सोमवार, मार्च 06, 2006
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--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
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दूसरों की गलतियों से सीखें। आप इतने दिन नहीं जी सकते कि आप खुद इतनी गलतियां कर सके।
-अमिताभ बच्चन के ब्लॉग से
और क्या इस से ज्यादा कोई नर्मी बरतूं
दिल के जख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह
-जाँ निसार अख्तर
अधूरे सच का बरगद हूँ, किसी को ज्ञान क्या दूँगा
मगर मुद्दत से इक गौतम मेरे साये में बैठा है
-शायर अज्ञात
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7 टिप्पणियां:
सचमुच परछाईयाँ डराती हैं । परदेश में अपने होने का बोध नहीं होता अक्सर । वहाँ की भीड़ में व्यक्ति अजनबीयत का शिकार हो जाता है । कम शब्दों में आपने जैसा अपनी कविता में कहा है, वह आपकी कविता की ताकत हैं । वधाई लेवें । मेरी ओर से ।
भाई जय प्रकाशा जी
यह आपका बडप्पन है कि आपने मेरी रचना पसंद की. आभारी हूँ...आशा है भविष्य मे भी आप इस उडान को लेते रहेंगे...यह उडन तश्तरी का सौभाग्य होगा.
समीर लाल
2006 के बाद आज 2012 तक तो घर से दूर रहने की आदत हो गयी होगी ... लेकिन फिर भी कभी कभी सच ही यह दूरियाँ घबराहट दे जाती होंगी ...
घर से दूर जाकर जीवन सपने-सा बीतता है और परछाइयों का साथ रहता है.
सुंदर कविता.
खुद पर विश्वास हो और सच साथ हो .....तो सारे डर काफूर हो जाते हैं !!!!
अपने साये से घबराना तो अच्छा संकेत नहीं है...
tabhi to apna ghar ghar kahlata hai..
kam shabdon mein jaandar baat..
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