पहली बार किसी फाईव स्टार होटल में घुसने का मौका था एक दोस्त के
साथ.
तय हुआ था कि एक एक कॉफी पी जायेगी. एक कोई वहाँ बिल और १०% टिप
देगा. बाहर आकर आधा आधा कर लेंगे. इसी बहाने फाईव स्टार घूम लेंगे.
छात्र जीवन था. बम्बई में पढ़ रहे थे. एक जिज्ञासा थी कि अंदर से कैसा
रहता होगा फाईव स्टार. छोटे शहर के मध्यम वर्गीय परिवार से आये हर बालक के दिल में
उस जमाने में ऐसी जिज्ञासायें कुलबुलाया करती थीं.
बम्बई से जब घर जाया करते थे तो वहाँ रह रहे मित्रों के सामने अमिताभ
बच्चन वगैरह के नामों को इग्नोर करना बड़ा संतुष्टी देता था जैसे उनसे बम्बई में
रोज मिलते हों और उनका कोई आकर्षण हममें शेष नहीं बचा है. यथार्थ ये था कि एक बार
दर्शन तक नहीं हो पाये थे तब तक.
खैर बात फाईव स्टार की हो रही थी. होटल तय हुआ ताज. दोपहर से ही दो
बार दाढ़ी खींची. सच कहता हूँ डबल शेव या तो उस दिन किया या अपनी शादी के दिन..
बस!!! सोचिये, दिलो दिमाग के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा.
अपनी सबसे बेहतरीन वाली सिल्क की गहरी नीली कमीज, जो
अमिताभ नें मिस्टर नटवर लाल में पहनी थी, वो प्रेस करवाई. साथ में सफेद बेलबॉटम
३४ बॉटम वाला. जवानी का यही बहुत बड़ा पंगा है कि आदमी यह नहीं सोचता कि उस पर क्या
फबता है. खुद का रंग रुप कैसा है. वो यह देखता है कि फैशन में क्या है. जब तक यह
अच्छा बुरा समझने की समझ आती है, तब तक इसका असर होने की उमर जा चुकी
होती है. दोनों तरफ लूजर.
४५ साल तक सिगरेट पीते रहे और फिर छोड़ कर ज्ञान बांटने लगे कि सिगरेट
पीना अच्छा नहीं. मगर उससे होना क्या है, जितनी बैण्ड लंग्स की बजनी थी, बज
चुकी. अब तो दुर्गति की गति को विराम देने वाली ही बात शेष है.
खैर, शाम हुई. हाई हील के चकाचक पॉलिश किये हुए जूते पहनें हम चले फाईव
स्टार-द ताज!!!
चर्चगेट तक लोकल में गये और फिर वहाँ से टेक्सी में. ४-५ मिनट में
पहूँच गये. दरबान नें दरवाजा खोला. ऐसा उतरे मानो घंटा भर के बैठे टेक्सी में चले
आ रहे हैं. दरबान के सलाम को कोई जबाब नहीं. बड़े लोगों की यही स्टाईल होती है,
हमें
मालूम था.
सीधे हाथ हिलाते फुल कान्फिडेन्स दिखाने के चक्कर में संपूर्ण मूर्ख
नजर आते (आज समझ आता है) लॉबी में. और सोफे पर बैठ लिए. मन में एक आशा भी थी कि
शायद कोई फिल्म स्टार दिख जायें. नजर दौड़ाई चारों तरफ. लगा मानो सब हमें ही घूर
रहे हैं. यह हमारे भीतर की हीन भावना देख रही थी शायद. मित्र नें वहीं से बैठे
बैठे रेस्टॉरेन्ट का बोर्ड भांपा और हम दोनों चल दिये रेस्टॉरेन्ट की तरफ.
अन्दर मद्धम रोशनी, हल्का मधुर इन्सट्रूमेन्टल संगीत और हम
दोनों एक टेबल छेक कर बैठ गये. मैने सोचा यहाँ तक आ ही गये हैं तो बाथरुम भी हो ही
लें. बोर्ड भी दिख गया था, दोस्त को बोल कर चला गया.
अंदर जाते ही एक भद्र पुरुष सूटेड बूटेड मिल गये. नमस्ते हुई और हम
आग्रही स्वभाव के, कह बैठे पहले आप हो लिजिये. वो कहने लगे नहीं सर, आप!!
