शनिवार, सितंबर 30, 2006

नया नाम:डा. अंबेडकर स्मृति चिट्ठा चर्चा

न जाने क्यूँ एक कुंडली टाईप कुछ दिमाग मे आ रहा है:

चलना मुश्किल हो गया, हमें सड़क पर आज
बिन पैसा कौडी दिये, क्यों मांग रहे हो ब्याज.
क्यों मांग रहे हो ब्याज, बंद क्या धंधा कर दें
या कि पढने वालों को ही, हम अंधा कर दें.
कहे समीर कविराय कि फिर हाथ न मलना
चिट्ठे बंद हो जायेंगे, तब जंगल मे चलना.


कल शाम को बैठा चिट्ठा चर्चा देख रहा था. पूरा बचपन से जवानी का समय दिमाग मे घूम गया. न जाने कितनी भूली बिसरी यादों की आंधियो ने आ कर घेर लिया.

१.पांचवीं कक्षा मे था शायद. उस वक्त तक पूरी तरह से निखरा हीरा नही बन पाया था जिसे बाद मे "होनहार बिरवान के, होत चिकने पात" कहावत के अपवाद स्वरुप नवाज़ा गया. निखरा तो क्या, बल्कि कोयला समतुल्य ही कह लें.
जब सारी कक्षा के बच्चे बैठ कर अपनी कॉपियों मे सही के चिन्ह, जो शिक्षक लगाते थे, को गिना करते थे कि किसको ज्यादा मिले. हम कुछ साथी अपनी कॉपी मे गोले गिना करते कि किसको कम मिले. जिसको जितना कम, वो उतना कम मूर्ख. बाकियों से, जो सही गिना करते थे, हम कोई खास वास्ता नही रखते थे.अब तो बहुत बरस बीते ऎसे गोले गिने हुये.

२.एक बार एक शादी मे गया था. लडकी के पिता को लडके वालों से कहते सुना:

" मै तो अपनी तरफ से भरसक इंतजाम कर रहा हूँ, अगर कोई गल्ती हो जाये तो बताईयेगा जरुर". लडके वाले भी अच्छे थे, जानते थे ऎसा शिष्टाचारवश कहा जाता है. किसी ने कोई शिकायत नही जताई. ऎसा नही था कि गल्तियां नहीं हुई होंगी, मगर इतने बडे कार्य मे वह स्वभाविक हैं. वो भी शिष्टाचारी थे सो चुप ही रहे और अच्छी बातें देख कर उन्हें सराहते रहे.

३. ऎसी ही एक शादी मे और गया, वहां भी यही.लडकी के पिता को लडके वालों से कहते सुना:

" मै तो अपनी तरफ से भरसक इंतजाम कर रहा हूँ, अगर कोई गल्ती हो जाये तो बताईयेगा जरुर".

अब बरात आई, सारे बराती नाच नाच कर नशे मे धुत. लडके का पिता को लडकी वालों से यह कहते पाया गया," बाकी तो सब बढियां था, वो बैंड वाले ने हीमेश के गाने की धुन ठीक से नही बजाई". अरे, यह भी खुब रहा, नाचे भी पूरा, पी भी खुब और फिर भी नाराज़गी दर्ज सिर्फ इसलिये कि लडकी वालों ने कहा था कि "बताईयेगा जरुर". अरे, शिष्टाचार भी तो कोई चीज है भाई.

४.अंतिम वाकया, और उसके बाद मुद्दे की बात.
हमारे एक मित्र हैं जिन्हें इस कहावत मे हमारी तरह पूर्ण विश्वास है:
"निन्दक नियरे राखिये......."
एक बार हमारे साथ एक दावत मे साथ गये और भरी भीड मे हमसे जोर से कहे, " भाई साहब, आपके पेंट की जिप खुली है, बंद कर लें". अब जिनकी नजर अब तक नही पडी थी, उनकी भी पड गई और हमने झेंपतें हुये बंद कर ली. और वो हमारे पास आये और धीरे से विजयी मुस्कान लिये कहने लगे, "निन्दक नियरे राखिये.......".
अरे भाई, थोडा और नियरे रहते तो ठीक था, कान मे कह देते, तो कम से कम जिन्होंने अब तक नही देखा, उनसे तो नज़रें नहीं चुराना पडती.

अब आते है, मुद्दे पर, जो इन विचारों से पैदा हुये:

१. चिट्ठा चर्चा का नाम बदल कर उपरोक्त क्रं २ को मद्देनज़र रखते हुये "डा. अंबेडकर स्मृति चिट्ठा चर्चा" कर दिया जाये. अन्य भाषाओं के चिट्ठों के सामने अल्पसंख्यक तो है ही और इसके और इस पर लिखी गई विषय वस्तु के उत्थान के लिये ढेरों सार्वजनिक संस्थान कार्यरत भी है. यहां भी हर रोज नये लोग लिखते रहेंगे, हर रोज नये कारण बनेंगे, पूर्ण उत्थान तो कभी संभव नही है तो सबको अपने विचारोत्तेजक विचारों को व्यक्त करने का भी पूर्ण मौका अनवरत जारी रह सकता है.

