शुक्रवार, नवंबर 24, 2006

बस्ती से दूर....

चलो, बस्ती से दूर चलें!!!!
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कृप्या पंक्तियों के भीतर भावनाओं को पढ़िये:


बस्ती में जब भी आग लगी
भग निकले तब शैतान सभी
मरने वालों मे वो भी थे
जिनको कहते भगवान कभी.

कल को वो फिर से लौटेंगे
जब आग बुझा दी जायेगी
इस बस्ती की सूरत भी तब
बद से बदत्तर हो जायेगी.

कोई रोको इनको आने से
या बच बच कर भग जाने से
इनका है हमसे मेल नहीं
बस्ती में रहना खेल नहीं.

--समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

16 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Bahut Acche!!

बेनामी ने कहा…

सभी पक्तिंयां अच्‍छी है पर मुझे विशेष रूप ये पक्तिं अच्‍छी लगी
मरने वालों मे वो भी थे
जिनको कहते भगवान कभी.

इस संसार मे कई प्रकार के लोग रहते है जिसमे अपने एक प्रकार का वर्णन किया है, ये लोग न किसी को चैन से जीने देते है न मरने देते है। बनते देवता पर से यमराज से कम नही होते है।

बेनामी ने कहा…

वाह क्या बात कह दी आपने.
भावनाएं अपने आप शब्दो के रूप में अभिव्यक्त हो रही है.
पहली चार पंक्तियाँ तो जान है.
सुन्दर.

बेनामी ने कहा…

सुन्दर!!

पंकज बेंगाणी ने कहा…

गुरूजी,

ईमानदारी से कहता हुँ एक बात।

एक तो गुलज़ार साहब अच्छे लगते हैं, और एक जावेद अख़्तर की शायरी। अब एक आप हो!

Manish Kumar ने कहा…

बस्ती में जब भी आग लगी
भग निकले तब शैतान सभी
मरने वालों मे वो भी थे
जिनको कहते भगवान कभी.

यही तो त्रासदी है समाज की !

कैलाश चन्द्र दुबे ने कहा…

"बस्ती से दूर्…"
सुन्दर लिखकर सुन्दरता की बस्ती कर दी। बहुत-बहुत बधाई।

bhuvnesh sharma ने कहा…

वाह अच्छी कविता है

बेनामी ने कहा…

बहुत खूब । यथार्थ । बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ।

बेनामी ने कहा…

वाकई बहुत सुन्दर भाव है कविता के, खासकर पहली चार लाईने बहुत पसन्द आयी।

बेनामी ने कहा…

"बस्ती में जब भी आग लगी
भग निकले तब शैतान सभी
मरने वालों मे वो भी थे
जिनको कहते भगवान कभी"
सही कह रहे हैं आप, वैसे भगवान का स्वंय का अस्तित्व तो शैतान के कारण ही है। किसी सिनेमा मे विलेन न हो तो हीरो का क्या महत्व ।

बेनामी ने कहा…

बहुत खूब!

गिरिराज जोशी ने कहा…

गुरुदेव, अच्छी कविता की है आज, वरना हम तो सोच रहे थे कि आप अगर इसी तरह इश्कबाज़ी करने में लगे रहे तो "बस्ती" के बारे में कौन लिखेगा?

व्यस्त हूँ क्षमा करें, वरना इस पर बहुत कुछ लिखने वाला था, "फ्री" होते ही लिखता हूँ अपने नये घर पर ॰॰॰॰

बहुत सुन्दर विषय चुना है आपने।

बेनामी ने कहा…

.
हम सूर्य पुत्र हैं निडर घूमते
धर शशी रेखा अपने मस्तक पर
हिम गिरी के उतुंग शिखर भी
बस कंकड़ हैं जीवन पथ पर।
हम पौरुष का आतंक सहन कर
बस भींच नयन ना बैठ सके
प्रत्यंच चड़ा भ्रुकुटी की अपनी
चड़ हूंकार उठे अपने रथ पर।
सुमन रस बरसाने को ही तो
सुन, हम द्वापर के राम हुये
जो पीड़ पड़ी अपने ग्वालों पर
हम ही त्रेता के श्याम हुये
कलियुग के ह्र्दय की हूक सुनी
तो हूँ फ़िर तैयार बंदूक लिये
हैं रक्षा हेतू जीवन जिनका, वे
मरते नहीं प्यासे बिन लहू पिये।


रिपुदमन पचौरी

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत खूब! लेकिन कविता के साथ-साथ आपकी बनाई फोटो भी कम धांसू नहीं है जिसकी तरफ़ किसी ने ध्यान नहीं दिया!

बेनामी ने कहा…

अनूप शुकला जी,

बस भाँड़ वाली श्रेणी से निकलने का प्रयास है!
फ़ोटो: कम से कम एक लिखने वाले( समीर जी ) और एक पड़ने वाले ( आनूप शुकला जी ) ने ध्यान दे दिया बस उतने में ही मन प्रसन्न है।

शुभ-आशीष बनाये रखियेगा।

आदर सहित नमन
रिपुदमन