पंडित काली भीषण शर्मा, प्रधान संपादक-हमारे शहर के सबसे लोकप्रिय दैनिक के. ज़ाहिर सी बात है जितना लोकप्रिय दैनिक अखबार है उतना ही लोकप्रिय और रौबदार काली बाबू.
हाँ, वो काली बाबू के नाम से ही शहर भर मे जाने जाते हैं. जैसा नाम, वैसा ही उनका रंग और काया. मज़ाल है कि कभी धूप भी उनके रंग को और दबा पायॆ. पूरा ऊँचा कद और तिस पर से हौदे जैसा निकला पेट. उनकी कुर्सी कभी हत्थे वाली नही होती थी, शायद उसमे वो अट भी ना पाते. कभी हाथों को आराम देना हो तो वो उन्हे आपस मे बाँध कर तोंद पर रख लिया करते, या यूँ कहिये कि जब कभी भूले से कुछ काम करना हो तो हटा लिया करते थे.
वैसे वो बहुत बातूनी व्यक्ति थे किन्तु मज़बूरीवश अधिकतर चुप ही रहते थे. मज़बूरी भी ऎसी, कि बस आदत की गुलामी. उन्हे पान खाने की आदत थी और उसमे बाबा ६०० खुशबू के लिये और रगडा तम्बाखू नशे के लिये. मुन्ना पानवाला, जो शहर का सबसे नामी पानवाला था, उसके यहाँ से उनके लिये एक बार मे १२ पान आते थे और ऎसा काली बाबू के घर लौटने के पहले चार या पाँच बार होता था. हर वक्त उनका मुँह पीकदान की तरह भरा रहता था. जब तक बहुत ही आवश्यक ना हो तब तक वो बोलने के लिये पान थूक कर उसका मज़ा बिगाडना नहीं चाहते थे. या तो इशारों से काम चला लेते या फ़िर आकाश मे मुँह उठाकर अपनी बात किसी तरह बिना पान का ज़ायका बिगाडे कह लेते थे. पिछले कुछ दिनों से पान के साथ साथ पान पराग की पुडिया भी आने लगी थी. उसके आने से उनका सरोता जिससे वो पहले सुपारी काट काट कर बीच बीच मे फ़ाकते रहते थे, वो बिचारा टेबल पर किनारे पडा पडा धूल फ़ांकता रहता है. अब वो पुडिया से दो चार दाने पान पराग के बीच बीच मे फ़ाकते जाते, मगर पान का पीक उनके मुँह से कभी जरा भी ना चुआ- बहुत ही सधा हुआ व्यक्तित्व था उनका.
वैसे तो कुछ काया की मेहरबानी और उस पर से प्रधान संपादक होने की जिम्मेदारी ( हालाँकि यह आज तक कोई नही जनता कि वो जिम्मेदारियाँ कौन सी हैं), उन्हे पान थूकने के लिये कुर्सी से ना उठने के लिये बाध्य कर देती थी. वो वहीं बैठे बैठे जो प्लास्टिक की बाल्टी कचरा फेंकने के लिये टेबल के नीचे रखी होती थी, उसी को थोडा उठा कर और मुँह लगभग उसके अंदर, थूक लिया करते. तीन चार थूक के बाद उनकी टेबल पर रखी घंटी बज उठती और रामदीन जो वहीं नज़दीक मे स्टूल पर बैठा ऊँघ रहा होता, तुरंत चौक्कना हो उनकी तरफ़ देखता और काली बाबू उसे इशारे से पानी लाने कहते. फ़िर उसी बाल्टी मे कुल्ला और नया पान शुरु. ये बात मुझे आज़ तक समझ मे नही आई कि जब तुरंत ही पान फ़िर से ठूँस लेना है तो फ़िर कुल्ला किया ही क्यूँ. खैर वो उनकी आदत थी और इससे किसी की सेहत को क्या. बल्कि रामदीन की ही थोडी कसरत हो जाती है वरना तो वो कब का गठियावाद का मरीज़ हो चुका होता.
