चंद शेर आपकी नजर कर रहा हूँ और फिर एक शेर को कुछ आगे ले कर चलता हूँ:
१.
मौसमी कोई फूल गेसू मे लगाया किजिये
चमन के उसूलों को, कुछ तो निभाया किजिये.
२.
मुर्दों की बस्ती में,गुण्डों की सियासत है
मुँह अपना छिपा लिजिये, इसमे ही शराफ़त है.
३.
सपनों मे जो आया, वो ये साया नही था
पाकर भी जिसे अपना, कह पाया नही था.
अब आगे, २ नम्बर के शेर को:--------------
मुर्दों की ये बस्ती है, गुण्डों की सियासत है
मुँह अपना छिपा लिजिये, इसमे ही शराफ़त है.
चलने को तो चलते हैं, हर राह अंधेरी है
जूगनूँ भी नहीं जलते, इतनी सी शिकायत है.
यादों के तेरे साये, मेरी शामों के साथी हैं
उनकों ना जुदा किजिये, इतनी सी ईबादत है.
रात पूनम की है आई, ले कर के घटा काली,
जुल्फ़ों को सजा दिजिये, ये उनकी शरारत है.
--समीर लाल 'समीर'
शुक्रवार, अगस्त 18, 2006
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4 टिप्पणियां:
बहुत खूब। मै आपके शेरों को संग्रह कर रहा हुँ
सुन्दर है।
"चलने को तो चलते हैं, हर राह अंधेरी है
जूगनूँ भी नहीं जलते, इतनी सी शिकायत है"
वाह ! जी वाह.
ऐसा लिखने वाले को चुप रहना भी नहीं चाहिए.
(मैं चुप नहीं रहुंगा....)
चलने को तो चलते हैं, हर राह अंधेरी है
जूगनूँ भी नहीं जलते, इतनी सी शिकायत है.
रात पूनम की है आई, ले कर के घटा काली,
जुल्फ़ों को सजा दीजिए, ये उनकी शरारत है
भई बहुत सुंदर !
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