२. गल्तियां जानने की सभी को आवश्यकता है और यही एक बहुत ही स्वस्थ परंपरा है मगर कृपया उपर दिया विचार क्रं. ४ पर विचार करें. ईमेल के द्वार हमेशा स्वागत मे पलक पावडे बिछाये खुलें हैं.

सोच रहा था कि क्या कोई वर्तनी सुधारक यंत्र पर कार्य चल रहा है? शायद भविष्य उज्जवल हो.

और एक मुक्तक टाईप भी ख्याल मे आया:

हम तो घबराये से हैं, हर सुबह शाम
कहीं हिसाब मांगने न आता हो पठान.



और

हम तो गड्डों से बच कर उछले
निकल गये वो, जो पीकर निकले.




हमने भी बडे बडे दिग्गजो के देखा देखी गलत गलत अभ्यास से पर दिलेरी दिखाई और लिख आये कि बताईयेगा बिल्कुल उपरोक्त क्रं. २ को मद्देनजर रखते हुये. अभी पलक झपकी भी नही थी कि उपरोक्त क्रं. ३ वाली बात हो गई और हम क्रं. १ की तर्ज पर गोले गिनने लग गये.

बच्चों की नजर अब तक जिस बात पर नही गई थी वो भी जान गये कि पिता जी फुस्सी बम हैं हिन्दी के. अब उन्हें कैसे समझाऊँ कि बेटा ये सब उपरोक्त क्रं ३ के बराती हैं जो नाचे भी खुब, पिये भी खुब और अब शिष्टाचार भी नही निभा रहे हैं.

भाई, कान मे कहने के लिये मेरा ईमेल पता है sameer dot lal AT gmail dot com. बहुते अच्छा फुसफुसाता है.थोडा तो क्रमांक ४ का ध्यान धरो, हे ज्ञानी.

हमें मालूम है बहुत से अभी हमे अभी सीख देंगे कि इस तरह ही सीखा जाता है और यह स्वस्थ परंपरा है. अरे भई, हमे मालूम है लेकिन क्या मजे भी ना लें इतने बडे आयोजन के. है तो बडा स्वादिष्ट.

हमें भी पूर्ण विश्वास है:

"निंदक नियरे राखिये........"

मगर अब सोचते है, इसे बदल दिया जाये

"निंदक अति नियरे राखिये, कान मे फुसफुसाये,
काम भी बनता रहे, औउर कौनों जान ना पाये."



टीप:

इस पोस्ट का आधार सिर्फ मौज मस्ती है. कृप्या इसे किसी भी गौरवशाली अभियान की राह मे रोड़ा न माना जाये और न ही किसी तरह के नये अभियान का शंखनाद. यह किसी व्यक्ति विशेष को नजर मे रख कर नही लिखी गई बल्कि स्व-विचारों की आंधी को नियंत्रित करने का प्रयास मात्र है.

-सभी से क्षमापार्थी---समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

गुरुवार, सितंबर 28, 2006

आदमी की सोच मे...

बफैलो कवि सम्मेलन मे जो हमने पढ़ा और जो अब तक मेरे इस चिठ्ठे मे नही है, वो यहां पेश है. इसके अलावा आफिस कुंडलियां, दुविधा वाली कुंडलियां और प्रेम गाथा भी पढ़ी गई, जो कि यहां पूर्व प्रकाशित हैं:

कुंडलियां

॥१॥ //यह आशिष फुरसतिया जी दिये थे, चेट पर//

पाये खुब आशिष, जब हम इधर को घुमे
सफलता तेरे चरण नही, चेहरा भी चुमे.
चेहरा भी चुमे? वो अब दलित है भाई
आरक्षण लग गया, जब से पत्नि है आई.
कहे समीर कि अब बस इतना मिल जाये
हर कविता जो कहूँ वो तेरी दाद ही पाये.



॥२॥

डरते डरते हम आये हैं, कविता पढ़ने आज
ताली जो तुम पीट दो, खुश हो लें कविराज
खुश हो लें कविराज क्या कोई गीत सुनायें
या फिर इक वो गज़ल जो तेरे मन को भाये
कहे समीर कि चलो अब हम कविता हैं पढ़ते
भाग ना जायें लोग बस इतनी सी बात से डरते.


कविता मे:


नेता जी बहुत महान हैं



नेता जी बहुत महान हैं
समाज सेवा बस काम है.

वो जो जेल देखते हो,
जहाँ जाना भी हराम है.
ना जाने कितने कैदी,
इनके भाई के समान हैं.