रामदीन प्रधान संपादक महोदय काली बाबू का चपरासी था और उनके सिवा किसी और की घंटी नहीं सुनता था. कई बार अन्य कर्मचारियों ने काली बाबू से इस बात की शिकायत भी दर्ज की मगर काली बाबू झट सबकॊ रामदीन जैसी छोटी जात वालों से मुँह ना लगने की सलाह दे डालते और रामदीन पर कार्यवाही करने का आश्वासन दे मामला रफ़ा दफ़ा कर देते. वो रामदीन से कभी कुछ ना कहते. रामदीन सिर्फ़ दफ़्तर मे ही नही, उनके घर मे भी काम करता था. वैसे तो वो उन्ही के गांव से घर पर काम करने के लिये लाया गया था जिसे काली बाबू ने अपने प्रभाव से अखबार मे लगवा लिया था. कई ज्ञानी कर्मचारियों का मानना था कि रामदीन के पास ऎसे कई राज हैं जिसके चलते काली बाबू उससे कभी कुछ ना कहते. यूँ भी कई समझदार कर्मचारी उसके रोब दाब को देख उसे प्रधान सम्पादक सा ही मान सम्मान देते.
काली बाबू जब अपनी कुर्सी पर शाम को चार बजे आकर स्थापित होते तो उनकी आँखें हमेशा लगभग तीन चौथाई बन्द रहती. अगर ध्यान से ना देखें तो लगता था जैसे सो रहे हैं मगर यही उनकी स्टाईल थी. अखबार सामने खुला, मुँह मे पान, बिल्कुल स्थिर अवस्था उस पर से मोटापे के कारण साँस की हलचल भी पेट के उपर तक नहीं आ पाती थी. मै सोचा करता था, ईश्वर ना करे, यदि किसी दिन बैठे बैठे काली बाबू स्वर्ग सिधार जायें, तो बाकी लोगों को तो देर रात ही पता चल पायेगा कि काली बाबू नही रहे क्योंकि उनके रहने और न रहने के अवस्था मे भेद कर पाना बडे बडे ज्ञानियों की समझ शक्ति के बाहर था. वह रात एक बजे प्रथम प्रिंट तैयार होने तक अधिकतर इसी अवस्था मे रहते.
बहुत बरसों पूर्व, जब वो मात्र संपादक हुआ करते थे तब कभी कभी संपादकीय लिख भी दिया करते थे अन्यथा तो यह नेक कार्य कोई जूनियर पत्रकार कर देता और आप मात्र कुछ फ़ेर बदल कर अपनी कलम ऊँची रखते हुये छपवा देते थे. जबसे प्रधान संपादक हुये हैं तो कलम का यह साथ भी जाता रहा. काली बाबू निर्भीक, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष पत्रकारिता के पक्षधर और अन्य पत्रकारों को भी यही सीख दिया करते थे. बस इतना ख्याल रखते थे कि जिस पार्टी के बारे मे समाचार छप रहा है उससे यदि काली बाबू ने कोई समझौता कर लिया है तो समचार ना छप जाये.झूठ बोलना उन्हे सख्त नापसंद था. मगर सच बोल कर ही रहेंगे ऎसा भी नही था. बस चुप रह जाते थे.एक चुप हज़ार चुप में ना जाने कितने राज़ और समाचार दफ़न हो गये.
उनके परीचितों की तादाद में कोई कमीं नही थी. अक्सर लोग उनसे मिलने आते रहते मगर वो हाँ हूँ में ही ज्यादा ज़वाब देते और अधिकतर मुस्करा कर काम चला लेते. मित्रों के काम को कभी मना ना करते.प्रशासन और अधिकारी उनके नाम से काँपते थे कि कब ना कलम चला दें. इस बात से काली बाबू भली भाँति परिचित थे और सरकारी लोगों से फोन पर बात करते समय जरुर पीक थूक कर बात करते. पूरी दबंगता से. शब्दों से ज्यादा गालियों का प्रयोग. उनकी गाली बकने की अदा भी निराली थी. लगभग गाते हुये. कार्य की विशिष्टता के आधार पर वो गालियों का प्रवाह और राग का निर्धारण करते थे. उनके द्वारा कहे कामों के लिये मज़ाल है उन्हे कभी भी दूसरी बार फोन करना पडे, ऎसा मैने तो कभी नही सुना. वो पहली बार मे ही इस तरह बात करते कि लगता था ना जाने कितनी पुरानी बात का तकादा कर रहे हों और उस पर से गाली भरे विष्लेषण.कौन अधिकारी काम ना करने की जुर्रत कर सकता है. सभी की कमीज़ मे तो पैबंद लगे हैं, कौन शामत बुलाये.
