शनिवार, जुलाई 25, 2020

जाओ तो जरा स्टाईल से...


आज एक चिट्ठी आई. उसे देखकर बहुत पहले सुना हुआ एक चुटकुला याद आया.
एक सेठ जी मर गये. उनके तीनों बेटे उनकी अन्तिम यात्रा पर विचार करने लगे. एक ने कहा ट्रक बुलवा लेते हैं. दूसरे ने कहा मंहगा पडेगा. ठेला बुलवा लें. तीसरा बोला वो भी क्यूँ खर्च करना. कंधे पर पूरा रास्ता करा देते हैं. थोड़ा समय ही तो ज्यादा लगेगा. इतना सुनकर सेठ जी ने आँख खोली और कहा कि मेरी चप्प्ल ला दो, मैं खुद ही चला जाता हूँ.
चिट्ठी ही कुछ ऐसी थी. एक बीमा कम्पनी की. लिखा था कि अपने अंतिम संस्कार का बीमा करा लें. पहले बताया गया कि यहाँ अंतिम संस्कार में कम से कम ५००० से ६००० डालर का खर्च आता है और अक्सर तो १०००० डालर तक भी चला जाता है अगर जरा भी स्टेन्डर्ड का किया. साथ में पिछले १० सालों में बढ़े दाम का ग्राफ भी था. पहली नजर में ग्राफ देख कर लगा की इन्होंने भारत के पेट्रोल के भाव का ग्राफ क्यूँ भेजा है? पेट्रोल छिड़क कर जलाएंगे क्या घी के बदले? फिर ध्यान से पढ़ा तो इनके पैकेज का भाव था जो पिछले १० सालों में बढ़ा था. जरा विचारिये कि जब तक आप का नम्बर आयेगा तब तक मुद्रा स्फिति की दर को देखते हुए यह २५००० डालर तक भी हो सकता है. अब अंतिम संस्कार का मामला है, चाहे जो भाव कर दें, करना तो पड़ेगा. यूरोप घूमना तो मंहगाई के चलते आप टाल भी लो. 
आगे बताया गया कि आप अपनी मनपसन्द का ताबूत चुनिये, डिजाईनर. जिसमें आप को आराम से रखा जायेगा. कई डिजाईन साथ में भेजे ताबूत सप्लायर के ब्रोचर के साथ. सागौन, चीड़ और हाथी दाँत की नक्काशी से लेकर प्लेन एंड सिंपल तक. उसके अन्दर भी तकिया, गुदगुदा गद्दा और न जाने क्या क्या.
फिर आपके साईज का सूट, जूते, मोजे, टाई आदि जो आपको पहनाये जायेंगे पूरी बामिंग और मेकअप के साथ. फेमस मेकअप स्पेशलिस्ट मेकअप करेगी, वाह!! यह तो हमारी शादी में तक नहीं हुआ. खुद ही तैयार हो गये थे. मगर उस समय तो खुद से तैयार हो नहीं पायेंगे तो मौका भी है और मौके की नजाकत भी. मलाल इस बात का रह जाएगा कि न तो जिसने सजाया उसको देख पायेंगे और न ही सज धज हम कितने राजा बाबू लगे वो देख पायेंगे.
फिर अगर आपको गड़ाया जाना है तो प्लाट, उसकी खुदाई, उसकी पुराई, रेस्ट इन पीस का बोर्ड आदि आदि. अगर जलाया जाना है तो फर्नेस बुकिंग और ताबूत समेत उसमें ढकेले जाने की लेबर. सारे खर्चे गिनवाये गये. साथ ही आपको ले जाने के लिये ब्लैक लिमोजिन आयेगी उसका खर्चा. अभी तक तो बैठे नहीं हैं उतनी लम्बी वाली गाड़ी मे. चलो, उसी बहाने सैर हो जायेगी. वैसे बैठे तो ट्रक में भी कितने लोग होते हैं? मगर लेकर तो ट्रक में ही जाते हैँ.
हिट तो ये है कि आप हिन्दु हैं और राख वापस चाहिये तो हंडिया का सेम्पल भी है और उसे लकड़ी के डिब्बे में रखकर, जिस पर बड़ी नक्काशी के साथ आपका नाम खोदा जायेगा और आपके परिवार को सौंप दिया जायेगा. हिन्दुत्व का इतना विश्वव्यापी डंका बज रहा है और कोई बता रहा था कि हिन्दुत्व खतरे में है.
इतने पर भी कहाँ शांति-फूल कौन से चढ़वायेंगे अपने उपर, वो भी आप ही चुनें. गुलाब से लेकर गैंदा तक सब च्वाइस उपलब्द्ध है.
अब जैसी आपकी पसंद वैसा बीमा का भाव तय होगा. चाहो तो इत्र भी छिड़क देंगे. थोड़ा एक्स्ट्रा दाम और दे देना. अम्मा कहा करती थीं कि जितना गुड़ डालोगे, उतनी मीठी खीर बनेगी. खीर तो चलो अगर मीठी बनाते तो खाते भी खुद ही न. यहाँ तो जब निकल लेंगे उसके बाद की खीर पकवाई जा रही है.
तब से रोज उस बीमा वाले का फोन आता है कि क्या सोचा? जल्दी करिए वरना देर हो जायेगी. आधा दिल तो उसकी हड़बड़ी देखकर बैठा जाता है की पट्ठे ने कहीं कुंडली बांचना तो नहीं सीख लिया है इसलिए उसे पता है देर हो जायेगी? कोई आश्चर्य नहीं होगा की उसने कुंडली बांचना सीख लिया हो इस हड़धप में कि भावी विश्वगुरु की विधा में पारंगत रहेंगे तो काम ही आयेगा. 
क्या समझाऊँ उन्हें कि भाई, यह सब आप धरो. हम तो भारत के रहने वाले हैं. समय से कोशिश करके भारत लौट जायेंगे. यह सब हमको शोभा नहीं देता.
हमारे यहाँ तो दो बांस पर लद कर जाने का फैशन है, अब किसी का कंधा दर्द करे कि टूटे. यह उठाने वाला जाने और उस पर खर्चा भी उसी का. अपनी अंटी से तो खुद के लिये कम से कम इस काम पर खर्च करना हमारे यहाँ बुरा मानते है.
भाई, अमरीका/कनाडा वालों, आप लोगों की हर अदा निराली है. कम से कम ये वाली अदा तो आपकी आपको ही मुबारक.
समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 26,२०२० के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/53749498

