2006 की बात है। तब नया नया ब्लॉग पर लिखना शुरू किया था। लिखना तो खैर क्या कहें – बातचीत जैसा कुछ भी छाप लेते थे और कुछ तुकबंदी टाइप कविता आदि भी। अखबार वगैरह में छपने का तो प्रश्न ही नहीं था। खुद का लिखा खुद के ब्लॉग पर छापने से भी कई बार खुद को मना कर देते थे यह कहते हुए कि कुछ कायदे का लिखो तब छापें। तब कुछ साथी ब्लॉगरों ने सलाह दी कि जब तक तुम सोचते हो कि लोग इस आलेख को बेवकूफी न समझें- छापे कि न छापे? तब तक तुमसे बड़ी बेवकूफियां लोग छाप कर मंच लूटे जा रहे हैं।
सलाह गांठ बांध ली। वो दिन
है और आज का दिन है, कभी अपनी बेवकूफी छापने में न तो हिचकिचाए और न ही शरमाये और
उससे भी बड़ी बात कि कभी अपनी बेवकूफी के सर्वश्रेष्ठ होने का घमंड भी नहीं किया
तनिक भर भी। इसका नतीजा यह हुआ कि अपने ब्लॉग पर कुछ लिखा छपा कुछ पत्रिकाओं और
अखबारों के संपादकों की नजरों से भी गुजरा।
संपादक पारखी होता है। वो
खोज पा रहे थे कि सबसे कम बेवकूफी वाला कौन सा है और उसे छाप भी दे रहे थे। वो एक
बार छापते और हम अपने पहचान वालों में सौ दफा बताते कि फलानी जगह छपे हैं। यह
बताने का सिलसिला अनवरत तब तक चलता जब तक की फिर से कहीं और कोई दूसरा आलेख न छप
जाए। जब इस बाबत अपनी पहचान में बताते तो ईमेल के सीसी में संपादक को भी रखते ताकि
उन्हें पता रहे कि फेवर लौटाने के लिए हम देखो तुम्हारा कितना प्रचार कर रहे हैं।
अक्सर तो संपादक एक ही चीज के लिए अपने प्रचार को इतनी बार देखकर घबराकर भी दूसरा
आलेख खोज कर छाप देता ताकि प्रचार का मैटर तो बदले। वरना एक ही प्रचार को बार बार
देखकर लोग बोरियत में हमारे आलेख के साथ साथ उनका अखबार और पत्रिका भी पढ़ना न छोड़
दे।
संपादक हैं तो संपादन किया
यह दिखाना भी चाहिए अतः संपादक मुझसे कहते कि समीर, इसमें यह वाली लाईन बदल ऐसे कर
लो और फिर मुझे भेजो तो पत्रिका के अगले अंक में लगाता हूँ। कई बार मन किया कि कह
दें – भाई, आप ही बदल कर छाप दो मगर संस्कार आड़े आ गए और खुद सलाहानुसार बदल कर
भेज कर छप लिए और ऐसे ही बार बार एक लाईन बदल कर छपते रहे।
एक दो साल ऐसे ही वो छापते
रहे और हम छपते रहे। करत करत
अभ्यास के जड़मति होत सुजान – तो
शायद लेखन कुछ कम बेवकूफी भरा होने लगा होगा और उम्र तो समय के साथ कदम ताल मिलाती
ही है। गौर किया तो पाया कि वो संपादक महोदय अब मुझे समीर की जगह समीर भाई से संबोधित
करने लगे। मुझे लगा शायद इतने दिनों के संबंध है अतः घनिष्ठता आना भी स्वाभाविक
है।
उम्र तो रुकती नहीं अतः और
बढ़ी। लिखना भी लिखने वालों का कहाँ रुकता है तो वो भी बढ़ता रहा। समीर भाई समय के
साथ साथ समीर जी हुए और फिर आदरणीय समीर जी।
लेखन वही, पत्रिका वही –
पंक्ति बदलने का सुझाव भी वही, यहाँ तक कि संपादक भी वही। कुछ नहीं बदला सिवाय
हमारे सम्बोधन के।
पिछले सप्ताह जो ईमेल आई
