घोषणा हुई कि मेरे शासन में अथवा
मेरी शासन प्रणाली में आपको कोई दोष नजर आता है तो मेरे दरवाजे आपका लिए सदा खुले
हैं। निश्चिंत होकर आईए, मुझे सूचित करिए ताकि मैं दोष को दूर कर सकूँ।
‘निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी
छवाय’
जिसके आँगन में बत्तख और मोर पले
हों, वो निंदक के लिए आँगन में कुटी छवाये वो मुमकिन नहीं हो सकता लेकिन इतना कहना ही
पर्याप्त है। इतना नियरे भी कोई नहीं रखता अब तो। जिस जनता ने पूर्व में इतना नीतिगत राजा और इतनी पारदर्शी नीतियां
कभी देखी न हो, उसके लिए तो मानो साक्षात राम उतर आए हों और रामराज बस आने को ही
है। जनता ने खूब जी भर कर चुनाव में हिस्सा लिया और उसे राजा स्वीकार किया।
राजा सिंहासन पर बैठा और शासन करने
लगा। जैसा कि होता है अधिकतर जनता को राजा की नीतियों और शासन में कोइ दोष नजर
नहीं आया। दोष तो था मगर जनता आदतन उसे अपनी नियति मानती रही और राजा के बजाय उसे अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का फल मानती रही। पूर्वजन्मों
के कर्मों को जिम्मेदार ठहराना सदा से ही सुविधाजनक रहा है अतः सुविधा से लगाव बना
रहा।
राजा ने भी पदभार संभालते ही
कर्म के स्थान पर प्रर्दशन को ज्यादा प्राथमिकता दी। ज्यादा प्राथमिकता कहना भी अतिशयोक्ति ही होगा दरअसल कर्म रहा ही नहीं
बस प्रदर्शन ही हावी हो गया। कर्म के उपज स्वरूप स्वाभाविक रूप से नजर आने वाले नैसर्गिक परिणाम
और जैविक विकास के स्थान पर प्रदर्शनियों
के माध्यम से चकाचौंध का माहोल बनाया जाने लगा। कर्म नदारत तो आँकड़े कैसे? महीन
रंग बिरंगी धूल से आंकड़ों के आकार की रंगोलियाँ सजा सजा कर जनता के आँख में झोंकी
जाने लगी।
इन सबके बावजूद कुछ सुधि के
दृष्टा तो होते ही हैं, वो राजा की नीतियों में दोष देख पा रहे थे। वो राजा द्वारा
घोषित सदा द्वार खुले रहने की घोषणा के मद्दे नजर उनके दरवाजे पहुँच गए। उन्होंने
राजा को दोषों की सूचना दी और उन्होंने राजा का ध्यान इस ओर इंगित कराया। राजा ने
उनका स्वागत किया और राजभवन में राजकीय अथिति का दर्जा देकर ठहरने का इंतजाम किया।
कौन जाने कैसे, दुर्घटनाएं
कभी बता कर तो आती नहीं – राजकीय मेहमानी के दौरान सभी अथितियों की नजरें जाती
रहीं – दृष्टी खो गई और सब अंधे हो गए। राजा ने उन्हें पुनः दरबार में आमंत्रित किया
और आमसभा मे पत्रकारों की उपस्थिति में उनसे पूछा – क्या आप को अब दोष नजर आ रहे
हैं? अंधों को भला क्या नजर आता – सबने समवेत स्वर में कहा- नहीं राजन!! हमें नजर
नहीं आ रहा! दरबारियों ने राजा का जयकारा लगाया और पत्रकारों ने राजा की नीतियों
को बढ़ा चढ़ा कर छापा। किसी ने अंधों से बात करने की जहमत नहीं उठाई।
तत्पश्चात राजा ने अथितियों को
ससम्मान विदा किया। विदाई तो सबने देखी किन्तु उनके घर वाले आजतक उनके घर लौटने की
प्रतीक्षा में हैं। वो अथिति कभी फिर न दिखे और न ही पत्रकारों ने उन्हें देखने की
कोशिश की।
प्रदर्शनी की रंग रोगन के
पीछे कितना कूड़ा जमा रहता है, इसे कौन नहीं जानता? और जब राजा के नाम पर कर्म प्रधान
के बदले प्रदर्शन प्रधान व्यक्ति आ बैठे तो फिर परदे के पीछे और परदे के सामने
क्या अपेक्षित है? कर्म के प्रदर्शन में जिस तरह रस्सी पर चलते हुए कोई नट दो
हाथों में पांच गेंद नचाए वैसे ही राजा भी अनेक करतब एकसाथ दिखाता। कई किताबें एक
साथ पढ़ते हुए लैपटॉप पर काम और साथ ही उस अखबार को पढ़ना जिसने उसकी तारीफ ही छापी
होगी- चाय भी उसी वक्त पीते हुए तस्वीर खिंचवाना – कितना कुछ साधना पड़ता है
प्रदर्शनी हेतु और इन सबकी तस्वीर उतारते चित्रकार। चित्रकार यूं कहा क्यूंकि
तस्वीरें तो सत्यता उजागर कर देती हैं – चित्रकारी ही प्रदर्शनी के लिए मुफीद होती
हैं। दक्ष चित्रकार हर कोण से इसे अंजाम दे रहे हैं सुबह सुबह।
इतने काम एक साथ- राजा दक्ष
है। वैसे भी जब हमारा पड़ोसी मुल्क जो सोने की लंका कहलाता था - उसके राजा के दस शीश और बीस हाथ हो सकते हैं तो
हम भी सोने का देश भले न हों सोने की चिड़िया तो थे ही। हमारे राजा के चार शीश और
आठ हाथ तो हो ही सकते हैं? इसमें भला आश्चर्य कैसा?
अब चार शीश और आठ हाथ हैं तो
दिखते क्यूँ नहीं?
सो तो सोने की लंका का राजा भी
सीता माता के हरण हेतु आया था तो दस शीश और बीस हाथ लेकर थोड़े ही आया था – वो तो
साधू का भेष धर कर आया था। फिर हमारे देश को भी तो माता दर्जा प्राप्त है, है न?
विचारणीय मात्र यह है कि जितने
कोणों से प्रदर्शनी हेतु राजा की तस्वीरों की चित्रकारी की जाती है -उससे एक चौथाई
कोणों से भी देश के असली हालातों की मात्र तस्वीर खींच कर भी उन्हें संज्ञान में
ले लिया जाता तो आज शायद आज देश की वो तस्वीर न बनती जिसे आज विश्व पटल पर
चित्रकला के माध्यम से पेश करने के इतर कोई अन्य उपाय ना बच रहा है इस विश्व गुरु
के पास!!
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर 18,
2022 के अंक में:
https://epaper.subahsavere.news/clip/289
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3 टिप्पणियां:
An excellent philosophical treatise of politicians......
ऐसा धाँसू मत लिखा कीजिए, मेरे आँसू आ जाते हैं।
बवाल - इसीलिए लिखा था :)
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