मंगलवार, नवंबर 07, 2006

कब आओगे, प्रिये!!






अभी बस चांद उगता है, सामने रात बाकी है
बड़े अरमान से अब तक, प्यार में उम्र काटी है
पुष्प का खार में पलना,विरह की आग में जलना
चमन में खुशबु महकी सी, प्रीत विश्वास पाती है.

गगन के एक टुकडे़ को, हथेली में छिपाया है
दीप तारों के चुन चुनकर, आरती में सजाया है
भ्रमर के गीत सुनते ही, लजा जाती हैं कलियां भी
तुम्हारी राह तकते हैं, तुम्हें दिल में बसाया है.

तुम्हीं हो अर्चना मेरी, तुम्हीं हो साधना मेरी
प्यार के दीप जलते हैं, तुम्ही हो कामना मेरी
धरा से आसमां तक है यही विस्तार आशा का
तुम्हीं में मै समा जाऊँ, यही अराधना मेरी.


--समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

14 टिप्‍पणियां:

पंकज बेंगाणी ने कहा…

लालाजी तेनु की होया है?

आर यु ओके?

या फिर युँ कहें "लाला इन लवेरिया"...

:)

संजय बेंगाणी ने कहा…

युवा ब्लोगरो के दिलो में हलचल मचने वाली है.

Pratyaksha ने कहा…

बढिया कविता ! चित्र तो धुँधला है पर आभास हो रहा है कि चित्रकारी और लडकी दोनो सुंदर हैं :-)

Unknown ने कहा…

बहुत खूबसूरत चित्र है....अनायास ही राकेशजी की कविता की पंक्तियाँ याद आ गई....."अगरबत्तियों का लहराता धुआँ, दीप की जलती बाती
मीत ! प्रार्थना के हर क्षण में चित्र तुम्हारा है बन जाती"
मुट्टी जो खुल जाये गगन छूट जायेगा...
दिन में छिपा राज़ ...सूरज सा निकल आयेगा...।

bhuvnesh sharma ने कहा…

क्या बात है समीरलालजी आपकी उडनतश्तरी आजकल दिल के ऊपर ही मँडराती है|

बेनामी ने कहा…

प्रेम की बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति है। सुन कर एक पुरानी फ़िल्म 'सति सावित्री' का गाना याद आ गया, मन्ना डे और लता मंगेश्कर का गाया हुआ। इंटर की मैथ्स लगाते समय रेडियो पर 'विविध भारती' सुना करता था और रात 10 बजे 'छायागीत' पर यह गाना अक्सर बजा करता था,

तुम गगन के चंद्रमा, मैं धरा की धूल हूं
तुम प्रणय के देवता हो मैं समर्पित फूल हूं

तुम महासागर की सीमा, मैं किनारे की लहर
तुम महासंगीत के स्वर, मैं अधूरी तान पर
तुम हो काया मैं हूं छाया
तुम क्षमा मैं भूल हूं

तुम ऊषा की लालिमा हो, भोर का सिंदूर हो
मेरे प्राणों की हो गुंजन मेरे मन की मयूर हो
तुम हो पूजा मैं पुजारी
तुम सुधा मैं प्यास हूं

वैसे ;-) क्या यह कविता कुंडलीनुमा हो सकती थी?

Jagdish Bhatia ने कहा…

सुंदर कविता :)

Pratik Pandey ने कहा…

बढिया कविता... मुझे गाना याद आता है - "सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे"।

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

कल्पना का क्षितिज, अर्चना के दिये
सब सजे एक आराधना के लिये
शब्द जो है ह्रदय का, व जो भाव है
जानता हूँ कि है साधना के लिये :-)

बेनामी ने कहा…

स्केच सुन्दर है।

Laxmi ने कहा…

तस्वीर अच्छी है और कविता भी। किसी लौंडिया के चक्कर में तो नहीं पड़ गए हो? पंकज की बात सही हो सकती है।

अनूप शुक्ल ने कहा…

भाई हम तो यही कहेंगे कि समीरलाल जी आजकल वह काम कर रहे हैं जो पहले कतिपय कारणों से नहीं कर पाये होंगे. लेकिन लिख बहुत ऊंचा रहे हैं. इतना ऊंचा कि हमें इस ऊंचाई पर आकर टिप्पणी करने में भी इत्ता समय लग गया. लक्ष्मीजी आप ऐसे कैसे डांटते हुये पूछते हैं! आपने पूछा समीरजी से दिल हमारा कांप गया.

बेनामी ने कहा…

प्रेम में पूजा की पावनता मन को छू गई ।

बेनामी ने कहा…

मान गये सर जी आपको, आप तो वाकई मे गजब ही गजब हो।