यह अनुगूँज मे मेरा पहला प्रयास है, वो भी कुण्डली के माध्यम से, एकदम नया तरीका: :)
कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर
पाछे पाछे हरि फिरे, कहत कबीर कबीर
कहत कबीर कबीर कि भईये ये कैसा जंतर
धर्म बना सिर्फ़ नाम और साधू सब बंदर
कह समीर टीवी पर हम खेलें रंग अबीर
अपना धर्म चलायें किनारे खडे रहें कबीर.
--समीर लाल 'समीर'
मंगलवार, अप्रैल 11, 2006
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7 टिप्पणियां:
बढ़िया धर्म है। खूब चलेगा।पेटेंट करवा लीजिये।
धन्यवाद, अनूप भाई.पेटेंट की कार्यवाही जारी है.
भाई साहब,
बस इतनी ही?... मन भी नहीं भरा इतनी सी कुण्डलियों से, हमारा क्या होगा............?
सागर भाई
प्रयास करुंगा इसे थोडा और बढाने का. :) फ़िर झेल लिजियेगा.
धन्यवाद
समीर
महावीर जी
बहुत धन्यवाद, आप पधारे और आपको मेरी रचना पसंद आयी.काव्यात्मक तारीफ़ के शब्द खुबसूरत हैं.
समीर लाल
कुंड़ली लगा कर बैठ गये देखो कवि समीर,
विचारों के उड़ रहे, बहुत गुलाल अबीर,
बहुत गुलाल अबीर,नया ये धर्म चला है,
गोरख धंधा टी वी पर ये चलन भला है,
बातें धर्म की बहुत पर, नाहीं सुध है उसकी
नया है ज्योतिष भईया और है, नई कुंड़ली.
समीर जी, आप किस चक्कर में पड़ने की सोच रहे है, धर्म तो आप पहले ही निभा रहे है---: 'कवि धर्म'-...श्रीमति रेणु आहूजा.
वाह रेणु जी
बहुत बढिया लिखा है और सलाह भी नेक है. पुनः विचार करता हूँ.
धन्यवाद
समीर लाल
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