अंदर ही सारे इंतजाम हैं,
नेता जी बहुत महान हैं

कल तक जहाँ झोपडी थी,
आज कितना खुला मैदान है.
और उस पर बना इनका होटल
इस शहर की शान है.

बार बालाओं को इतमिनान है
नेता जी बहुत महान हैं

इस अनाथालय को देखिये,
रुपये की तो बात ही क्या.
कुछ अदद बच्चे भी यहाँ
इन्ही का गुप्त दान हैं.

इनके बहुतेरे अहसान हैं,
नेता जी बहुत महान हैं

वो जो भीड़ देखते हो,
भक्तों की कतार है.
नेता जी का बंगला नही,
लगता है तीरथ धाम है.

आप भगवान के समान हैं,
नेता जी बहुत महान हैं

--समीर लाल 'समीर'



गीत मे: इस पर आपका खास ध्यान चाहूँगा:

आदमी की सोच


आदमी की सोच मे फिर से कमी हो जायेगी
वक्त के इस साथ चलते, मतलबी हो जायेगी.

देखता हूँ बैठ कर मै इस चिता पर कब्रगाह
छोड दो इस बात को, ये मजहबी हो जायेगी.

अपने आंसू पोंछ कर तू चल नदी के पार तक
जिंदगी अपनी ज़मीं पर,फिर सुखी हो जायेगी.

जान की बाजी लगाते देश की जो आन पर
डर तो ये है एक दिन, उनकी कमी हो जायेगी.

रो रहा हूँ देख कर सूखे हुये उस ताल को
आंसूओं की धार से, कुछ तो नमीं हो जायेगी.

वोट की खातिर दलित की आज़ उसने थाह ली
कितने अरमानों की फिर अब, खुदकुशी हो जायेगी.

-समीर लाल 'समीर'



एक दोहा:

लेक ऎरी की तीर पर, भई कविजन की भीड़
रचना अब कोई और लिखे, तबहिं पढ़ें समीर. Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, सितंबर 25, 2006

कवि सम्मेलन बफैलो मे

ग्रेटर बफैलो के हिन्दी समाज के तत्वाधान मे दिनांक २३ सितंबर, २००६ को एक कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ.इस कार्यक्रम के आयोजन मे श्रीमती सरिता कंसल और नरेन कंसल एवं साथियों का विशेष योगदान रहा. सम्मेलन बफैलो विश्वविद्यालय के हाल मे आयोजित किया गया.

सम्मेलन मे शिरकत करने पहुंचे ६ कवि, जिसमे अमरीका से पांच और एक कनाडा से आये थे. अमरीका के विभिन्न नगरों से पधारे: घनश्याम गुप्ता जी, अनूप भार्गव जी, राकेश खंडेलवाल जी, अभिनव शुक्ल जी, लक्ष्मी नारायण गुप्ता जी और कनाडा से मै, याने उड़न तश्तरी वाला समीर लाल.

सरस्वती वंदना के साथ निर्धारित समय ठीक सायं ७ बजे कवि सम्मेलन की शुरुवात हुई. राकेश खंडेलवाल जी ने अपने सधे हुये अंदाज मे मंच के संचालन की बागडोर संभाली और बेहतरीन तरीके से इस कार्य को अपने अंजाम तक पहुँचाया.

कवि सम्मेलन की शुरुवात लक्ष्मी गुप्ता जी के द्वारा की गई. विभिन्न दौरों मे उन्होने अपनी प्रसिद्ध पत्नी पुराण का पाठ किया:

पत्नी के बिन नहीं है इस जग में उद्धार।
पत्नी की पूजा करो सब कुछ तज के यार।।
सब कुछ तज कर यार तुम सुनो खोल कर कान।
तिरछी चितवन से तुम्हें कर देगी धनवान।।......


और अन्य रचनाओं के साथ कीर्तन भी किया:

कन्हैया ने पहनी जीन्स, बड़ा रस आयो रे.

लक्ष्मी जी जब अपनी कह चुके तो दूसरे नम्बर पर हम पेश हुये, अपनी कुण्डलियों और हास्य रस की कविताओं के साथ:


विराजमान हैं मंच पर, सब दिग्ग्ज पीठाधीश
हमउ तिलक लगाई लिये, अपनी खड़िया पीस.
अपनी खड़िया पीस कि बिल्कुल चंदन सी लागे
हंसों की इस बस्ती मे, बगुला भी बाग लगावे.
कहे समीर कि भईया, ये तो बहुत बडा सम्मान
इतनी ऊँची पैठ पर, आज हम भी विराजमान.