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रविवार, जुलाई 19, 2020

खेल देखो और खेल की धार देखो


करोना ने जब भारत में अपनी विकास यात्रा आरंभ की थी, तब खबर आ रही थी की जेलों में इसका विकास ठीक उसी मॉडल पर होगा जिसे दिखाकर देश अमरीका से भी आगे निकल जाने वाला था। जहाँ नजर पड़े बस विकास ही विकास। गोया कि विकास न हुआ -मानसून आने पर मचा कीचड़ हो की जहाँ नजर जाये वहीं पोखरे भरे हुए और कीचड़ ही कीचड़। कभी आज तक ऐसा हुआ ही नहीं की मानसून आया हो और हम इतने तैयार हों कि कीचड़ न मचे। हम प्रारबद्ध पर अंध विश्वास रखने वाले इस कीचड़ को भी अपनी नियति मान कर स्वीकार करते हैं और कभी कभी तो इतने लहालोट हो जाते हैं कि इसे स्वास्थयवर्धक मड बाथ का नाम देकर इसमें लोट लगाने लगते हैं। हाल ही में एक फेमस अभिनेता ने अपने फार्म हाउस से अपनी कीचड़ में सनी तस्वीर इंस्टाग्राम पर वायरल कर दी थी। उसका देखा देखी बहुतेरे लोट गए कीचड़ में और लगे सेल्फी चढ़ाने। भक्तों की अंधभक्ति की भला कोई सीमा होती है क्या? भक्ति को सीमाओं में नहीं बांधा करते। जो भक्ति सीमाओं में बंध जाये वो चापलूसी कहलाती है।

