इस रचना मे सुरा शब्द का इस्तेमाल प्रवासी अरमानों को ईंगित करने के लिये किया गया है, यह जानते हुये भी कि सुरा का उपयोग हानिकारक है. शब्दों के अंदर दबी भावनाओं पर ध्यान दें....अन्यथा......आपकी मरज़ी......
कभी जी भर पीने का ख्वाब लिये
बेवतन हो दरदर भटक रहा हूँ मै
सुरा ना जाने वो मिलती है किस ज़हां
जिसकी हर पल तलाश कर रहा हूँ मै ।
प्यास बुझाने को है काफी घर मे मगर
नशे मे मद मस्त होने मचल रहा हूँ मै
जानता हूँ ये है एक मरीचिका मगर
नशे का गुलाम प्यासा मर रहा हूँ मै ।
-समीर लाल
टोरंटो, कनाडा
शुक्रवार, मार्च 03, 2006
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7 टिप्पणियां:
ब्लॉग जगत में स्वागत है, समीर जी। हम भी आप की टोरंटो नगरी के पुराने बाशिन्दों में से हैं। उम्मीद है आप ने सर्वज्ञ का यह पृष्ठ पढ़ लिया होगा।
धन्यवाद, रमण जी.सर्वज्ञ की जानकारी के लिये भी.
नमस्कार समीर जी,
आपकी उडन तश्तरी की सैर कर आई हूँ... मजा भी बहुत आया.... आशा है आगे और भी ऐसे ही सुन्दर द्र्श्य देख्नने को मिलेगें..
काली बाबू जी का चरित्र बहुत खूब उकेरा है..
बधाई
संगीता मनराल
प्रिय संगीता जी
यह आपका बडप्पन है कि आपने मेरी रचना पसंद की. आभारी हूँ...आशा है भविष्य मे भी आप इस उडान को लेते रहेंगे...यह उडन तश्तरी का सौभाग्य होगा.काली बाबू हम सब की जिंदगी का एक अंग है...ऎसी ही और पेशकश का प्रयास करुंगा..जब आपने उत्साहवर्जन किया है.
समीर लाल
समीर जी,
यह आपकी वाली सुरा ही है जिसके चलते हम भी निकल पडे हैं। "देशी" से ज्यादा दूर तो नहीं हैं पर पास भी नहीं। ज्यादा समय भी नहीं व्यतीत हुआ है और अभी से यादॊं ने कोहराम मचा दिया है।
आपका लिखा पढते ही दिल ने कहा -
http://noon-tel-lakadi.blogspot.com/2006/03/blog-post_114207682074884448.html
विजय जी
यही यादें सहारा देती रहेंगी..शुभकामनाऎं..
समीर लाल
सुरा के लिए इतना स्पष्टीकरण देने की क्या ज़रूरत है समीर जी। जो आपने लिखा वो ज़ाहिर है के पीड़ा ही है।
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