मज़हब, मज़हब के ठेकेदार...सब अपने आप मे पूरी वज़ह हैं कि हम पीते हैं.
रुप हंस 'हबीब' जी, जो आज की गज़ल की दुनिया के एक सम्मानित हस्ताक्षर हैं,
ने मुझे इस गज़ल की जमीन दी और फ़िर इस गज़ल को विशेष आशिष;
आप भी गौर फ़रमायें:
चलो आज़ पीते हैं...
उठाओ जाम मोहब्बत के नाम पीते है <(हबीब जी की पंक्ति)>
बहके उन हसीं लम्हों के नाम पीते हैं.
चमन मे यूँ ही बहकी मदहोश बहार रहे
हर फ़ूल से आती खुशबू के नाम पीते हैं.
मानवता की कहीं अब न बाकी उधार रहे
जपते मंत्रित उन मनको के नाम पीते हैं.
जुडते हर एक मिसरों से दिल को करार रहे
तेरे मिसरे से बनी गज़ल के नाम पीते हैं.
गली मे बसते झूठे मज़हब के ठेकेदार रहे
उनको होश मे लाने की कोशिश के नाम पीते हैं.
आती नसल को याद वो खंडहर मज़ार रहे
फ़र्जी मज़हब की मिटती हस्ती के नाम पीते हैं.
--समीर लाल 'समीर'
सोमवार, अप्रैल 17, 2006
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4 टिप्पणियां:
जुडते हर एक मिसरों से दिल को करार रहे
तेरे मिसरे से बनी गज़ल के नाम पीते हैं.
गली मे बसते झूठे मज़हब के ठेकेदार रहे
उनको होश मे लाने की कोशिश के नाम पीते हैं.
आती नसल को याद वो खंडहर मज़ार रहे
फ़र्जी मज़हब की मिटती हस्ती के नाम पीते हैं
वाह! क्या खूब व्यंग के सहारे आडंबरता पर्दा फाश किया है। हमारी जानिब से दाद कबूल फरमाऐं
आदाब
बहुत शुक्रिया,फ़िजा जी एवं राजीव भाई, हौसला अफ़जाई के लिए.
समीर लाल
आती नसल को याद वो खंडहर मज़ार रहे
फ़र्जी मज़हब की मिटती हस्ती के नाम पीते हैं...अलहमदुल्लिलाह वाह वाह
पता नहीं कहां से आज ये पंक्तियां याद आ गई। ग़ज़ब कशिश है। हज़ारों सलाम।
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