खैर, बात जेल में करोना के विकास की चल रही थी। सूचना के आभाव में, वो भी ऐसे वक्त में जब हमारा खुद की दान की हुई राहत कोष की राशि के लिए पूछना भी निषेध है, कोई मासूम जेल में करोना के केसेस के बारे सरकार से जेल की रिपोर्ट मांग बैठा। यूँ तो सरकार ऐसे मूर्खतापूर्ण सवालों पर जबाब देना तो दूर, इनको सुनना भी गवारा नहीं करती। मगर ये मीडिया भी न, इसका पेट न हुआ, मानो फूड कोरपोरेशन का गोडाउन हो गया हो। कितना भी अनाज डालो, सब चूहा खा जाता है। मीडिया ने मामले को बेवजह तूल दे दी। 
प्रशासन भी कभी कभी ऐसे में मजबूर होकर कुछ न कुछ जबाब दे ही जाता है, अतः दिया।
जेल की करोना रिपोर्ट अपने अच्छे आचरण एवं खुद के परिवार पर करोना के प्रकोप के चलते पैरोल पर घर गई है। अभी तो चाँद के आकार पर आधारित कोविड त्यौहार के चलते पैरोल को डेट बढ़ा दी गई है, भले ही हम जीएसटी भरने की डेट न बढ़ा पा रहे हैं। मगर कहीं न कहीं तो हम संवेदनशीलता दिखा ही सकते हैं, अतः पैरोल की डेट पर दिखा डाली। उसके बाद भी अगर सही सलामत बिना एन्काउनटर के रिपोर्ट लौट कर जेल आ जावेगी तो आपको सूचित करेंगे। करोना क्यूंकी विकास पर है, और विकास का अंजाम तो आप देख ही चुके हैं। अतः सही सलामत लौटने की संभावना तभी बनेगी, गर किसी की आबरू पर छींटे न टपकें। वैसे ये जेल में रहने वाले अपराधिक प्रवृति के लोग, चाहे वो करोना रिपोर्ट जैसी हसीना ही क्यूँ न हो, बनारसी पान के समान होते हैं। कितना भी बचाओ, छींटे टपक ही जाते हैं और एकदम वहीं टपकते हैं, जहाँ लिखा होता है कि यहाँ पान थूकना मना है। तो अंजाम ए टपकन, एन्काउनटर की धड़कन!! देखते हैं कब तक नहीं धड़कता है।
वैसे जब तक रिपोर्ट आए, तब तक आप चाहो तो समय बिताने के लिए अंताक्षरी की तर्ज पर ‘कोर्ट में गुहार गुहार’ खेल सकते हो। अभी की गई प्रेक्टिस आगे चल कर स्किल इंडिया योजना में काम आवेगी। काहे की भारत के वर्चस्व के चलते अगले एशियन गेम में 'सुप्रीम कोर्ट में गुहार गुहार' खेल को ससम्मान शामिल किया जाने वाला है - खो खो को अलग कर के। खो खो अब अपना महत्व खो चुका है। अब पीठ पर नहीं, छाती पर खो देकर सत्ता पलटाई जाती है। खो का नाम अब झटका हो गया है। हालांकि नियम वही रहेंगे। विश्व गुरु की एक कोशिश यह भी है कि खेल का नाम 'सुप्रीम कोर्ट में गुहार गुहार' की जगह 'अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में गुहार गुहार' रख दिया जाये ताकि चीन, कोरिया और अन्य प्रतिभाशाली एशियन देश भी इसमें खुल कर हिस्सा ले सकें और आगे चल कर इसे  ओलंपिक में शामिल करने की मांग उठाई जा सके. तब तक के लिए आप रिपोर्ट की मांग करने वालों को हैप्पी गेमिंग - सरकार आपकी खेल के प्रति समर्पण भावना को देख कर उत्साहित है और मौका ताड़ कर आपको अर्जुन अवार्ड से नवाजे जाने पर भी विचार करने का मन बना चुकी है। मन बनाना और मन की बात करना सरकार का एकाकाधिकार है। सरकार खुद भी राजस्थान, महाराष्ट्र, मप्र और छत्तीसगढ़ में व्यापार वाला खरीदो बेचो खेल रही है, जो हम बचपन में लूडो और सांप सीढ़ी के साथ खेला करते थे- ये अब सीखे हैं। बचपन में खेलने का वक्त न मिला। कसी भी वजह से आभावों मे बीता बचपन हो, तो छोटे छोटे खेल भी न खेल पाने का मलाल बड़ा होने पर बड़े खेल खेलने को प्रेरित करता है।
मगर खेल और शौक करने की भी कोई उम्र होती है क्या? गालिब वो दिन लद गए, जब उम्र दीवार हुआ करती थी!
अब वो वक्त है जब खेल देखो और खेल की धार देखो।
-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई १९, २०२० के अंक में:

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शनिवार, जुलाई 11, 2020

टूटे चश्में से दिखता नव भारत का घोषणा पत्र


जब चपरासी रामलाल जाले हटाता, धूल झाड़ता हुआ कबाड़घर के पिछले हिस्से में गाँधी जी की मूर्ति को खोजता हुआ पहुँचा तो उड़ती हुई  धूल के मारे गाँधी जी की मूर्ति को जोरों की छींक आ गई. अब छड़ी सँभाले या चश्मा या इस बुढ़ापे में खुद को? ऐसे में चश्मा आँख से छटक कर टूट गया. गुस्से के मारे लगा कि रामलाल को तमाचा जड़ दें मगर फिर वो अपनी अहिंसा के पुजारी वाली डीग्री याद आ गई तो मुस्कराने लगे. सोचने लगे कि एक चश्मा और होता तो वो भी इसके आगे कर देता कि चल, इसे भी फोड़ ले. मेरा क्या जाता है? जितने ज्यादा चश्में होंगे, उतने ज्यादा लंदन से नीलाम होंगे. मुस्कराते हुए बोले- कहो रामलाल, कैसे आना हुआ? पूरे साल भर बाद दिख रहे हो?
गाँधी जी की मूर्ति को सामने बोलता देखकर रामलाल बोला-चलो बापू, बुलावा आया है. नई पार्टी बन रही है. नये मूल्यों के साथ. नये जमाने की पार्टी  है. नये लोग हैं. नया इस्टाईल है. गाते बजाते हैं. हल्ला मचाते हैं. एक अलग तरह की पार्टी बना रहे हैं. आज आपका जन्म दिन है, आपके सामने आपका नाम लेकर बनायेंगे. नहा लो, नये कपड़े पहने लो और चलो, फटाफट. बहुत भीड़ लगने वाली है. आपको नई पार्टी की योजनाओं, प्रत्याशियों और भविष्य को शुभकामनाएँ देनी हैं. बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा की उड़ान है. खैर, आप तो जानते ही हो कि ऐसा ही होता आया है हमेशा नई पार्टी के साथ. आपके लिए भला नया क्या है. आप तो हमेशा से ऐसी घटनाओं के साक्षी रहे हो- साबरमती के संत!
गाँधी जी बोले, देख भई रामलाल. एक तो तू ज्यादा चुटकी न लिया कर ये संत वंत बोल कर. बस, आज का ही दिन तो होता है जब मैं थोड़ा बिजी हो जाता हूँ. हर सरकारी दफ्तर से लेकर हर भ्रष्ट से शिष्ट मंडल तक लोग मेरी पूछ परक करके अपने इमानदार और कर्तव्यनिष्ट होने का प्रमाण देते हैं. ऐसे में ये एक और...कह दो भई इनसे कि कल रख लेंगे कार्यक्रम. नई पार्टी ही तो है. आज नहीं जन्मी तो क्या- कल जन्म ले लेगी. रंग तो अगले चुनाव में ही दिखाना है. एक दिन में क्या घाटा हो जायेगा? मेरा भी एक के बदले दो दिन मन बहला रहेगा.
