगता है पूरा होने के लिये काफी जदोजहद करनी पड़ेगी।
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