अंतिम दौर खत्म होने से पहले हमने एक गीत भी तर्रनुम मे गाया:

आदमी की सोच मे फिर से कमी हो जायेगी
वक्त के इस साथ चलते, मतलबी हो जायेगी.
देखता हूँ बैठ कर मै इस चिता पर कब्रगाह
छोड दो इस बात को, ये मजहबी हो जायेगी.......


अपनी पेशकश पूर्णता मे एक अलग पोस्ट के माध्यम से आप तक पहुँचाता हूँ.

फिर भाई अभिनव शुक्ल हाजिर हुये सुपर डुपर स्टाईल मे एक से एक कवितायें लिये और बांधे रहे अंत तक अपना समा:

एक बार नेताजी भ्रमण हेतु जा रहे थे,
रास्ते में सुअर की बच्चा एक आ गया.......


और फिर अपना लोकप्रिय मुट्टम मंत्र:

डाक्टर बाबू कह रहे सुबह सवेरे जाग,
बिस्तर बिखरा छोड़ के चार मील तू भाग,
चार मील तू भाग छोड़ दे घी और शक्कर,
सेब संतरा चाप लगा गाजर के चक्कर,
अंग्रेज़ों की तरह यदि उबला खाएगा,
दो महीनें में बिल्कुल ही दुबला जाएगा।


फिर रसगुल्ले, वेलेंटाईन डे...और भी ढ़ेरों.


अनूप भार्गव जी ने भी अपना समा बांधा और सब उन्हे मंत्र मुग्ध हो सुनते रहे:

रिश्तों को सीमाओं में नहीं बाँधा करते
उन्हें झूँठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे अपनी उपमाएं
होनें दो वही जो क्षण कहे
सीमा वही हो जो मन कहे



और फिर:

कब तक लिये
बैठी रहोगी मुठ्ठी में धूप को,
ज़रा हथेली को खोलो
तो सबेरा हो ...


फिर:

जज़्बातों की उठती आंधी हम किसको दोषी ठहराते
लम्हे भर का कर्ज़ लिया था बरसों बीत गये लौटाते .....


और भी अनेकों. श्रोताओं ने उनके भारत मे हुये सम्मान पर तालियां बजा कर स्वागत किया.

घनश्याम गुप्ता जी का अंदाज निराला रहा और उनकी प्रस्तुति बहुत बेहतरीन:

मूक चिन्तन भी अधूरा मुखर वाणी भी अधूरी
चेतना के बिम्ब से वंचित कहानी भी अधूरी ........


और

सूर्यमुखी फूलों के हाथों का पीलापन
लिये लिये सिमट गई आखिर संध्या दुल्हन....


बहुत सारी रचनाओं के साथ घनश्याम जी छाये रहे.


और फिर राकेश खंडेलवाल जी, जितना सुंदर और सधा हुआ उनका मंच संचालन रहा, उतना ही गजब का काव्य पाठ. वो तो अपनी हर बात कविता मे ही कहते है, सो मंच संचालन से ले, निमंत्रण तक काव्यात्मक ही रहा:

प्रश्न तो कर लूँ
मगर फिर प्रश्न उठता है कि मेरे प्रश्न का आधार क्या हो
पार वाली झोंपड़ी से गांव का व्यवहार क्या हो.......


तथा

तुमने कहा न तुम तक पहुँचे मेरे भेजे हुए संदेसे
इसीलिये अबकी भेजा है मैने पंजीकरण करा कर
बरखा की बूँदों में अक्षर पिरो पिरो कर पत्र लिखा है
कहा जलद से तुम्ह्रें सुनाये द्वार तुम्हारे जाकर गा कर



लगभग ११० से अधिक हिन्दी प्रेमी श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो पूरे रात्रि ११.३० बजे तक सुनते रहे. श्रोताओं मे सुभद्रा कुमारी चौहान की सुपुत्री श्रीमती ममता भार्गव की उपस्थिती ने कार्यक्रम मे चार चाँद लगा दिये.

इस मौके पर ली गई चंद तस्वीरें भी पेश हैं:



बायें से दायें: अभिनव शुक्ल, अनूप भार्गव, राकेश खंडेलवाल, लक्ष्मी गुप्ता, समीर लाल


बायें से दायें: राकेश खंडेलवाल, घनश्याम गुप्ता, अनूप भार्गव, अभिनव शुक्ल, समीर लाल


बायें से दायें: घनश्याम गुप्ता,राकेश खंडेलवाल, अनूप भार्गव, सरिता कंसल, नरेन कंसल, अभिनव शुक्ल, समीर लाल


टीप: १.फोटो के आधिक्य मे पोस्ट खुलने मे आ रही दिक्कत के बारे मे जान कर कुछ फोटो को अलग किया जा रहा है और साईज भी छोटी कर दी गई है.

२.राकेश खंडेलवाल जी के द्वारा इंगित किये जाने पर फोटो के साथ नाम जोडे जा रहे हैं.धन्यवाद, राकेश भाई, इस ओर ध्यान दिलाने के लिये.

--समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

गुरुवार, सितंबर 21, 2006

दुविधा मे हम फंस गये

बडी दुविधा मे हूँ, मित्रों, कुछ सुझाओ. पेश हैं दो कुंडली नुमा रचनाऎं:

॥१॥
अमरीका आ कर बस गये, पैसा खुब कमाये
बोले अमरीकन दोस्त से, घर की याद सताये.
घर की याद सताये तो एक बंगला तनवा लो
थोड़े पैसे पास के, बाकि का सब करज करा लो
कहे समीर कविराय कि हमने फिर माथा पीटा
घर मकान दुई चीज हैं कैसन समझे अमरीका.

दुविधा: क्या घर और मकान का अंतर समझाना पडेगा?

॥२॥
पंछी को तुम मुक्त करो, किया शंख मे नाद
नेता जी हर घर गये, बिना किसी अपवाद.
बिना किसी अपवाद कि वो ललकार लगाते
अगर किया है कैद तो तू उनको आज उड़ा दे
कहत समीर आंदोलन की वो खुशी मनाये
खोल के बोतल बैठे और साथ मे मुरगा खाये.

दुविधा: क्या मुर्गा पंछी की श्रेणी मे आयेगा?

समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, सितंबर 13, 2006

हिन्दी: ओम भूत भविष्य....

सुबह सुबह अभी आफिस मे आकर बैठा ही था कि एक पुरानी परिचिता भाभी जी का फोन घनघना उठा. जैसे ही फोन उठाया, वो लगभग चहकते हुये बोलीं:

" भाई साहब, भाभी बोल रही हूँ, हैप्पी हिन्दी डे...हम तो कल रात ही सोच कर सोये थे कि सुबह सुबह आपको विश करेंगे" और वो हें हें करके हंसने लगीं. हें हें शायद इसलिये कि आजकल इस तरह के दिनों की बधाई इत्यादि तो उपहास के तौर पर ही दी जाती है.

उनकी बात सुन कर मुँह का जायका बिल्कुल वैसा ही हो गया जैसा कि यहां के समोसे पर केचअप डाल कर खाने पर हो जाता है और हम भी मजबूरीवश समोसा खा लेते हैं. केचअप का स्वाद नज़रअंदाज करते हुये बस समोसे का लुत्फ उठाने की कोशिश करते हैं. ठीक उसी तर्ज पर हमने उनकी बात सुनी...और अंग्रेजी रुपी केचअप मे दबे उनकी भावना रुपी समोसे का लुत्फ उठाते हुये उनका धन्यवाद ज्ञापन किया:

"आपको भी हिन्दी दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाऎं एवं बधाई और इस शुभ अवसर पर हमें याद करने के लिये आपका बहुत साधुवाद."

भाभी जी तो जोर जोर से हंसने लगीं.."साधुवाद...हा हा हा...आप भी न भाई साहब..कितने फनी शब्द खोज कोज कर लाते हो...टीचर्स डे पर भी आपकी वो शिक्षक वाली पोयेम पढी थी...क्या फनी लिखते हैं, खुब हंसी आई. गज़ब लिखते हैं आप...कैसे लिख लेते है यह सब..द्रोणाचार्य और उनका वो स्टूडेंट....अरे वो अंगूठे वाला... जैसे पुराने स्टफ...हम तो उनके नाम भी याद नही रह पाते.."

हम सोचने लगे, इतने गंभीर वातावरण मे रची गई वो शिक्षक दिवस वाली रचना पर इनको हंसी आ रही है और वो इन्हे फनी लग रही है सिर्फ़ इसलिये कि वो हिन्दी मे है...क्या हो रहा है यह सब...कहां जा रहे हैं हम...खैर औपचारिकता का निर्वहन तो संस्कारवश करना ही था, सो हम उवाचे:

"चलिये, अच्छा लगा कि आपको रचना पसंद आई. बस दिल मे भाव आ जाते हैं तो कलम चल निकलती है."

" अरे भाई साहब, आपके पास अब तक कलम है?...मेरे दादाजी के पास भी थी एक..आजकल तो पेन का जमाना आ गया है, अब कलम कहां.." उन्होने फैशनवश नये जमाने और पुरानी संस्कृति के अवमूल्यन पर अपने विचार धरे.

हमसे भी रहा न गया और हमने इस फैशनेबल चर्चा मे कुछ और इजाफा करते हुये जोड़ा:

"भाभी जी, आप तो फिर भी कलम और पेन मे भेद कर पा रही हैं..आने वाली पीढी तो कलम क्या होती है, यह जानेगी भी नही."

उन्होंने इसे अपनी तारीफ समझ कर, अपनी आवाज को गंभीरता का लबादा ऊठाते हुये तुरंत जबाब दिया: " जी, सो तो है, समय बदल रहा है बहुत तेजी से.."