पंक्ति बदलने के लिए उसमें सम्बोधन था श्रद्धेय समीर लाल जी। इतने बरसों मे आज
पहली बार मैं थमा और विचार किया इस बात पर कि निश्चित ही उम्र बढ़ने के साथ साथ
समाज की नजर में आपके संबोधन बदलते जाते हैं।
जो कभी नाम के साथ पत्रिका
में लिखते थे कि लेखक एक चर्चित ब्लॉगर हैं वो धीरे धीरे दर्जा चर्चित ब्लॉगर से
कहानीकार से साहित्यकार से व्यंग्यकार से वरिष्ठ व्यंग्यकार तक ले आए।
वो दिन दूर नहीं जब मैं
पाऊँगा कि अब वो मुझे मानसमणी परम श्रद्धेय समीर लाल जी और दर्जे में ‘व्यंग्य के
मठाधीश’ पुकार रहे हैं।
एकाएक ख्याल आता है अगर मेरी
उम्र बढ़ी है तो वो संपादक महोदय भी तो उम्र दराज हुए ही होंगे तब यह सम्बोधन
परिवर्तन कैसा?
कुछ मनन किया और कुछ चिंतन
और तब जाना कि एसी कमरों में बैठे नेताओं की तरह ही यह संपादक भी चिरयुवा होते हैं,
उम्र तो उनकी बढ़ती है जो वाकई में मेहनत कर पसीना बहा रहे हैं। फिर वो आम जनता हो
या हम जैसा लेखक।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे के मंगलवार 28 जनवरी ,2025 के अंक में:
https://epaper.subahsavere.news/clip/15703
ब्लॉग पर पढ़ें:
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
#व्यंग्य_की_जुगलबंदी
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
#Hindi_Blogging
2 टिप्पणियां:
विकास का क्रम अनवरत चलता रहे ,एक दिन - 'व्यंग्य-शिरोमणि' खिताब हासिल करके ही दम लें.
आदरणीय समीरजी
कृपया सम्बोधन की ओर ध्यान दे आपसे हमारा रिश्ता ही ऐसा है की हम समीरजी लिख रहें है वरना सिर्फ समीर लिखने से भी काम चल सकता था और फिर आपकी साहित्य साधना आपको जी से मानसमणी परम श्रद्धेय समीर लाल जी और दर्जे में ‘व्यंग्य के मठाधीश’ बना देगी। यह तो सम्मानजनक बात है
अब आप हमारे दुखद सम्बोधन पर ध्यान दे पहले यही रागिनी हाय रागिनी ,हेलो रागिनी कहलाती थी फिर रागिनी जी ,रागिनी बहन ,रागिनी ऑन्टी ओह माय गॉड यहां तक तो सहनीय था लेकिन फिर ?????माताजी ,अम्माजी ,और अब दादी नानी , किस किस को रोके समय और बालों के रंग से समझौता कर लिया और केशव कवि की एक घटना याद आ गयी।
एक बार कवि केशव कहीं जा रहे थे रास्ते में उन्हे प्यास लगी देखा कुछ सुन्दर महिलाये कुऍं से पानी भर रही है उनको देखने और पानी पीने की लालसा से कुँए पर पहुँच गए। एक महिला ने कहा बाबा पानी पियोगे --केशव कवि सम्बोधन सुन कर सकते में आ गए
यह तो पता नहीं की उनने पानी पिया या नहीं पर उन्होंने यह पंक्तिया अवश्य लिखी -----आप भी गौर फरमाए ---
केशव केसन अस करि ,
जस बिधि अरिहु न कराये
अर्थात
केशव कवि के बालो ने ऐसा किया जैसा ईश्वर दुश्मन को भी न कराये
क्या न कराये ???
चंद्र मुखी मृगलोचनि बाबा कही कहि कहि जाए
अर्थात चंद्रमुखी और मृगलोचनि सुन्दर महिलाये उन्हें बाबा कह रही है
धन्यवाद
रागिनी
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