रोजमर्रा मे अधिकतर परिचित उनके पास, या तो अपने बच्चों के स्कूल मे एडमिशन या फ़िर रेल्वे आरक्षण के वी आई पी कोटा के लिये आया करते थे. काली बाबू झट अपनी टेबल पर ४ ईंच x ३ ईंच के पैड पर, जिस पर पंडित काली भीषण शर्मा, प्रधान संपादक, दैनिक दिशा. छपा था, एक लाइन का संदेश लिख देते.संदेश हमेशा एक सा- "धारक उचित कार्यवाही का आकांक्षी" और फिर काली बाबू के हस्ताक्षर और दिनाँक, जो कि आदतन वो हस्ताक्षर के नीचे डालते थे. अब ये चिठ्ठी और धारक, मज़ाल है काम ना हो. रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षर वाली चिठ्ठी चाहे १०० की हो या ५०० की, को पीछे छोडने की क्षमता होती थी उसमे. मै आज़ भी सोचा करता हूँ कि जब पैड छपवाये तो नाम के साथ साथ यह भी छपवा देते- "धारक उचित कार्यवाही का आकांक्षी" तो प्रधान संपादक महोदय का कितना समय बच जाता.
मेरे काली बाबू के साथ काफ़ी घनिष्ट संबंध थे. मेरी कोई भी बात वो नही टाला करते. शायद मुझसे ही वो सबसे ज्यादा बात भी किया करते थे. हमेशा चाय जरुर पिलवाते और अक्सर पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त किया करते थे. मुझे सफ़ेद कमीज़ पहनना बहुत पसंद था.एक दिन उनके पास से उठकर सीधा एक मित्र के घर डिनर पर पहुँचा तो भाभी जी ने बडे व्यंगात्मक तरीके से मुस्कराते हुये कहा कि भाई साहब आज़ बडी डिज़ाईनदार छींट की शर्ट पहने हैं, कोई खास बात है क्या.मैने झुक कर शर्ट पर नज़र डाली तो काली बाबू के मुँह से छूटे कारतूसनुमा पान पराग के टुकडे पान का पीक साथ मे ला कर मेरी शर्ट के ऊपरी हिस्से को रंग गये थे. बडी शर्मींदगी हुई मगर एक ज्ञान की प्राप्ति भी हुई. अब मै जब भी काली बाबू से मिलने जाता हूँ तो एक तो गाढे रंग की शर्ट पहन कर और दूसरा, यह सुनिश्चित कर लेता हूँ कि मुँह की सीध से हट कर बैठूँ.
काली बाबू के पास एक बहुत पुरानी सी फिएट कार थी जिस पर सवार हो कर वो आँफ़िस आया जाया करते थे. रामदीन जी पीछे की सीट पर आसीन रहते. उनकी फिएट को मैने कभी बिना धक्के के चालू होते नही देखा. अब तो काली बाबू प्रयास भी नही करते थे. बस कार मे बैठे, चाबी लगाई और रामदीन का धक्का शुरु. कार स्टार्ट और रामदीन आसीन. वैसे वो थोडी ढलान पर ही खडा करते ताकि श्रीमान रामदीन जी को ज्यादा तकलीफ़ ना हो. सुना है कि ये कार उन्हे शहर के एक ठेकेदार ने एक नादान पत्रकार की, जिसने काफ़ी भंडाफ़ोडू समाचार बना दिया था ठेकेदार साहब के विषय मे, नादानी पर सफ़लतापूर्वक लगाम लगाने की खुशी मे तोहफ़े स्वरुप दी थी. काली बाबू, स्वभाव से शर्मीले एवं आग्रह के कच्चे, मना ना कर पाये.
