नव रात्रे चल रहे हैं.
आजकल घन्सु मौन धरे हैं. नंगे पाँव रहते हैं. सुबह एक गिलास दूध
पीते हैं. फिर सारा दिन पूजा पाठ में
लिप्त रहते हैं. शाम को आदतानुसार चौक पर
आते हैं पान की दुकान पर, मगर जुबान से बोलते कुछ नहीं, बस आँख से बतियाते हैं. बात बात पर मुंडी मटकाते हैं न और हाँ करने के लिए. कभी मुस्करा देते हैं तो कभी भद्दा सा मूँह बना लेते हैं
नराजगी जताने को.
यूँ अन्य दिनों में जब
घन्सु मौन नहीं होते तो उनके हर वाक्य में साधारण शब्दों से ज्यादा गालियों का
शुमार रहता है. उनके अनुसार गालियों के
बिना सही भाव प्रेषित नहीं हो पाते. बात अपना दम खो देती है और
हल्की रह जाती है. बहुत सारे सदाचारी लोग
गालीयुक्त भाषा को हल्का कहते हैं. घन्सु के अनुसार ऐसे लोगों
को गालियों के सामाजिक और व्यवहारिक महत्व के विषय में जानकारी ही नहीं है. ऐसे सदाचार के आवरण ओढ़े लोग चूँकि अपने असल भाव पी जाते हैं
और वाणी से सिर्फ मीठी भाषा बोलते हैं, अक्सर उच्च रक्तचाप
का शिकार होकर हृद्यघात से मरते हैं. घन्सु ने यह मंत्र बाल्यकाल
से सीख लिया था अतः आजतक कभी अस्पताल तो दूर किसी चिकित्सक से मिलने की जरुरत भी न
पड़ी स्वास्थय की कोई परेशानी को लेकर.
ऐसा नहीं है कि घंसु को गलत
आदते नहीं हैं. नवरात्रे छोड़ बाकी तो साल
भर जब तक रात में एक पौव्वा न चढ़ा लें, घन्सु को खाना हजम
नहीं होता. पान तम्बाखू के भी शौकीन
हैं. सिगरेट भी दारु पीते वक्त
सुलगा ही लेते हैं. मगर फिर भी चिकित्सक की
जरुरत नहीं पड़ती कभी. घन्सु का मानना है कि
गालियों के आगे सभी परास्त हैं तो फिर किसी बीमारी की भला बिसात. कभी आकर तो देखे, ऐसी धारा प्रवाह
गाली बकेंगे कि उसी में बीमारी बह जायेगी और मिलेगी हिन्द महासागर में जाकर.
परसों शाम चौक पर मिले तो
इशारे से बताया कि बस एक दिन और बचा है फिर कल सबका हिसाब करेंगे. जो उन्हें जानते सुनते आये हैं उन्होंने उनकी आँखों में पढ़
लिया और फिर जिस तरह से उन्होंने सर को हल्का सा झटका दिया, समझ भी लिया कि क्या हिसाब करेंगे?
आज मिले तो भरपूर जोश में
थे. तबीयत से नौ दिन का बकाया
मय सूद लौटा रहे थे सबको. पूछने पर बताया कि नव
रात्रे की आचार संहिता चल रही थी नौ दिन से, तो किसी से कुछ नहीं कह रहे थे. सबने
खूब मजे काटे हमारे. हम भी नोट करते गये बस!! अब ढूँढ ढूँढ कर इनको सुना रहे हैं.
कई लोगों ने तो इत्ती हद कर दी थी कि मन किया कि लिख कर गाली बक दें. नव रात्रे की
आचार संहिता में बोलना मना है, लिखना थोड़े ही न मना है. मगर फिर यह सोच कर जाने
दिया कि काहे कोई सबूत छोड़ना. काहे तोड़ना. भगवान से भला कैसी चीटिंग करना? बस नौ
दिन की तो बात है. कोई कहीं जा तो रहा नहीं है. न हम घंसु, न चौक, न पान की दुकान.
छोड़ेंगे किसी को नहीं बस, टाल दे रहे हैं जब तक आचार संहिता में बंधे हैं. तोड़ने
और उलंध्न करने में तो बस एक मिनट लगेगा और गंगा स्नान कर पंडितों को कुछ चढ़ावा
चढ़ा कर पाप भी धो लेंगे मगर जो लोगों की आस्था टूटेगी इस आचार संहिता की व्यवस्था
से, वो शायद कभी न जुड़ पाये. समाज के सुचारु संचालन के लिए संस्थानों की स्वायत्तता में आस्था आवश्यक है.
घंसु की बात सुनकर लगा कि
काश!! इतनी समझ हमारे नेताओं में भी आ जाती. नव रात्रे न सही, लोकतंत्र का महापर्व
तो है ही यह चुनाव. चुनाव आयोग चुनाव के दौरान इन नेताओं के आचरण पर लगाम लगाने के
लिए आचार संहिता के पालन का नियम बनाता है. चुनाव आयोग भगवान न सही मगर चुनाव के
महापर्व का सर्वशक्तिमान संचालक तो है. चुनाव की घोषणा से लेकर चुनाव सम्पन्न होने
तक के छोटे से अंतराल में आचार संहिता का पालन करने का भी धैर्य नहीं है इन नेताओं
में. नित उलंध्न करेंगे. नित क्षमा मांगेगे और नित सजा पायेंगे और फिर ठीकरा
फोड़ेंगे चुनाव आयोग पर कि सरकार से मिले हुए हैं और बदले की भावना से लिया गया
निर्णय है.
काश!! ये नेता भी घंसु से
यह पाठ ले पाते कि समाज के सुचारु
संचालन के लिए संस्थानों की स्वायत्तता में आस्था आवश्यक है. इसे मत नष्ट करो महज
अपने कुत्सित षणयंत्रों से जनता को लुभाने के प्रयासों में. जनता सब समझती है. कोई
फायदा नहीं. इससे न तुम उनकी नजरों में गिर रहे हो वरन खुद अपनी नजरों में भी गिर
ही रहे होगे, तुम मानो या मानो!!
मान तो तुम यह भी
नहीं रहे हो कि तुमने कोई गल्ति की है.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से
प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार अप्रेल २१, २०१९ को:
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