फिर अन्य वार्तालाप के बाद फोन रखने के पहले उन्होंने एक धमाकेदार खुलासा किया:

"भाई साहब, आपको तो मालूम है कि हम तो जितना बन पड़ता है, चिंटू (उनका ८ वर्षिय सुपुत्र) को अपने कल्चर और लेंग्वेज के बारे मे सिखाते रह्ते हैं और उसे भी हिन्दी मे काफी मजा आता है. अभी पिछली बार इंडिया गये थे तो वो रोज दादी के साथ टेंपल जाता था..मुझे तो बहुत अच्छा लगता था. वहीं उसने वो वाला सोंग भी सिखा था....क्या नाम है...हम्म्म्म....ओह या, वो वाला...' ओम भूत भविष्य....आगे भी इसी टाईप का कुछ...याद नही आ रहा.."

हमने कहा.."वो गायत्री मंत्र..ऊँ भूर्भुवः स्वः....."

"जी, जी बिल्कुल वही...पूरा तो अब उसे याद नही मगर एकआध लाईन अब भी बहुत अच्छी तरह गा लेता है इस सोंग को.."

अब देखें, जब भाभी जी को खुद ही गायत्री मंत्र याद नही है और उसे वो सांग समझती हैं तो चिंटू तो बच्चा है, वो जो भी गाता होगा उसके लिये तो हिन्दी वाकई " ओम भूत भविष्य..." ही है.

आगे उन्होंने बताया कि चिंटू के स्कूल मे करीब ४० हिन्दुस्तानी बच्चे हैं, जो आज हिन्दी डे सेलिबरेट करेंगे. चिंटू भी चार लाईन की पोयम लिख कर ले गया है, सुनाऊँ आपको..."

"जरुर, जरुर..." हमने कहा, यूँ भी हम महिलाओं को मना करने के आदी नही हैं....उन्होने तुरंत पोयम कहना शुरु की:

"आई एम फ़्रोम इंडिया,
ऎंड आई एम प्राउड.
आई लव माई हिन्दी,
आई से इट लाउड"


सिर्फ़ समझने के लिये:

'I am from India
And I am proud.
I love my Hindi..
I say it loud"


कविता के भाव वाकई सुंदर थे. हमने पुनः आदतन तारीफों के पुल बांधे, उन्हें इस शुभ कार्य के लिये बधाई दी और फोन पर विदा लेने की इजाजत मांगी.

विषय गंभीर था, मगर हर गंभीर विषय पर, एक आम हिदुस्तानी का धर्म निभाते हुये, सिर्फ़ विचार ही कर सकता हूँ और तो क्या करुँ.

कुछ पंक्तियों ने जनम ले लिया इस उहापोह मे:


हिन्दी

भाशा है अस्तित्व खो रही
सिसकी भर के आज रो रही
आओ मिल कर इसे उठायें
बस्ती हो बेजान सो रही.


कोशिश करें तभी होता है
बून्दों से ही घट भरता है
वक्त स्वयं है शीश झुकाता
जब आगे को पग बढ़ता है.



हिन्दी है पहचान हमारी
हिन्दी से सम्मान हमारा
युवजन, जागो! हिन्दी अपनी
मिलकर आज लगाओ नारा.

-समीर लाल 'समीर'


पुनश्चः: भाभी जी का अभी फिर फोन आया था. चिंटू को हिन्दी डे वाली पोयम के लिये प्रथम पुरुस्कार मिला है. बधाई, चिंटू और उसकी मम्मी को.

"हिन्दी दिवस आप सभी को बधाई." Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, सितंबर 08, 2006

तीरंदाजी का शौक

अगस्त के अंतिम पखवाडे की एक सुहानी सुबह. अभी हम उठ कर तैयार होकर कम्प्युटर पर गुगल देवता को प्रणाम कर ही रहे थे कि एकाएक पंकज बेगानी मास्साब गुगल चेट पर अवतरित हुये.हमेशा की तरह, पहला प्रश्न-क्या चल रहा है?...जबाब स्वभाविक था, "बस यूँ ही, आप बतायें आप का क्या चल रहा है?"....बस, इसीलिये तो ये प्रश्न फेका गया था कि हम भी पूँछे. तुरंत मुस्कराते हुये शुरु हो गये: "एक गुप्त प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूँ"

बताने के तरीके से ही हम समझ गये यह गोपनियता सरकारी विभाग की गोपनीय फाईल वाली है, जिसके बारे मे सबको पता होता है. हम इनकी अगली पंक्ति का इंतजार करने लगे जो वो टाइप करते नज़र आ रहे थे. हमे मालूम था कि गुप्तता का जीवनकाल इनकी अगली लाईन तक ही सीमित है. और क्या बात है, अनुभव कितना काम आता है. जैसा हमने सोचा था वो ही हुआ.