दफ़्तर के नीचे ही कल्लू का ठेला है जहाँ से रोज़ रात मे घर जाते वक्त दो उबले अंडे नमक मिर्च डाल कर और एक दोना उबले चने चाट मसाला और प्याज़ हरी मिर्च के साथ काली बाबू के साथ हो लेते थे. काली बाबू से कल्लू कभी पैसे ना लेता. एक तो रंग भाई और उस पर से दफ़्तर के नीचे ठेला लगाने की छूट और दफ़्तर मे दिन भर चाय नाश्ते की सप्लाई. कल्लू ने अपने ठेले पे लट्टू भी दफ़्तर की पहली मंजिल से डोरी खींच कर जलाता है. कल्लू जितना जुगाडू, उतना ही टेक्नेलाज़ी मे आगे, आज़कल उसी डोरी मे से एक तार और खींच कर टेप भी बजाता है. कभी कोई एग्रीमेंट नही बस एक मूक समझौता काली बाबू और कल्लू के बीच. दोनों खुश.
सुना है कि घर पहुँच कर काली बाबू पहले स्नान करते फिर ईतमिनान से बैठ कर एक पूरी क्वाटर XXX रम, जो कि मन्थली बेसिस पर मिलेटरी केंटीन से उनके कुछ भक्त पहुँचा जाते थे, धीरे धीरे अंडे और चने के साथ उदरस्त होती है. इतनी देर मे रामदीन नहा धो कर गरम गरम परांठे और कोई सब्ज़ी या गोश्त बना देता, वही खा कर बस सो रहते. बडा सादगी पूर्ण जीवन है. बस दो लोगों का भरा पूरा परिवार, काली बाबू और रामदीन. रामदीन बताता है कि बहुत पहले काली बाबू की एक अदद पत्नी थी जो असमय शादी के कुछ माह बाद ही स्वर्ग सिधार गई थीं. फ़िर काली बाबू ने कभी शादी नही की और यूँ ही पत्रकारिता करते हुये साहित्य की सेवा मे जीवन गुज़ार दिया. किन्हीं कारणोंवश बहुतों की तरह काली बाबू को भी पत्रकारिता साहित्य सेवा ही लगती थी, वज़ह मुझे आज़ तक ज्ञात नहीं हो पाई.
इसी संदर्भ मे ये भी बताता चलूँ कि काली बाबू का रंग तो पक्का काला था मगर दोनों गालों पर थोडा बैगनी. कई बार वज़ह जानने की कोशिश की कि आखिर गालों से क्या खता हो गई. कुछ लोगों का मानना था कि ये एक्ज़िमा के लक्षण हैं और अगर वो गोमूत्र को गालों पर मालिश के लिए ईस्तेमाल करें, तो आराम लग सकता है. मगर किसी की हिम्मत नही थी कि उनको सलाह देता. काफ़ी बाद मे जब उनके दैनिक रम के सेवन के बारे मे ज्ञात हुआ तब मै समझ पाया. जो लोग गोरे होते हैं उनके गालों पर रम पीने से अक्सर लाली आ जाती है. बस ये वही लाली है मगर चूँकि काले रंग पर उभरी है इसलिए बैगनी दिखती है. कई बार अपने इस तरह के शोध कार्यों पर खुद की पीठ ठोकनें का मन करता है.