रामलाल उखड़ पड़ा. कहने लगा एक तो साल भर आपको कोई पूछता नहीं. चुपचाप यहाँ पड़े रहते हो. आज पूछ रहे हैं तो आप भाव खा रहे हो कि आज नहीं कल. तो सुन लिजिये- यह कोई आपसे निवेदन या प्रार्थना नहीं है. बस, बुलाया है और आपको चलना है. आदेश ही मानो इसे. उन लोगों ने सारी जनता से पूछ लिया है  देश भर की. सब ने कहा है की पार्टी बना कर चुनाव लड़िये.
गाँधी जी ने परेशान होते हुए पूछा कि सारी जनता से कैसे पूछ लिया भई उन्होंने वो भी बिना वोट डलवाये?
रामलाल ने मुस्कराते हुए कहा कि बापू, आप तो बिल्कुले बुढ़ पुरनिया हो गये. इतना भी नहीं जानते कि उन्होंने फेसबुक से बताया था और खूब लोगों नें लाइक चटकाया. आजकल तो ऐसे ही पूछा जाता है.
गाँधी जी सकपका गये. कहने लगे- मैं क्या जानूँ? मेरा तो फेसबुक एकाउन्ट है नहीं- चल भई, तू कहता है तो चलता हूँ. मगर मेरा चश्मा तो बनवा दे. वरना उनका घोषणा पत्र पढ़े बिना उन्हें कैसे आशीर्वाद दूँगा?
रामलाल हँसने लगा- अरे बापू, इतनी जल्दी भला कोई घोषणा पत्र बनता है. अभी चार दिन पहले तो बात हुई पार्टी बनाने की. सब कार्यक्रम पहले से तय है. आप वहाँ मंच पर विराजमान रहेंगे. आपका माल्यार्पण होगा. ततपश्चयात वो आपको घोषणा पत्र (कोरे कागज का पुलिंदा) पकड़ायेंगे. आप अपना बिना शीशे का चश्मा पहने उसे देखने का नाटक करियेगा और फिर कह दिजियेगा कि मुझे बहुत उम्मीद है इनसे. मैं इन्हें आशीष देता हूँ. ये एक नव भारत का निर्माण करेंगे. अब अच्छा या बुरा- ये तो आपने कहा नहीं- होगा तो नव ही. आप सेफ रहोगे और पूजे जाते रहोगे तो नो टेंसन.
दूर बैठी जनता को क्या समझ आयेगा कि घोषणा पत्र भी कोरा है और आपके चश्में में भी शीशा नहीं है.
गाँधी जी बोले कि रामलाल ऐसा तो मैं सभी पार्टियों के साथ करता आया हूँ मगर तू तो कह रहा था कि यह नई पार्टी है. नये मूल्यों के साथ, नये जमाने की. एक अलग तरह की पार्टी.
अरे बापू, सभी तो एक न एक दिन नये थे. सभी कुछ नया ही करने आये थे. वो तो धीरे धीरे पुराने हो जाते हैं. ये भी हो जायेंगे.  
गाँधी जी रामलाल को देख मुस्कराये. रामलाल उन्हें देख कर एक आँख दबाता है और चल पड़ते हैं गाँधी जी नई धोती पहने. बिना शीशे का चश्मा, एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ से रामलाल का कँधा थामे. पार्टी घोषणा स्थल की ओर. कोशिश बस इतनी सी कि कोई टूटा चश्मा न देख ले.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई १२,२०२० के अंक में:
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शनिवार, जुलाई 04, 2020