"अभी किसी को बताईयेगा नही, तरकश नये रुप मे आ रहा है, ये देखिये" औपचारिकतावश हमने देखा, औपचारिकतावश काफी सराहा भी, तारिफों के पुल बाँध दिये. पंकज जी अति प्रभावित हुये और लजाते हुये हमे भी तीरंदाज बनने का आमंत्रण दे बैठे. अब हमने तरकश फिर से वाकई मे देखा क्योंकि हम भी इसी मैदान मे खेलने के लिये आमंत्रित थे. लगा कि जो तारिफ हम औपचारिकतावश ब्लाग की टिप्प्णियों की तरह कर गये थे वो बिल्कुल सही निकली. मन को बड़ा संतोष मिला, क्योंकि नेताओं की तरह अपने बयान बदलने मे अभी तक सिद्धहस्त नही हो पाया हूँ. हांलाकि प्रयास जारी है.

हमारे आमंत्रण स्विकार करते ही, पंकज जी की टोन मे थोड़ा स्वभाविक सा फरक आया. निवेदन की जगह आदेशात्मक संदेश आया: " तुरंत बिना पूर्व प्रकाशित रचना( थोडी ठीक ठाक साईज की), एक अच्छी खुद की तस्वीर ( अब ये खुद की तस्वीर और अच्छी, दो विरोधाभाषी आदेश का पालन तो टेड़ी खीर थी, मगर जैसा कि हर वरिष्ट अधिकारी के आदेश मे विरोधाभाषी बातें होती हैं, जिसे मातहत को अपनी समझ से भरसक पूरा करना होता है, हमने भी किया) जल्दी भेजें. हमने घिघियाते हुये और बडी हिम्मत जुटाते हुये पूछा कि जल्दी! मतलब कब तक? और फिर जैसा कि सोचा था अगली पंक्ति: परसों तरकश को पब्लिक कर देंगे, तो कल तक आप दोनों चीजें भेज दें.

अब आप ही बताये कि कब मै ठीक ठाक साईज का लेख लिखूँगा, कब अच्छी और वो भी खुद की तस्वीर खिचवाऊँगा. उस पर से हिदायत कि अभी इसकी गोपनियता भंग नही होनी चाहिये. अरे भईये, गोपनियता भंग करने के लिये भी किसी से बात करनी पड़ेगी और तुमने इतना टाईम ही कहां रख छोड़ा है.

खैर, हम सारा दिन शब्दों के साथ कुश्ती लड़ते रहे. फिर फोटो की खोज. इस बीच ईमेल के जरिये अवतरित हो कर "साईट टेस्ट कर लिजियेगा और जो भी सुधार हो, वो ईमेल कर दिजियेगा.". लो अब और लो. जब तीरंदाजी का शौक आया है, तो झेलो. फिर सारी कुछ चीजें, गोपनीय का चस्पा लगा कर पंकज भाई को भेज दी गई, जो अब सार्वजनिक है. हमने तो इसे पूर्णतः गोपनीय रखा, सिर्फ़ अपनी पत्नी को गोपनियता का वादा लेते हुये बताया और उसने ऎसा ही वादा लेते हुये, अपने भाई को और मात्र तीन सहेलियों को, और उन्होंने भी ' किसी को बताना नही ' की तर्ज पर आगे ....मुझे इससे क्या, मैने तो जो वायदा किया था उसे लगभग निभा दिया, अब इससे ज्यादा क्या कर सकता हूँ. अपनी कमीज पर धब्बे ना आयें फिर भले ही आपके संरक्षण मे पूरा तंत्र भृष्टाचार मे लिप्त हो, तो आप क्या कर सकते हैं सिवाय किले पर चढकर भाषण देने के.

घर वालों और मित्रों को बताया गया कि अब हम अर्जुन हो गये हैं. सबने नाक भौं सिकोड़ ली. तब हमे अपनी गल्ती का अहसास हुआ. फिर से समझाया कि अरे भाई, अर्जुन, अर्जुन सिंग आरक्षण वाले नही बल्कि महाभारत वाले जो तीरंदाजी के लिये जाने जाते थे. तब सबके चेहरे थोडे ठीक हुये. लोगों ने पूछना शुरु किया कि पहले तो कवि सम्मेलनों मे जाते थे, अब फेंसी ड्रेस मे भी जाने लगे क्या? बडा मुश्किल है भाई, इन सबको समझाना.

बहुत पहले खुद की लिखी एक भोजपुरी रचना की दो पंक्तियां याद आ गई:

"नज़रन के तुहरे तीर इहर दिलवा मा लगेला
धडकन मे भईल पीर बरत जियरा सा लगेला."