एक जरुरी बात तो बताना भूल ही गया, पंडित काली भीषण शर्मा जी के बारे मे. इस नाम की कहानी भी बहुत रोचक है. माँ बाप ने तो नाम काली भीषण ही रखा था वो भी इसलिए नही कि उनका रंग काला था या वो कोई भीषण काया लिए ही पैदा हुये थे बल्कि जब वो पैदा हुये थे वो अमावस्या की अंधेरी रात थी. दाई ने काली बाबू के पैदा होने की सूचना देते हूये कहा कि इतनी काली और भीषण रात है और आपके खानदान मे चिराग आया है. बस पिता जी ने नामकरण कर दिया- काली भीषण. वैसे तो जात से वो कुम्हार थे और उनके पिता जी करते भी कुम्हारी ही थे मगर काली बाबू शुरु से ही पढाई मे तेज थे एवं उस गांव के कुम्हार समाज के पहले सदस्य जो ११ वीं पास कर शहर जा रहे हो आगे पढने. बी ए मे दाखिला मिला था और जब दाखिले के समय बडे बाबू ने रसीद मे लिखने के लिए नाम पूछा तो आपने काली भीषण बताया और भीड की वज़ह ही सरनेम बताने मे सकपका गये. तभी उनका दोस्त बोल उठा कि शरमा रहे हैं, बस बडे बाबू ने क्या सुना यह तो नही मालूम मगर जब रसीद देखी तो उसमे काली भीषण शर्मा लिखा था और बस आप उस दिन से काली भीषण शर्मा हो गये. बिना किसी अनुपूरक परिक्षा के निर्विघ्न तीन साल का बी ए तीन साल मे ही तीसरी श्रेणी मे पास कर लिया. यह अलग बात है कि प्रथम और अंतिम वर्ष मे क्रमशः २ और ३ अनुकम्पा अंक काफ़ी मददगार साबित हुये. जब बी ए करके गांव वापस आये तो समुदाय के लोग कोई ज्ञानी और कोई पंडित जी कहने लगा और आप हो गये पंडित काली भीषण शर्मा.
फ़िर गांव से, हर पढे लिखे व्यक्ति की तरह, आपने भी शहर पलायन किया और पत्रकारिता को जीवन समर्पित कर दिया. अब तो उन्हे खुद भी याद नही कि वो कभी कुम्हार थे बल्कि सुना है कि वो एक ब्राहम्ण सभा के स्वयंभू संस्थापक अध्यक्ष हैं.
आगे कभी उनके महिलाओं के प्रति विशेष सहानभूतिपूर्ण व्यवहार और इस बहुआयामीं व्यक्तित्व के अन्य आयामों पर चर्चा करेंगे.
बुधवार, मार्च 01, 2006
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8 टिप्पणियां:
समीर भई:
चलो तुम्हारे ताजा ताजा ब्लौग पर पहली पहली टिप्पणी करनें का सौभाग्य हम हीं लें ।
मजेदार लेख है । ऐसे ही या इस से मिलते जुलते चरित्र हम सब की ज़िन्दगी में आते हैं , बस शब्दों में बाँधनें की बात है और उस में आप नें अच्छा काम किया है ।
अब अनूपजी की सारगर्भित टिप्पणी के बाद कुछ लिखने की कोशिश बेकार है, परन्तु अच्छे लेखन की सराहना का लोभ संवरण करना भी मुश्किल है.अच्छा चित्र खींचा है समीर
समीर जी..
आपका ब्लाग खोलते ही सबसे पहली नजर "पंडित काली भीषण शर्मा उर्फ काली बाबू- एक परिचय" पर गयी..सही कहा अनूप जी ने कि ऐसे चरित्र हम सभी की जिन्दगी से अक्सर रुबरु हो जाते हैं..बस उन्हें शब्दो मे बाँधने की बात होती है..
सचमुच बड़ा सार्थक चित्र आपने खींचा है..भाषा भी आम है..बिलकुल आज की...बस मजा आ गया..
बधाई...
-विज
समीर जी,
बहुत बढ़िया चरित्र चित्रण है। मज़ा आगया पढ़ के।
श्रध्देय अनूप जी, राकेश जी, विजेन्द्र भाई, लक्ष्मी जी....आप जैसे महारथी इस उडन तश्तरी की उडान लेने पधारे, अहोभाग्य.
आशा है, भविष्य मे भी आर्शीवाद इसी तरह मिलता रहेगा...समीर लाल
bahut badhiya!
Ati uttam!
We see this kind of people around us all the time. But your story-telling was excellent!
Thanks, Inder ji for visiting and reading my blog.
Sameer Lal
काली बाबू के इस परिचय ने ना जाने क्या क्या याद दिला दिया। आपका यह बाबू कालजयी है जी।
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