फर्क समाजसेवी संस्था और एनजीओ में




कुत्ता मूते तभी कुकुरमुत्ते पैदा हों, वो जमाना गुजरे भी जमाना गुजरा। अंग्रेजी का अपना बोलबाला है। उसका विश्व स्वीकार्य अपना वर्चस्व है। अंग्रेजी स्कूल मे पढ़ने वाला बच्चा तक इस बात को जानता है और हिन्दी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे को हेय दृष्टि से देखता है। हमने हिन्दी माध्यम स्कूल से पढ़कर इस बात को जिया है। कुकुरमुत्ता जब अंग्रेजी वाला मशरूम हो जाये, तब वह एक मंहगा एवं लजीज खाद्य बन जाता है। कुकुरमुत्ता अब बिना कुत्ते के सहयोग के ग्रीन हाउस में उगता है। उसे कुत्ते नहीं, बाजार उगाते हैं। ठीक वैसा ही फरक है जो एक समाज सेवी संस्था और एन जी ओ में है। समाज सेवी संस्था जब अंग्रेजी वाली एन जी ओ हो जाती है, तब उसे समाज सेवक नहीं, ग्रान्ट चलाती है। उसका मुख्य उद्देश्य ही ग्रान्ट प्राप्त करना होता है। ग्रान्टदाता का अपना एजेन्डा होता है और एन जी ओ समाज सेवा का जामा पहन कर उसे पूरा करती है।   
वैसे ही जैसे आज सफेद खादी भी मात्र एक ऐसी ही फेन्सी ड्रेस वाली पोशाक बन कर रह गई है। हर नेता अपने समाज सेवक वाले अभिनेता पात्र को सफेद खादी उढ़ा कर मलाई काट रहा है। काम उसका भी अपने फायनेंसर की ग्रान्ट पर समाज सेवा का अभिनय कर चुनाव जीतना है और फिर उन्हीं फायनेंसर की झोली भरना है। इनके लिए जनता ५ वर्षों वाला गांधी है। जिस तरह हर २ अक्टूबर को गांधी जी को जिन्दा कर के नमन वंदना का अभिनय कर अपना उल्लू साधा जाता है और फिर उनकी तस्वीर को साल भर के लिए बक्से में बंद करके रख दिया जाता है। वैसे ही इस सफेद पोशाक में हर पाँच साल में चुनाव के वक्त जनता को भगवान बना कर नमन वंदना कर ली जाती है और फिर फिर चुनाव जीतते ही अगले पाँच वर्षों के लिए जनता रूपी गांधी को बक्से में बंद कर दिया जाता है।
जनता को बक्से में बन्द करने का तात्पर्य यह होता है कि नेता उनकी तरफ से अपनी आँख कान बंद कर लेता है। न जनता की समस्या दिखाई देगी और न सुनाई देगी। बन्द को अंग्रेजी में लॉकडाउन पुकारो तब तो मामला इन नेताओं के लिए और भी आरामदायक हो जाता है। पूरा देश घरों में बंद है। जो नहीं बंद हैँ वो या तो पिट रहे हैं या पीट रहे हैं। यह जरूर है कि ऐसे मौके पर फ्रंटलाइन वर्कर वाकई भगवान का स्वरूप हो गए हैं।
कोई भगवान हो जाये और ये न हो पाएं, यह भला हमारे नेताओं को कहां मंजूर। अतः इस महामारी में भी सरकार गिराने से लेकर सरकार बनाने में पूरी ताकत से जुटे हैं और पूछने पर कहते हैं कि हमे जनता ने अपनी अगुवाई के लिए चुना है। हम प्रथम श्रेणी के फ्रंट लाइन वर्कर हैं।
सूर्य ग्रहण आकर निकाल लिया। शपथ ग्रहण जारी है। महामारी में जनता घरों में बंद है अतः यह नेता आत्म निर्भरता का परिचय देते हुए स्वतः ही अपने गले में मास्क की माला पहने एक दूसरे के गले में हाथ डाले मुस्कराते हुए फोटो खींचा रहे हैं। जनता को संदेश दे रहे हैँ कि महामारी से बचने के लिए मास्क पहनिए और एक दूसरे से निर्धारित दूरी बनाये रखिये। इनकी करनी और कथनी का फरक जनता घर में बंद बैठी टी वी पर देख रही है। जनता जानती है की ये वही लोग हैं जो अहिंसा रैली की सफलता का जश्न छः हवाई फायर करके मनाते हैँ।
ये नेता जिन्होंने सामान्य दिनों तक में कोई काम नहीं किया वो आज इस दौर में अपने काम को अति आवश्यक सेवा का दर्जा देकर फ्रंट लाइन वर्कर बने बैठे हैँ। जनसंख्या की एक बड़ी तादाद इस बात का बुरा नहीं भी नहीं मान  रही है क्यूंकि इन्हीं नेताओं की कृपा से ही तो शराब को आवश्यक वस्तु की श्रेणी में माना गया है।
शराब की दुकानें खुली हैँ। नेता जानते हैँ कि जनता को शराब पिला कर अगर चुनाव जीता जा सकता है तो ऐसे मौके पर शराब दिला कर दिल तो जीता जा ही सकता है। फिर पूछा जाएगा की हाऊ इज जोश? शराब के नशे में मदमदाती जनता एक सुर में बोलेगी- हाई सर।
शराब से जहाँ एक ओर मजबूत सरकार बनती है तो वहीं दूसरी ओर शराब से ही मजबूत अर्थव्यवस्था भी बनती है।

-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई ०५,२०२० के अंक में:

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