अब सोचता हूँ ये वाले तीर चला कर भी देखा जाये. तो हमारा पहला तीर चला हमारी शादी की सालगिरह सप्ताह मे: सजनिया बुढिया गईलीं हमार.

अब बाकी तीरंदाजों, जो कि सभी सधे हुये प्रमाणित तीरंदाज हैं, संजय भाई, पंकज भाई, रवि भाई, सागर भाई, निधी जी और लेटेस्ट तीरंदाज शुऎब भाई का क्या हाल रहा, वो तो वो ही जाने मगर हमें तो इन धुरंधरों की भीड़ मे खडे होकर तीर चलाने मे बहुत मजा आ रहा है . अब लोग इनकी तीरंदाजी देखने तो आयेंगे ही तो हम पर भी कुछ नजरें पड़ जायें. बड़े शापिंग माल मे दुकान खोलने का यही तो फायदा है. इसीलिये, आज फिर से एक तीर 'अपराध बोध-एक लघु कथा' चलाया है, देखो निशाने पर लगता है कि नही.

आप भी पधारें तरकश पर. देखिये, क्या धुंआधार तीरंदाजी चल रही है.


-समीर लाल 'समीर'

Indli - Hindi News, Blogs, Links

मंगलवार, सितंबर 05, 2006

गुरू गोविंद दोउ खड़े

आज शिक्षक दिवस है. सभी गुरुजनों को, जिनसे भी मैने कभी भी, कुछ भी सीखा है, चाहे वो मुझसे उम्र मे बडे हों या छोटे, मेरा हार्दिक नमन, अभिनन्दन एवं साधुवाद.

आज समय बदल गया है, जो कि समय का नियम है. मेरे पिता जी के समय, फिर मेरे समय और फिर मेरे बच्चों के समय मे जहां एक ओर सामाजिक मान्यताऎं बदली तो दूसरी ओर, उसी के अनुरुप परिभाषाऎं.
पिता जी के वक्त पाठशाला ही सब कुछ होती थी, हमारे वक्त तक गुरु जी के घर पर थोडी बहुत ट्यूशन और बच्चों के वक्त तक पूरी साज सज्जा के साथ कोचिंग क्लासेस. इन बदलावों के साथ साथ गुरु शिष्य संबंधों मे भी घोर परिवर्तन आ गया, जो कि हर वक्त महसूस किया जा सकता है. अब यह बात भी सामायिक न हो कर पुरातन लगने लगी है आज की पीढी को:

गुरू गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरू आपकी गोविंद दियो बताय.

--कबीर

आज के परिवेश पर आधारित चन्द पंक्तियां पेश हैं:

शिक्षक

शिक्षक को सम्मान नही है
शिक्षण का सम्मान नही है
कैसे रंग रँगी अब दुनिया
शिक्षा भी अब दान नही है.

शिक्षा का बाज़ार यहाँ है
खरीदार हर छात्र यहाँ है
एकलव्य यदि नही दिखे तो
बोलो द्रोणाचार्य कहाँ है?

-समीर लाल 'समीर'

पुनः, सभी गुरुजनों को मेरा हार्दिक नमन.
Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, सितंबर 01, 2006

उसको साथ निभाते देखा

परस्पर विरोधाभास दर्शाती इन पंक्तियों पर आप सुधीजनों का ध्यान चाहूँगा:


हर मौसम को आते देखा, हर मौसम को जाते देखा
हर उत्सव एक नये तरीके, उसको गीत सुनाते देखा.

हैवानो की इस दुनिया मे, इन्सानों की कमी नही है
अनजानों की कब्रों पर जा, उसको फ़ूल चढाते देखा.

मदहोशी के इस आलम मे, जो भी हो बस वही सही है
दुख और सुख दोनों रातों मे, उसको जाम पिलाते देखा.

नफरत की इस आंधी मे, बुद्धि उड़ कर कहां गई है
अपने ही भाई के घर मे, उसको आग लगाते देखा.

शर्तों की बुनियाद कभी भी, रिश्तों का आधार नही है
खुद की हस्ती बेच बेच कर, उसको साथ निभाते देखा.

--समीर लाल 'समीर'


और साथ ही पेश हैं कुछ सामायिक हाईकु:

//१//
वाह रे देश
गरीबी पाती भूख
मूर्ति को दूध.

//२//
नेता की चाल
जनता है बेहाल
वो मालामाल.

//३//
राजनीति है
बेरोजगार रोया
नेता है सोया.

//४//
बाढ़ का नाच
लाशों की बिछी सेज
नेता की ऎश.

//५//
हवाई दौरा
गिध्द हैं घबराये
मंत्री जी आये.

//६//
मेरा ये देश
कितने परिवेष
फिर भी एक.

//७//
नेता का काज
आरक्षण है आज
युवा नाराज
.

--समीर लाल 'समीर'
Indli - Hindi News, Blogs, Links