बाद में समझ आया कि वो तो वहाँ अटेडेन्ट था हमारी सेवा के लिए. हम खामखाँ ही
फारमेल्टी में पड़ लिए. बाद में वो कितना हँसा होगा, सोचता हूँ तो आज
भी शर्म से लाल टाईप स्थितियों में आ जाता हूँ.
वापस रेस्टॉरेन्ट में आये, तब तक हमारे मित्र, जरा
स्मार्ट टाईप थे उस जमाने में, कॉफी का आर्डर दे चुके थे.
कॉफी आई तो आम ठेलों की तरह हमारा हाथ स्वतः ही वेटर की तरफ बढ़ गया
आदतानुसार कप लेने के लिए और वो उसके लिए शायद तैयार न रहा होगा तो कॉफी का कप गिर
गया हमारे सफेद बेलबॉटम पर. वो बेचारा घबरा गया. सॉरी सॉरी करने लगा. जल्दी से
गीला टॉवेल ला कर पौंछा और दूसरी कॉफी ले आया. हम तो घबरा ही गये कि एक तो पैर जल
गया, बेलबॉटम अलग नाश गया और उस पर से दो कॉफी के पैसे. मन ही मन जोड़ लिए.
सोचे कि टिप नहीं देंगे और पैदल ही चर्चगेट चले जायेंगे तो हिसाब बराबर हो जायेगा.
अबकी बारी उसे टेबल पर कप रख लेने दिये, तब उसे उठाये.
बाद में उसने फिर सॉरी कहा और बताया कि कॉफी इज ऑन द हाऊस. यानि बिल
जीरो. आह!! मन में उस वेटर के प्रति श्रृद्धाभाव उमड़ पड़े. कोई और जगह होती तो पैर
छू लेते मगर फाईव स्टार. टिप देने का सवाल नहीं था क्यूँकि नुकसान हुआ था सो अलग
मगर जीरो का १०% भी तो जीरो ही हुआ. तब क्या दें?
चले आये रुम पर गुड नाईट करके उसे, दरबान को और
टैक्सी वाले को. कॉफी का दाग तो खैर वाशिंग पाउडर निरमा के आगे क्या टिकता. ५०
पैसे के पैकेट में बैलबॉटम फिर झकाझक सफेद.
फिर तो कईयों को फाईव स्टार घुमवाये. एक्सपिरियंस्ड होने के कारण
हॉस्टल में हमारे जैसे शहरों और परिवेष से आये लोग अपना अनुभव बटोरने के लिए हमारा
बिल पे करते चले गये.
अनुभव की बहुत कीमत होती है, हमने तभी जान लिया था.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितम्बर 5, 2021 के
अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/62932596
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9 टिप्पणियां:
जवानी का यही बहुत बड़ा पंगा है कि आदमी यह नहीं सोचता कि उस पर क्या फबता है. खुद का रंग रुप कैसा है. वो यह देखता है कि फैशन में क्या है. जब तक यह अच्छा बुरा समझने की समझ आती है, तब तक इसका असर होने की उमर जा चुकी होती है. दोनों तरफ लूजर.....
:)
जवानी का एक और बड़ा पंगा है. लगता है कि पूरी दुनिया उसे देख रही है, दुनिया की पूरी तवज्जो उसी की तरफ़ है. जबकि ऐसा कुछ होता नहीं है...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 07 सितम्बर 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाकया वाकई दिलचस्प है...हमें तो कभी क्रेज़ ही नहीं रहा... बहुत से फाइव स्टार होटलों के सामने से निकल चुके हैं...अन्दर झाँका तक नहीं...😊
रोचक। ऐसा कभी क्रेज तो नहीं रहा लेकिन ऐसे दोस्त जरूर थे जिन्हें ऐसा क्रेज था। समझ सकते हैं।
जवानी का यही बहुत बड़ा पंगा है कि आदमी यह नहीं सोचता कि उस पर क्या फबता है. खुद का रंग रुप कैसा है. वो यह देखता है कि फैशन में क्या है. जब तक यह अच्छा बुरा समझने की समझ आती है, तब तक इसका असर होने की उमर जा चुकी होती है. दोनों तरफ लूजर..
जमाना चाहे कोई भी हो जवानी में भाव एक से ही होते हैं बच्चों को देखते हैं ऐसा कुछ सोचते करते हुए..।मजेदार लेख।
व्यंग्य से सने अनुभव ।
बहुत बहुत रोचक
एकदम कामेडी फिल्म टाइप दिखा दिया ।
सच्ची ..... अनुभव की बहुत कीमत होती है। ज़बरदस्त संस्मरण ।
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